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श्री नारायण लाल परमार

बहुआयामी जीवन संदर्भों के रचनाकार: नारायण लाल परमार

01 जनवरी, परमार जी के जन्मदिन पर केन्द्रित लेख

कवि एक शब्द जरूर है, किन्तु कवि होने का अर्थ हर युग में एक नहीं रहा है। यह केवल कालगत सत्य नहीं है। एक ही समय में भी, विभिन्न परिस्थितियों वाले देशों में कवि होने का अर्थ बदल जाता है। कभी-कभी एक ही कवि के जीवन और रचनाकाल में उसके कवि होने के अर्थ बदल जाते हैं। कवि एक आत्मीय संसार की सृष्टि अवश्य करता है। अपने इस आत्मीय संसार के लिये उसके निजी सुख-दुख के तिनके भी महत्वपूर्ण होते हैं। कदाचित सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं। फिर भी ये व्यापक मानवीय अनुभव की सृष्टि की सामग्री नहीं जुटा सकते। कवि का संसार से केवल प्रतिक्रिया का ही रिश्ता नहीं होता। वह उससे जुड़ता भी है। कवि की यह संलग्नता उसके अनुभव को वैयक्तिकता से मुक्त करती है। वैयक्तिकता से मुक्ति भाषा के माध्यम के कारण भी संभव होती है, जो अपनी प्रकृति से ही सामाजिक है और संवाद की अपेक्षा रखती है।

आज की हमारी दुनिया में यह लगभग असंभव है कि कवि केवल अपने लिए ही बुदबुदाए, ऐसी दुनिया में जिसमें जिंदगी हर दूसरे क्षण किसी न किसी हादसे से गुजरने का अभिशप्त है। विज्ञान के नैतिक पक्ष को लगभग अनदेखा करने वाली व्यवस्था जब उनके टेक्नालॉजीकल पक्ष का आर्थिक दोहन करती है तब यह आसान हो जाता है कि करोड़ों छोटे लोगों की चिंताओं को मामूली और उपेक्षणीय मान लिया जाय। जन-कल्याण की ओट में सक्रिय छल-कपट और स्वार्थ के महानायक से हम खूब परिचित हो चुके हैं। मनुष्य सचेत हुआ है और विवश भी। ऐसी परिस्थितियों में हम कवि के अस्तित्व और उसकी सामाजिक स्थिति की कल्पना कर सकते हैं। कवि होने की जिम्मेदारी नहीं होती, ऐसा मानना निरी आत्मवंचना है। वे जो भी जानते हैं कि उन्हें खुद को बचाना है सिर्फ अपने लिए नहीं बुदबुदाते।

श्री नारायणलाल परमार देश के उन साहित्यकार, गीतकार, कहानीकार, कवि, लेखक के रूप में है जिनका सानिध्य। मुझे एक दशक से मिल रहा था, उनकी रचना प्रक्रिया पर मुझे लिखने का अवसर भी मिला और तो और उनके व्यक्तित्व- कृतित्व पर केन्द्रित समीक्षात्मक किताब, ’’पैदल जिंदगी का कवि-नारायणलाल परमार का दायित्व संपादक के रूप में किया। यद्यपि इस एक दशक में नारायणलाल परमार की समूची जीवन शैली, चिंतन शैली और सृजन शैली को बहुत पास से देखने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। कहते हैं कि सच्चा बड़ा आदमी वह है जिसकी उपस्थिति में आप स्वयं को बड़ा अनुभव करने लगे। परमार जी में यह बड़प्पन था। यहां परमार जी के बारे में कुछ न लिखना, कुछ न बोलना अपनी माटी की सौंधी महक को समूल नष्ट करने के बराबर है। नये लोगों के लिए विशाल हृदय का व्यक्तित्व, आत्मीयता की मिशाल, कटुता पर तेज तर्रार जुबान, अतीत की यादों को महसूस किया जा सकता है, लिखा नहीं जा सकता, इनकी विचारों में कुछ इशारे किये जा सकते हैं।

