बस्तर संभाग में जनजाति बाहुल्य गांव में और मिश्रित जनजाति के गांव में दो धाराएं स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। एक धारा देव संस्कृति को मानने वाली होती है और दूसरी धारा देव संस्कृति के साथ वैदिक संस्कृति को भी अपने कार्य व्यवहार में समाहित कर लेती है। मिश्रित जाति जनजाति के लोग जब उन्हें लोक देवता की पूजा करनी होती है तो वे जनजाति समाज की तरह देव संस्कृति के अंतर्गत अपने लोक देवताओं की जनजाति की तरह पूजा में भाग लेते हैं और उनके तरह ही सब कार्य व्यवहार करते हैं।
उदाहरण स्वरूप कुम्हार दीया धूपनी लाता है मरार फूल पत्ता लाता है रावत तेल, घी, खाने-पीने के लिए पानी की पूर्ति करता है और दूसरे समाज के लोग इस कार्य के लिए जो सामाजिक अवदान है उसको देते हैं, इस तरीके से एक सामुदायिक कार्य करके ऐसे कार्य जो देव उत्सव होते हैं संपन्न होते हैं देव संस्कृति और वैदिक संस्कृति की यह दोनों विचारधाराएं दो समय स्पष्ट देखी जा सकती है।
एक समय नवा खाने का होता है और दूसरा पितृ देव की पूजा के समय होती है। नवा खाने का समय गणेश चतुर्थी का होता है जिसमें मिश्रित जनजाति जाति के लोग गणेश प्रतिमा की स्थापना अपने अपने गांव में करते हैं। मगर जब संभागीय स्तर पर गोंडवाना समाज नवा खाने की तिथि की घोषणा करता है तो उस तिथि के पहले गणेश प्रतिमा का विसर्जन 5 दिन 3 दिन 7 दिन में कर दी जाती है और मिश्रित जनजाति के लोग गांव माटी के नवा खाने के बाद खुद भी नवा खाते हैं।
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इस तरह मिश्रित जाति और जनजाति के लोग वैदिक संस्कृति से ज्यादा आदिकाल से निवासरत देव संस्कृति को मानने वाले के साथ रहकर देव संस्कृति को ज्यादा महत्व देते हैं। एक समय और आता है जब देव संस्कृति को मानने वाले मिश्रित जाति और जनजाति के लोग वैदिक संस्कृति के अनुसार अपने पितृ देव का तर्पण करते हैं। यह लोग जनजाति गोंड समाज से अलग अपने देवताओं को मृत्यु के 1 साल बाद अपने पित देव में शामिल करते हैं और उनकी विधिवत पूजा एवं तर्पण करते हैं।
इसमें हल्बा जनजाति भी शामिल है। बाकी कुम्हार केवट कोस्टा कलार आदि शामिल है। पितृ श्राद्ध के पहले दिन इनकी महिलाएं आंगन के एक स्थान पर गोबर से लिखती हैं। चावल आटे से चौक पूरती हैं, इसे बाना भरना कहते हैं और इसी जगह पूजा करने के बाद पितृ तर्पण किया जाता है। जिस तिथि में खानदान के लोगों का अवसान होता है उस तिथि में पितरों के सम्मान में महाभोज का आयोजन किया जाता है और अपने भांजे को भोज कराया जाता है, दान दक्षिणा दी जाती है।
यहां भांजा जो होता है वह पुरोहित के रूप में होता है। यदि गांव में ब्राह्मण बैरागी होते हैं तो उनके यहां रसोई चावल, दाल, साग एवं दक्षिणा पहुंचा दिया जाता है और अपने पितृ देव को उस के दूसरे दिन विदा कर देते हैं। विदा करने के लिए शाम को अंधेरा होने के पहले पूरे मोहल्ले के सभी लोग एक जगह इकट्ठा होते हैं वहां सामूहिक रूप से गोबर से लिप कर चौक बनाया जाता है। वहां बारी-बारी से सब पूजा करते हैं और अपने पितृ देव को विदा करते हैं। इस तरह मिश्रित जाति और जनजाति के लोग अपने पित्र देव का तर्पण करते हैं
