आदि मानव सभ्यता के विकास के क्रम में ही प्रकृति का महत्व जान गया था, जिसमें नदी, पहाड़, वृक्ष, वन, वायु, अग्नि आकाशादि तत्वों की उसने पहचान कर ली थी और इनका प्रताप भी देख चुका था। इनको उसने देवता माना एवं इनकी तृप्ति का वैज्ञानिक साधन यज्ञ के रुप में अविष्कृत किया।
हम देखते हैं कि गुण धर्म के आधार पर प्रारंभिक मानव ने वृक्षों में भेद किया, यानी वृक्षों की महत्ता को ज्ञात कर उनका वर्गीकरण किया। इसके पश्चात उन वृक्षों को देवी-देवताओं के साथ संबद्ध कर लिया। इस तरह ग्राम्य वृक्ष अलग हो गये और वन वृक्ष अलग। दोनों के पृथक-पृथक कार्य थे।
ग्राम्य वृक्ष में वट, पीपल, गस्ती, नीम, अशोक, पारिजात, इत्यादि वृक्षों को ले सकते हैं, इसी तरह ग्राम परिधि में इमारती लकड़ी एवं फ़लदार वृक्षों (जो कृषि कार्य एवं गृह निर्माण में उपयोगी हों) को लिया। आंवले के गुणों को जानकर ग्राम्य में वृक्ष में कालांतर में सम्मिलित किया गया।
ग्राम्य वृक्षों की विभिन्न त्यौहारों एवं अवसरों पर पूजा करने का विधान बना और पर्वों पर इनके गुणों के कारण इनकी पूजा होने लगी। इसी तरह वट सावित्री पूर्णिमा को वट वृक्ष की पूजा करने का विधान है। इस वृक्ष में बरम बाबा याने ब्रह्मा का निवास माना गया।
स्कन्द एवं भविष्य पुराण के अनुसार वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को किया जाता है, लेकिन निर्णयामृतादि के अनुसार यह व्रत ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को करने का विधान है। वट सावित्री पूर्णिमा व्रत दक्षिण भारत में किया जाता है, वहीं वट सावित्री अमावस्या व्रत उत्तर भारत में विशेष रूप से किया जाता है।
महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य एवं कल्याण के लिए यह व्रत करती हैं। वट सावित्री एक ऐसा व्रत जिसमें हिंदू धर्म में आस्था रखने वाली स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र और संतान प्राप्ति व सुख सौभाग्य की कामना से करती हैं। इस व्रत के पीछे पौराणिक आख्यान जुड़ा हुआ है।
वट सावित्री पौराणिक आख्यान
वट सावित्री व्रत की यह कथा सत्यवान-सावित्री के नाम से उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रचलित हैं। इस कथा के अनुसार एक समय की बात है कि मद्रदेश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा का राज था। उनकी कोई भी संतान नहीं थी। राजा ने संतान प्राप्ति हेतु यज्ञ करवाया। कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा।
विवाह योग्य होने पर सावित्री ने अपने लिए द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण किया। सत्यवान वैसे तो राजा का पुत्र था लेकिन उनका राज-पाट छिन गया था और अब वह बहुत ही द्ररिद्रता का जीवन जी रहे थे। उसके माता-पिता की भी आंखों की रोशनी चली गई थी। सत्यवान जंगल से लकड़ियां काटकर लाता और उन्हें बेचकर जैसे-तैसे अपना गुजारा कर रहा था।
जब सावित्री और सत्यवान के विवाह की बात चली तो नारद मुनि ने सावित्री के पिता राजा अश्वपति को बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं और विवाह के एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी। हालांकि राजा अश्वपति सत्यवान की गरीबी को देखकर पहले ही चिंतित थे और सावित्री को समझाने की कोशिश में लगे थे। नारद की बात ने उन्हें और चिंता में डाल दिया लेकिन सावित्री ने एक न सुनी और अपने निर्णय पर अडिग रही।
अंतत: सावित्री और सत्यवान का विवाह हो गया। सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही। नारद मुनि ने सत्यवान की मृत्यु का जो दिन बताया था, उसी दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन को चली गई। वन में सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जैसे ही पेड़ पर चढ़ने लगा, उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी और वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया।
कुछ देर बाद उनके समक्ष अनेक दूतों के साथ स्वयं यमराज खड़े हुए थे। जब यमराज सत्यवान के जीवात्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे, पतिव्रता सावित्री भी उनके पीछे चलने लगी। आगे जाकर यमराज ने सावित्री से कहा, ‘हे पतिव्रता नारी! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया। अब तुम लौट जाओ।”