छत्तीसगढ़ की माटी उर्वरा होने के कारण यहां के रचनाकारों की रचनाओं में ओजस्विता दिखाई देती है। इस दृष्टि से अपना धमतरी अंचल अत्यन्त ही भाग्यशाली है और इसका भूतकाल भी इतना ही महत्वपूर्ण रहा है। यहां अग्रज पीढ़ी के साहित्यकारों, जिनमें कवियों की संख्या विपुल रही है जैसे – हीरालाल काव्योपाध्याय, सुखदेव प्रसाद चतुर्वेदी, जीवनाथधर दीवान, बिसाहुराम जी सोनी, शिवप्रसाद पांडेय ’शिव’, चन्द्रकांत पाठक, शंकर लाल श्रीवास्तव, बंशी नाथ जी साव, गैंदा महाराज, श्यामलाल जी पांडेय ’प्रेमी’ शंकर लाल सेन, भगवती सेन, मुकीम भारती का साहित्यिक अवदान आज तक स्मरणीय तो जरूर है परन्तु उनका सही मूल्यांकन नहीं हुआ। शिवप्रसाद जी पांडेय जैसे विद्वान के सानिध्य का लाभ लेकर ही ललित मोहन जी श्रीवास्तव, भगवती लाल सेन भी साहित्य क्षेत्र में आये और काव्य के क्षेत्र में आगे बढ़े। प्रो. त्रिभुवन पांडेय, सुरजीत नवदीप, श्रीमती इंदिरा परमार, रंजीत भट्टाचार्य, रमेश अधीर का योगदान वंदनीय है। म्यूनिस्पल स्कूल की चारदीवारी से घिरा क्षेत्र व पीटर कालोनी टिकरापारा धमतरी में सन् 1966 से अब तक निवासरत नारायणलाल परमार ने अपनी पहिली कविता आज से 62 वर्ष पूर्व 12 वर्ष की उम्र में रची थी और तब से पीछे मुड़कर नहीं देखा । अब तक उनके छोटी-बड़ी पैंतालीस किताबें आ चुकी है जिनमें ’रोशनी का घोषणा-पत्र, ’खोखले शब्दों के खिलाफ, ’सब कुछ निष्पंद है, ’कस्तुरी यादें, ’विस्मय का वृंदावन, काव्य संग्रह है। और एक शोध परख आलेख संकलन हैं – ’छत्तीसगढ़ी लोकगीतों की भूमिका।

स्व. महावीर अग्रवाल अलंकरण तथा गजानंद माधव मुक्तिबोध पुरस्कार से भी उनको सम्मानित किया जा चुका है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि छत्तीसगढ़ में इनकी कृतियों का मूल्यांकन सही न होना, कुछ महत्वपूर्ण कारण रखता है। जैसे इस धरती का ही यह वैशिष्ट्य है कि यहां संतोष की फसल हर हृदय में लहलहाती है। अगर वह विशुद्ध छत्तीसगढिय़ा है या उसमें रच बस गया है तो यह फसल हमेशा ही हरापन लिये हुए रहती है। नारायणलाल परमार ही नहीं, उनके अनेक समकालीनों का संबंध शताब्दी के प्रारंभिक दौर में जन्में साहित्यकारों से जुड़ा हुआ है। इस अंचल ने कई क्रांतिकारी रत्न भी दिये। यह वही धरती है जिसने स्व. बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव, रतनू यादव और मींधू कुम्हार जैसे विलक्षण प्रतिभाशाली वीर पुत्रों को जन्म दिया। इस धरती ने हीरालाल काव्योपाध्याय की ’छत्तीसगढ़ी व्याकरण’ से अपना सीधा सरोकार कायम कर अपनी लेखनी का प्रताप उसके माध्यम से दिखाया। किरण(कविता संग्रह), वातायन, संप्रेषण जैसी समकालीन पत्रिका हिन्दी साहित्य समिति द्वारा प्रतिनिधित्व बराबर हुआ है। नारायणलाल परमार जी का धमतरी आगमन व मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम की हिन्दी किताब में’ आलसीराम जैसी लोककथा होने का सुयोग प्राप्त कर इस अंचल का गौरव बढ़ाया।

धर्मधानी धमतरी नगर में पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों, कवियों और निबंधकारों की अटूट परंपरा रही है। इतिहासकार भी यहां हुए और पत्रकार भी। नारायण लाल परमार की अनूठी काव्य कति – ’सोन के माली जो छत्तीसगढ़ी लोकभाषा में अंग्रेजी कविता की भावानुवाद है। इसका काव्य वैशिष्ट्î, कविता के वैभव का परिचय देता है। सही अर्थों में यह काव्य लालित्य बोध का काव्य है। फलस्वरूप इसका शिल्प भी अनूठा है। यह भी उतना ही सच है कि जब तक ईश्वरीय कृपा का प्रसाद नहीं मिलता, इस तरह के काव्य की रचना असंभव ही है।

धमतरी नगर का यह सौभाग्य कहा जायेगा कि नारायण लाल परमार जी का परिवार गुजरात में कच्छ रियासत के जिला मुख्यालय अंजार से सन् 1935 में नानाजी के आमंत्रण पर गरियाबंद चले आये। पाण्डुका में चार वर्ष तक रहे और तीन उपन्यास – ’प्यार की लाज, ’छलना, ’पूजामयी लिखे। एम.ए. करने के बाद महत्वाकांक्षा बढ़ गई। कालेज में आवेदन किया और चुनाव हो गया। तब से अर्थात 1966 से परमार जी धमतरी में स्थायी निवास बना लिया है। जन्मजात प्रतिभा का यही प्रतिफल कहा जायेगा कि इस धरती पर रहकर ही उन्होंने इतना महत्वपूर्ण साहित्य सृजन किया है। उनके पारिवारिक संस्कारों का भी यह प्रतीक कहा जायेगा कि धमतरी ने उन्हें यह साहित्य सिरजने की प्रेरणा दी। कहीं न कहीं परमार जी का महानदी की इस पावन धारा से गहरा संबंध रहा हो।

