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कवर्धा राज का दशहरा उत्सव

हमारा देश सनातन काल से सौर, गाणपत्य, शैव, वैष्णव, शाक्त आदि पंच धार्मिक परम्पराओं का वाहक रहा है। यहाँ पर्वों एवं त्यौहारों की कोई कमी नहीं है, सप्ताह के प्रत्येक दिन किसी न किसी देवी-देवता को समर्पित होते हैं। विक्रम संवत की प्रत्येक तिथियाँ भी अपनी विशिष्टता लिए हुए हैं। इन तिथियों के अनुसार देश में विभिन्न पर्व एवं त्यौहार मनाए जाते हैं। जिन्हें स्मरण में रखकर लोक स्वत: ही इन पर्वों को मनाता है।

छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं है, यहाँ भी विभिन्न पर्व एवं त्यौहार मनाए जाते हैं। लोक के त्यौहारों के साथ कुछ विशिष्ट त्यौहार राजे रजवाड़ों द्वारा मनाए जाते हैं, जिसमें समस्त लोक सम्मिलित होता है। इन त्यौहारों में शक्ति की उपासना का पर्व प्रमुख है, क्वांर नवरात्रि में रजवाड़ों में शक्ति की उपासना की जाती है तथा दशहरा के दिन शस्त्र पूजा के साथ राजा की शोभायात्रा भी निकाली जाती है। राजा चाहे वर्तमान जाति व्यवस्था के अनुसार किसी भी जाति का हो, लेकिन उनकी गिनती क्षत्रियों में ही होती है।

बस्तर राज में 75 दिन चलने वाला दशहरा पर्व है, फ़िंगेश्वर में राजा की शाही सवारी निकाली जाती है। सारंगढ़ में गढ़ जीतने की प्रतिस्पर्धा होती है, तो सरगुजा का राजपरिवार शस्त्र पूजा कर दशहरा मनाता है। छत्तीसगढ़ में लगभग जमीदारियों में दशहरा उत्सव मनाया जाता है, कहीं विशुद्ध शाक्त परम्परा के अनुसार देवी उपासना होती है तो कहीं भगवान राम की शोभा यात्रा निकाली जाती है।

कवर्धा जमींदारी में राज परिवार भी अपनी परम्पराओं के निर्वाह लिए विख्यात है। कवर्धा राज परिवार ने रियासत काल से अब तक पीढी दर पीढी अपनी परम्पराओं का बखूबी निर्वहन किया और आज भी राजपरिवार के सदस्य उसे आगे बढ़ा रहे है। इन्ही परम्पराओं से जुड़ा है कवर्धा राज परिवार का शाही दशहरा।

छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में शाही दशहरा मनाने की बरसों पुरानी परंपरा आज भी कायम है। ऐसा माना जाता है 17वीं शताब्दी से शाही दशहरा मनाया जा रहा है। इसी काल में कवर्धा स्टेट की स्थापना के साथ ही यहां राजपरिवार का दशहरा में खास सहभागिता शुरू हुई, जो आज सैकड़ो वर्षों बाद भी कायम है।

वर्तमान गोड़वंशी राजा योगेश्वर राज सिंह के परदादा धर्मराज सिंह सनातन परम्परा के प्रखर संवाहक और शंकराचार्य की सनातन परम्परा के पालन वाले थे। उनके कार्यकाल में राजपरिवार की कीर्ति धर्म के क्षेत्र में सर्वाधिक बढ़ी। स्वामी करपात्री जी, शंकराचार्य ब्रह्मानन्द सरस्वती जी का प्रभाव इनके उपर बहुत अधिक रहा है। धर्मराज सिंह के कारण ही कवर्धा को धर्म नगरी के रूप में भी ख्याति रही है। धर्मराज सिंह दशहरा पर में सम्मिलित होते थे तथा वर्तमान में भी उनके वंशज इस परम्परा का निर्वाह बखूबी कर रहे हैं।

दशहरा के दिन कवर्धा रियासत के वर्तमान राजा योगेश्वर राज सिंह, उनके बेटे युवराज मैकलेश्वरराज सिंह महल से शाही रथ में सवार होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं। राज परिवार से आगे राम दरबार का रथ चलता है। शाही जुलुस में वनवासी पारम्परिक नृत्य, डंडा नाच के साथ आधुनिक वाद्ययंत्र, बैंड व जिले भर से आए हुए नागरिक शामिल होते है।

राजपरिवार न्यास से संचालित राधा कृष्ण बड़े मंदिर से बच्चे राम, लक्षम्ण, हनुमान के पात्र में तैयार होकर राजमहल पहुँचते है, जहाँ उनका पूजा कर स्वागत किया जाता है। शाही सवारी के आगे आगे राम दरबार का रथ राजमहल से निकलकर स्थानीय सरदार पटेल मैदान पहुँचता है, जहाँ बाल कलाकार रामलीला का थोड़ी देर मंचन करते हुए रावण दहन करते है। उसके बाद राजपरिवार लोगों का अभिवादन स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते हैं।

शाही सवारी का नगर भ्रमण लगभग पाँच घंटे से अधिक समय तक चलता है। लोग अपने घरो से निकलकर राजपरिवार के लोगो का स्वागत सत्कार भी करते है। इस दौरान स्थानीय शीतला मंदिर में राजा जाकर पूजा अर्चना करते है और वहां से ज्योति कलश विसर्जन में शाही दशहरा में सम्मिलित होता है

लोक मान्यता है कि दशहरा के दिन राजा के दर्शन करना शुभ होता है, इसलिए दूर-दूर से ग्रामीण दर्शन के लिए कवर्धा आते हैं। नगर भ्रमण के बाद कवर्धा के मोतीमहल में दरबार हाल में राज दरबार लगता है। जहां राजा से नागरिक भेंट मुलाकात करते हैं। राजा उन्हें पान भेंटकर अभिवादन करते हैं। गोंड़ वनवासी राजा होने के कारण वनांचल से बहुत अधिक संख्या में लोग आते हैं। सुदूर वनांचल में रहने वाले वनवासी बैगा जनजाति के लोगो की उपस्थिति कवर्धा दशहरा को और खुबसूरत बना देती है।

कवर्धा महल की भव्यता और सुंदरता आज भी कायम है. महल देखकर नहीं लगता है कि ये वर्षों पुराना महल है। कवर्धा की जनता में राजपरिवार का दबदबा रहा है। वर्तमान में यहां कवर्धा के राजा योगेश्वर राज सिंह हैं। राजपुरोहित पंडित सनत कुमार शर्मा बताते हैं कि दशहरा के दिन पूरा राजपरिवार नगर के प्रतिष्ठित मंदिरों में दर्शन करता है। देर शाम को राजा महल से रथ में सवार होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं तथा अपने पूर्वजों की परम्परा का निर्वहन किया जाता है।

आलेख

श्रीकांत उपाध्याय,
पत्रकार कवर्धा, छत्तीसगढ़

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