इस पर सावित्री ने कहा- ‘जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए। यही सनातन सत्य है।” यमराज सावित्री की वाणी सुनकर प्रसन्न हुए और उसे वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा- ‘मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें।”यमराज ने ‘तथास्तु” कहकर उसे लौट जाने को कहा और आगे बढ़ने लगे। किंतु सावित्री यम के पीछे ही चलती रही।
यमराज ने प्रसन्न होकर पुन: वर मांगने को कहा। सावित्री ने वर मांगा-‘मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए।”यमराज ने ‘तथास्तु” कहकर पुन: उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अपनी बात पर अटल रही और वापस नहीं गयी।
सावित्री की पति भक्ति देखकर यमराज पिघल गए और उन्होंने सावित्री से एक और वर मांगने के लिए कहा। तब सावित्री ने वर मांगा-‘मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं, कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें।” सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्ना हो इस अंतिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान की जीवात्मा को पाश से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गए।
सावित्री जब उसी वट वृक्ष के पास आई तो उसने पाया कि वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीवन का संचार हो रहा है। कुछ देर में सत्यवान उठकर बैठ गया। उधर सत्यवान के माता:पिता की आंखें भी ठीक हो गईं और उनका खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया।
वट सावित्री पूर्णिमा पूजन विधि
सांस्कृतिक सीमाएं बदलने के साथ लोकाचार में कुछ भेद हो सकता है परन्तु लगभग सभी राज्यों में पौराणिक विधान एक से ही दिखाई देते हैं। सावित्री पूर्णिमा के दिन सर्वप्रथम विवाहित यानि सुहागन महिलाएं सुबह उठकर अपने नित्य क्रम से निवृत हो स्नान करके शुद्ध हो होती हैं, फिर सुन्दर नववारी पातळ (साड़ी), मोतियों वाली नथ पहनकर दुल्हन की तरह सोलह श्रृंगार कर करती हैं।
इसके बाद पूजन के सभी सामग्री की थाल जिसमें अक्षत, पान- फूल , हल्दी- कुमकुम, सुपारी, दीप-धूप, कर्पूर, दूध-दही, शक़्कर, नया कपड़ा, कच्चा डोरा या सूत आदि से सजाकर एक दूसरी टोकरी में आम फल व गेहूं लेकर वट वृक्ष पूजन हेतु जाती हैं.
वट वृक्ष के नीचे जाकर अब धूप, दीप, हल्दी – कुमकुम आदि से पूजन आरती करती हैं । लाल कपड़ा सत्यवान-सावित्री को अर्पित कर तथा फल तथा गेहूं से सर्वप्रथम सावित्री की ओटी (गोद) भरती हैं। इसके बाद कथा कर्म के साथ-साथ वट वृक्ष के चारों ओर कच्चा सूत भी परिक्रमा के दौरान लपेटती हैं। हल्दी भरे हाथों के पाँच छापे वट वृक्ष पर लगाकर अपने सुख व सौभाग्य का आशीष मांगती हैं।
पूजा अर्चना के बाद हर सुहागिन पांच से सात सुहागिनों को हल्दी कुमकुम लगाकर उनकी गेंहूं और आम से ओली भरती है। इसके बाद घर में आकर पति व घर के बड़ों के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लिया जाता है। उसके बाद शाम के वक्त एक बार मीठा भोजन करके अथवा यथाशक्ति दोनों समय फलाहार करके व्रत पूर्ण किया जाता है ।
वट सावित्री व्रत में ‘वट’ और ‘सावित्री’ दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। पाराशर मुनि के अनुसार- ‘वट मूले तोपवासा’ ऐसा कहा गया है।
पुराणों में यह स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। इसकी छांव तले पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है। वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। संभव है वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए भी वट के नीचे पूजा की जाती रही हो और बाद में यह धार्मिक परंपरा के रूपमें विकसित हो गई हो।
दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना इस व्रत का अंग बना तथा ग्रामवासी वृक्षों की पूजा करने लगे। जिससे वृक्षों की रक्षा हो सके, देवताओं का निवास होने के कारण कोई इन्हें न काटे तथा हानि न पहुंचाये तथा प्रकृति एवं पर्यावरण का संरक्षण हो सके।
सकारात्मक लेख वाह सारगर्भित