नारायण लाल परमार जी गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं के समर्थ हस्ताक्षर थे। मूलतः कवि होने के कारण उनकी रचनाओं में सौंदर्य बोध की काव्यात्मकता प्रवाहित हो उठती थी। परमार जी की कविताएं साधारण जन की पीडा, संघर्ष और भावनाओं की तीखी अभिव्यक्ति थी। वे जनसाधारण की पीड़ाओं, अभावों के बीच से उनकी संघर्ष क्षमता और शक्ति को भी पहचानते थे। वे सकारात्मक परिवर्तनों की तलाश के मार्ग पर निरन्तर चलने का आह्वान करते थे। यदि कविता जनता की पीड़ा, भावनाओं और उनके जीवन का चित्रण मार्मिकता के साथ करती है तो कोई कारण नहीं कि साधारण जन उन कविताओं को अपने गले का हार न बनायें। परन्तु क्या हमारे हिन्दी के अधिकांश मध्यवर्गीय कवियों ने संघर्षशील जनता की भावनाओं को समझने का प्रयास किया है ? हम अपने अंतर्विरोधों के चक्रव्यूहों से निकलने का प्रयास नहीं करते हैं। जो लोग जनता को अनपढ़, भीड़, अविवेकी तथा उसे किसी परिवर्तन के योग्य नहीं समझते हैं वे साधारण जन की सांस्कृतिक चेतना का अपमान करते हैं। हमारे शब्द और कर्म के बीच गहरे अंतर्विरोध हैं। यह सही है आज बहत कुहासा है, लोग उपलब्धियों के पीछे दौड़ रहे हैं – यह प्रवृत्ति हर पतनशील समाज की होती है।

ऐसे समय में कविता ’मुंह क्या देख रहे हो सबसे ज्यादा प्रभावशाली होती है। जैसे –
गांव के नुक्कड़ वाले घर के
सूने ओसारे में
सूख रही है मानो
तेंदुए की असहज परछाई
महल की जगह
देह का खण्डहर
हाथों में कटोरा
कटोरे में रेत
वह पूछता है
हे समुद्र।
(रोशनी का घोषणा-पत्र पृ. 29)
खंड-खंड हो चुके हैं
संवदनाओं के चेहरे
जिन्दगी, तब्दील हो गई है
एक लंबी हड़ताल में
खुश है संत्राश
संघर्ष के साथ अपनी तस्वीर देखकर
ढूंठ की तरह चुप हैं लोग
इतिहास को आगे-आगे
चलने का संकेत देकर
देख रहे हैं
आधुनिकता और समकालीनता को
सौतों की तरह
झगड़ते हुए।
(रोशनी का घोषणा-पत्र पृ. 34)

नारायणलाल परमार जी की कविताओं और टिप्पणियों से उनकी जन पक्षधरता स्पष्ट है। जिस तरह कोई गायक अच्छे सुर और बोल निकालने के लिए बार-बार आलाप लेता है उसी तरह परमार जी अपनी स्थापनाओं- बातों को मनवाने के लिए तर्कों और तथ्यों को बार-बार दुहराते हैं। उन्होंने कभी विश्राम नहीं लिया, निरंतर रचनाशील रहे। उनकी स्पष्टता और जनवादी मानवीय मूल्यों की पक्षधरता ने उन्हें अनेक मित्रों और स्वजनों से अलग रखा। उनके व्यक्तित्व का अक्खड़पन, बिके लोग बेबाक व्यक्तित्व का अक्खड़पन कहते थे वस्तुतः वह उनका वैचारिक अक्खड़पन था। वे कहा करते हैं – टूटना। मुझे पसंद है लेकिन अपने विचार मूल्यों से डिगना और कहीं घुटने टेकना मुझे पसंद नहीं। जीवन्त रचनाकार के सामने ! विरोध कोई समस्या नहीं होती है –
सांसो से यदि धुंआ उठ रहा
मत समझो यह चमत्कार है
अक्सर सूरज को धोखे में
रखता आया अंधकार है।
(सब कुछ निस्पंद है – पृ. 88)