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इसके उलट जनजाति गोंड समाज में पितृ देव तर्पण करने की प्रथा नहीं है इसका कारण है कि वह अपने पितृ देव का अपने घर में नुकांग अड़ा में स्थापित कर हर समय पूजा करता है। जब भी कोई अवसर आता है तब वह अपने देवताओं के साथ अपने पितृ देव का, जिसे वह डूमा देव कहता है उसकी पूजा करता है। जनजाति समाज के किसी भी खानदान के बड़े घर में नुकांग अड़का अर्थात चावल हांडी स्थापित होती है।
यह घर खानदान के अन्य लोगों के लिए श्रद्धा का केंद्र होता है और बहुत पवित्र होता है। यहां उनके पितृ देव याने डूमा देव स्थापित होते हैं। इस कमरे में जहां डूमा देव स्थापित होते हैं, उस स्थान पर महिलाओं का जाना वर्जित होता है। बहन बेटियां इस कमरे में नहीं जा सकती। केवल बहुओं को जाने की इजाजत है कारण की वे खानदान के गोत्र में सम्मिलित हो चुकी हैं। इसमें भी एक शर्त है उन्हीं बहुओं को इस कमरे में जाने की इजाजत होती है जिसका पहला बच्चा लड़का होता है।
इस तरीके से यह बहुत पवित्र स्थान होता है। खानदान के लोग अपने पितृदेव को अपना रक्षक देव मानते हैं और जब भी उन्हें किसी भी प्रकार का कष्ट होता है, तो वह सबसे पहले अपने डूमा देव के शरण में आते हैं और आस्था और विश्वास कहिए उनका कष्ट का निवारण होता है। नुकांग अड़का या चावल हांडी में पितृदेव को मृत्यु संस्कार के बड़े काम के दिन सम्मिलित किया जाता है। जनजाति समाज में विषम गोत्री रिश्तेदार जिन्हें अक्कू मामा कहते हैं का बहुत महत्व होता है।
इन्हीं लोगों के द्वारा मृतक परिवार की शुद्धिकरण की जाती है और उसी दिन मृत्यु स्तम्भ बनाया जाता है। मृत्यु स्तंभ बनाने के बाद सब नहाने के लिए जाते हैं। आपको मामा परिवार मृतक परिवार को चुन माटी मुलतानी माटी देकर नहाने को कहता है और वह शुद्ध होते हैं। इसके बाद मृत्यु स्तंभ के पास अक्कू मामा परिवार भोजन बनाता है और मृतक को भोग लगाते हैं बचे हुए चावल को एक नए हड्डी में डालकर फिर से नहाने के घाट जाते हैं। वहां एक मछली पकड़ कर हड्डी में रखकर पुजारी माटी गांयता उसे लेकर मृतक परिवार के घर आते हैं। जहां उसे पूरे अनुष्ठान के साथ चावल हांडी में स्थापित कर पितृदेव बनाया जाता है।
मृतक आत्मा का चावल हांडी में प्रवेश हुआ या नहीं इसका विधिवत परीक्षण किया जाता है। एक चूजे को चावल टोकाया जाता है यदि चूजे ने चावल खा लिया तो समझा जाता है की आत्मा पितृदेव के रूप में घर में प्रवेश कर चुकी है। उसके बाद उनकी विधिवत पूजा कर शराब तर्पण किया जाता है। इसी तरीके से एक गांव में एक गोत्र के लोग निवासरत होते हैं उन सबके परिवार में जितने लोग भी मृत होते हैं। उन लोगों की आत्मा को गांव में ही एक जगह स्थापित की जाती है इसे आना कुड़मा कहते हैं।
देव मंदिर से भी छोटी संरचना होती है और यहां पूरे गांव के एक गोत्र के लोगों का आत्मा को स्थापित किया जाता है। ऐसा करने के पीछे जनजाति समाज की सोच है कि मृतक आत्माएं एक साथ रहेंगे तो उनका प्रभाव ज्यादा होगा और गांव में आने वाली बुरी शक्तियों को वे नष्ट करेंगे। इस प्रकार जनजाति समाज अपने पितृ देव को विसर्जित नहीं करता बल्कि वे उसे ससम्मान अपने घर में स्थापित करते हैं और जब भी देव उत्सव का पूजा होता है। उनकी विधिवत पूजा की जाती है और उन्हें बलि एवं तर्पण दी जाती है जनजाति समाज के पितृदेव उनके रक्षक देव होते हैं जो हर समय उनकी सहायता करते हैं।
(लेखक आदिवासी संस्कृति के जानकार हैं एवं विशेषकर गोंडी संस्कृति के विशेषज्ञ माने जाते हैं।)
आलेख
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नारायणपुर, बस्तर, छत्तीसगढ़