Home / ॠषि परम्परा / देवशयनी एकादशी का पौराणिक एवं सामाजिक महत्व

देवशयनी एकादशी का पौराणिक एवं सामाजिक महत्व

जीवन में योग, ध्यान व धारणा का बहुत महत्व है, क्योंकि इससे सुप्त शक्तियों का नवजागरण एवं अक्षय ऊर्जा का संचय होता है। इसका प्रतिपादन हरिशयनी एकादशी से भली-भांति होता है, जब भगवान विष्णु स्वयं चार महीने के लिए योगनिद्रा का आश्रय ले ध्यान धारण करते हैं। भारतवर्ष में गृहस्थों से लेकर संत, महात्माओं व साधकों तक के लिए इस आषाढ़ी एकादशी से प्रारम्भ होने वाले चातुर्मास का प्राचीन काल से ही विशेष महत्व रहा है।

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर २६ हो जाती है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है।

सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी आती है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है। इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें उठाया जाता है। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है।

देवशयनी एकादशी आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष के ग्यारहवें दिन आती है। इसे आषाढ़ी एकादशी, महाएकादशी, आषाढ़ी एकादशी, तोली एकादशी, पद्मा एकादशी, देवपोधि एकादशी और हरि शयन एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। महाराष्ट्र में, वार्षिक पधरपुर यात्रा या पधरपुर मंदिर की पवित्र तीर्थयात्रा इस दिन समाप्त होती है।

दक्षिण में इस दिन को टोली एकादशी के नाम से जाना जाता है। वैष्णव मठों में पारंपरिक रिवाज के अनुसार, कैदी अपने शरीर पर गर्म मुहर पहनते हैं जिसे तप्त मुद्रा धारण कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु इस दिन क्षीर सागर (दूध सागर) में लंबी नींद (योगनिद्रा )के लिए जाते हैं। इसलिए, यह दिन भगवान विष्णु और माता महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए आदर्श माना जाता है। भगवान की नींद को योग-निद्रा कहा जाता है जो चार महीने तक चलती है।

देवशयनी एकादशी के सन्दर्भ में कई पौराणिक कथायें प्रचलित हैं :

अकाल पड़ने से त्राहि-त्राहि मची थी-

देवशयनी एकादशी की कहानी भगवान ब्रह्मा ने ऋषि नारद को सुनाई थी। राजा मांधाता एक अत्यंत समृद्ध और समृद्ध राज्य पर शासन करते थे। उसकी प्रजा अपने राजा से असाधारण रूप से प्रसन्न थी। एक बार उनके राज्य में अकाल पड़ा। तीन वर्षों तक वर्षा की कमी रही। लोग बीमारी और भुखमरी से पीड़ित थे। राजा मांदाता को अपनी गलती का पता नहीं चल पाया। इसलिए, वह साम्राज्य की दुर्दशा का समाधान ढूंढने के लिए एक लंबी यात्रा पर निकल गया। वह कई साधु-संतों से मिले लेकिन कोई भी उन्हें इसका समाधान नहीं दे सका। उन्होंने समाधान खोजने के लिए अपनी यात्रा जारी रखी।

देवशयनी एकादशी के व्रत के मिला उपाय और खुशहाल जीवन-

रास्ते में उनकी मुलाकात ऋषि अंगिरा से हुई जिन्होंने राजा को देवशयनी एकादशी पर भगवान विष्णु की पूजा करने और पूरे विधि-विधान से व्रत रखने की सलाह दी। मांधाता अपने राज्य लौट आए और देवशयनी एकादशी का व्रत किया।

देवशयनी एकादशी के दिन एक बड़ी सभा ने लगन से कठोर उपवास और पूजा प्रक्रियाओं का पालन किया। जल्द ही, राज्य को अपना खोया हुआ गौरव मिल गया और बारिश वापस आ गई जिसके परिणामस्वरूप खुशी और समृद्धि आई। जो लोग देवशयनी एकादशी का व्रत करते हैं उन्हें भगवान विष्णु शांति, सुख और समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। भक्त जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं। इन भक्तों को मोक्ष या मोक्ष की प्राप्ति होती है।

पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मासपर्यन्त (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को ‘देवशयनी’ तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं।

इस काल में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है, वे सभी त्याज्य होते हैं। भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है। संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है।

हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।

धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया। अत: उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं।