श्री परमार की यही वैचारिक परिपक्वता उन्हें एक निष्ठावान रचनाकार के रूप में चिन्हित करती थी और वे अपनी भूमिका में खरे उतरते रहे, उनका व्यक्तित्व इतना सहज और खुला है कि उस पर अलग से विचार करने की आवश्यकता है। परमार जी अपनी रचनात्मक सक्रियता में इतने ईमानदार रहे कि उन्हें अपनी जमीन से कोई नहीं डिगा सका । उनकी प्रतिबद्धता इन पंक्तियों से स्पष्ट होती है जब यह बात रखते हैं –
जाने क्या होगा अब
मेरी उस रक्त-संहिता का
जिसके अंतिम पृष्ठ पर
युधिष्ठिर के हस्ताक्षर हैं
(खोखले शब्दों के खिलाफ – पृ. 17)

श्री परमार जी भावों के साथ-साथ भाषा के भी धनी थे। उनकी भाषा में प्रादेशिक शब्दों की बहुलता है – जिससे वे निरन्तर जुड़े रहे । भाषा और भावों की समरसता ’कस्तुरी यादें’ में सर्वत्र व्याप्त है। कृत्रिम शब्द योजना नहीं है और इसकी प्रवाहमानता उफनती नदी की भांति न होकर – शांत, स्तब्ध और गंभीर है। इसका सौंदर्य ग्राम्यांचल से जुड़ा है। इसी से वह जीवन और लोक के अनुभवों की मार्मिक अभिव्यक्ति कर सकी। परमार जी के शब्दार्थ में पूर्ण सामंजस्य है। परिपाक पूर्णता है। इसे मैं कुंतक के शब्दों में वैदग्ध्य कहना चाहूंगा, कवि कर्म की कुशलता और विलक्षणता। इसी में काव्यवस्तु की स्वाभाविक रमणीयता है। इसी से कल्पना और भावना का न्यूनातिरेक नहीं है । परमार जी की कविता शब्द व अर्थ की कीड़ा मात्र नहीं है वरन् दोनों में वस्तु विन्यास की रमणीयता और हृदयग्राही मनोरमता स्वतः प्रतीयमान है यही भाषा का सहज सौंदर्य है – लोक दर्शन की महत्वपूर्ण अभिज्ञता । कवि का लोकदर्शन समयसिद्ध होकर भी लोकतांत्रिक है । पुनः कवि के शब्दों में –
धूप पराई सी लगती है,
सहसा अपने घर-आंगन में
सबको एक समान नशा है,
एक गीत सबकी धड़कन में
पकड़ नहीं आती है पागल,
ढीठ हुई जाती पुरवइया,
महक झूमती गाकर गरबा,
मिट्टी के मोहक कण-कण में।
(कस्तूरी यादें – पृ. 43)

मानवीय आस्था के इस कवि का आत्मविश्वास एक शंखनाद था, जिसमें स्वाभाविक तथा सामान्य जीवन की गूंज मन और हृदय को आप्लावित करती थी। कवि की रचना प्रक्रिया का वैशिष्ट्î यथार्थ के ढांचे में युग के चतुर्दिक संत्रास का प्रभावी दिग्दर्शन रहा । व्यक्ति हो अथवा प्रकृति – परमार जी की कल्पना जीवन से अभिप्रेरित है। और कवि की यही रचनात्मक चेतना है। परमार जी को ’विस्मय का वृन्दावन’ सर्वाधिक प्रिय है। वृन्दावन उसे चिन्तित कर देता है। यही बात उनकी साहित्य सृजन की सार्थकता लिए हुए हैं। उसकी अभीप्सा है –
कोई ऐश्वर्य होता है तो,
इसका सारा श्रेय,
विस्मय को ही जाता है
क्योंकि कवि तो सदैव
विस्मय के वृन्दावन में ही
रहता है न ?

कवि नारायण लाल परमार अपनी कविता में अपने समय को पूरा जीकर और उसे बिम्बात्मक स्वरूप प्रदान कर , उस विकल्पधर्मी काव्य-चेतना और काव्य-संस्कार को रचा, जो आधुनिकतावादी संकुचित मानसिकता की काव्य परंपरा का विकल्प कहा जा सकता है। परमार जी का साहित्यिक जीवन एकपक्षीय और इकहरा जीवन नहीं था। अपनी द्वन्द्वात्मकता में स्वरूप ग्रहण करता था। परमार जी उन जीवनांचलों में प्रवेश करते थे, जहां समय की जटिलता और तनावों से उत्पन्न नई-नई विकृतियों के बावजूद आज भी जीवन का सौंदर्य विद्यमान है। यहां सौंदर्य जीवन की साधारणता का है, उसकी सहजता और सच्चाई का है, जिसका आधार है उसकी सक्रियता। खो देने का अर्थ है एक सर्जक व्यक्तित्व के सान्निध्य को खो देना जो युगों-युगों के बाद पीढिय़ों को उपलब्ध होता।

आलेख

डुमनलाल ध्रुव मुजगहन, धमतरी (छ.ग.) पिन – 493773 मो. 9424210208

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