पुराण के अनुसार यह भी कहा गया है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया।

तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें।

बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, शिवजी महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं।

देवशयनी एकादशी का सामाजिक महत्त्व-

प्राचीन काल में भी भारत का विज्ञान काफी आगे था। हमारे ऋषि मुनि जो भी करते थे उसके पीछे ठोस वैज्ञानिक आधार होता था। आषाढ़ मास यहाँ पर मानूसन यानी वर्षा ऋतु का मास है और एकादशी तक देश के सभी प्रांत तक मानसून पहुंच ही जाता है। हमारे देश में गाँव में आज भी मानसून आने के बाद मुख्य रूप से खेती ही की जाती है और तमाम रास्ते बारिश और जंगलों की वजह से अवरुद्ध हो जाते हैं। पहले यातायात के साधन भी पशुओं और ग्रामीण रास्तों को ध्यान में रखकर बनाए जाते थे इसलिए मानसून के चार महीने वैवाहिक कार्यक्रम बन्द कर दिए जाते थे ताकि किसी को परेशानी न हो।

हमारे यहाँ ऋषि मुनि जंगलों में तप करने जाते थे। वर्षा काल में जंगली और खूंखार जानवरों के डर से वो नगर या गाँव के आसपास ही अपना ठिकाना बना लेते थे और वर्षा काल बीतने के बाद वापस अपने ठिकानों पर चले जाते थे। हमारे यहाँ ऋषि मुनियों के स्थान भी देवतुल्य ही माना गया है । और ऋषि मुनि अपनी पूजा तप छोड़कर गांव नगर की तरफ प्रस्थान करते हैं इसलिए भी इसे देवशयन समय माना गया है।

देवशयनी एकादशी में वैसे तो व्रत पूजा पाठ किया जाता है लेकिन अगर व्रत आदि में कोई अड़चन है तो वेद पुराण पढ़कर अपना ज्ञान बढाया जा सकता है। साथ ही साथ इस दिन चावल वर्जित माना गया है इसके पीछे वैज्ञानिक आधार यह है कि चावल खाकर बारिश के मौसम में आप शान्ति से ज्ञान अर्ज़न नहीं कर सकते और ध्यान मग्न भी नहीं हो सकते।

इस व्रत को वैष्णव और गैर-वैष्णव दोनों ही समुदायों द्वारा मनाया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि एकादशी व्रत हवन, यज्ञ , वैदिक कर्म-कांड आदि से भी अधिक फल देता है। इस व्रत को रखने की एक मान्यता यह भी है कि इससे पूर्वज या पितरों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

“सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिदम्, विबुद्दे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचरम् ।।”

इस व्रत को करने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और उनके सभी पापों से मुक्ति मिलती है (यदि अनजाने और भूल से में कोई पाप का भागी बन जाए, जानबूझकर किए गए पाप के लिए तो दंड अनिवार्य है)।

इस एकादशी को सौभाग्य की एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पद्म पुराण का दावा है कि इस दिन उपवास या उपवास करने से जानबूझकर या अनजाने में किए गए पापों से मुक्ति मिलती है।इस दिन पूरे मन और नियम से पूजा करने से महिलाओं की मोक्ष की प्राप्ति होती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार देवशयनी एकादशी का व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

शास्त्रों के अनुसार चातुर्मास सच्चे अर्थों में संन्यासियों द्वारा समाज को मार्गदर्शन करने का समय है। आम आदमी यदि इन चार महीनों में ही सत्याचरण करे तो भी उसे अपने अंदर आध्यात्मिक प्रकाश नजर आएगा।

शास्त्रों के अनुसार चातुर्मास में 16 संस्कारों का आदेश नहीं है। इ न चार महीनों में कोई भी मंगल कार्य- जैसे विवाह, नवीन गृहप्रवेश आदि नहीं किया जाता है, हालांकि पूजन, अनुष्ठान, मरम्मत करवाए गए घर में गृह प्रवेश, वाहन व आभूषण खरीदी जैसे काम किए जा सकते हैं।

आलेख

श्रीमती संध्या शर्मा सोमलवाड़ा, नागपुर (महाराष्ट्र)

About hukum

Check Also

युवाओं के आदर्श प्रेरणा स्रोत श्री हनुमान

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के सर्वोत्तम सेवक, सखा, सचिव और भक्त श्री हनुमान हैं। प्रभुराम …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *