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स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ के जनजातीय समाज का योगदान

भारत में स्वतंत्रता आंदोलन का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ अंचल में स्वतंत्रता के लिए  गतिविधियाँ 1857 के पूर्व में ही प्रारंभ हो चुकी थी। अंग्रेजी शासन के विरुद्ध क्रांति की ज्वालाएं शनै-शनै जागृत होती जा रही थी। स्वतंत्रता के अनेक पक्षधर पूर्ण साहस, वीरता, ज्वलन्त उत्साह से ओत प्रोत होकर भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने हेतु अनेक आन्दोलन कर रहे थे, जिसमें अनगिनत लोगों ने अपना बलिदान दिया। इसमें छत्तीसगढ़ ने भी अपनी महती भूमिका निभाई थी।

स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ के समाज के हर वर्ग अपनी क्षमता के अनुसार बढ़ चढ़ कर भाग लिया क्योंकि यहाँ के वासी किसी की अधीनता स्वीकार करना जानते ही नहीं। स्वतंत्रता छत्तीसगढ़ के निवासियों के जीवन  मुल्यों में निहित है। जो हमे आज भी दिखाई देता है। वैसे तो माना जाता है कि भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के सैनिक विद्रोह से प्रारंभ हुआ, परन्तु छत्तीसगढ़ अंचल में इससे भी पूर्व 1774 से 1779 ई में हल्बा सत्याग्रह से हम स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ मान सकते हैं।

अजमेर सिंह

कम्पनी सरकार तथा जैपुर के राजा के मध्य हुए समझौते के अंतर्गत तय हुआ कि यदि जैपुर राजा बस्तर को कम्पनी के अधीन ला दे तो बस्तर को जैपुर को दे दिया जाएगा। इस संधि में बस्तर नरेश अजमेर सिंह के अनुज दरिया देव जैपुर राजा से समझौता करने तैयार हो गए। तीनों की सेना ने 1774 ईं में अजमेर सिंह पर धावा बोल दिया, जिसमें अजमेर सिंह का साथ हल्बा जनजाति ने दिया। छ ग के इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार था जिसमें संघर्ष के दौरान हल्बा जाति को ही मौत के घाट उतार दिया गया, इस संघर्ष का नेतृत्व अजमेर सिंह ने पांच वर्षों तक किया, किन्तु युद्ध में वह खेत रहे। इसके पश्चात समस्त हल्बा जनजाति के सैनिको को ही चुन चुनकर मार दिया गया, इसमें केवल एक अज्ञात हल्बा सैनिक ही अपनी जान बचा पाया।

कम्पनी सरकार के कैप्टन जे टी ब्लण्ट 1795 में बस्तर में अपनी सेना के साथ प्रवेश करना चाहते थे, किंतु दरिया देव के गोंड़ सैनिकों ने उसे भोपालपट्ट्नम में ही रोक दिया। तमाम प्रयासों के बाद भी ब्लण्ट बस्तर में प्रवेश नहीं कर सका। इस संघर्ष में अनेक गोंड़ सैनिकों ने प्राणों का बलिदान दिया। 

अजीत सिह

सरगुजा में अजीत सिंह के नेतृत्व में कम्पनी सरकार के विरुद्ध आंदोलन 1792 में प्रारंभ हो चुका था। कम्पनी सरकार पूर्व में पलामू में अजीत सिंह से पराजित हो चुकी थी तब कर्नल जोंस ने नेतृत्व में मराठा सरकार एवं कम्पनी सरकार ने संयुक्त रुप से अजीत सिंह का दमन करने की योजना बनाई एवं असफ़ल रही। लेकिन अंत में अजीत सिंह वीरगति को प्राप्त हुए और आंदोलन का दमन हो गया।

गैंदसिंह

हल्बा जनजाति के गैंदसिंह परलकोट के जमींदार थे। यह इलाका महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले से लगा हुआ है। वर्तमान में छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में है। गेंदसिंह की यह जमींदारी अबूझमाड़ इलाके में आती थी और परलकोट इसका मुख्यालय था। इस जमींदारी में 165 गांव शामिल थे। इनमें से 98 निर्जन गांव थे। वर्ष 1818 में नागपुर के भोंसले राजा और अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार मराठों ने छत्तीसगढ़ की सम्पूर्ण शासन व्यवस्था कम्पनी के हवाले कर दी।

बस्तर अंचल भी उसकी जद में आ गया, जिसमें परलकोट की जमींदारी भी शामिल थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी के अफसरों और मराठा शासन के कर्मचारियों द्वारा इलाके में कई प्रकार से जनता का शोषण किया जाता था। इस ज़ुल्म और ज़्यादती के ख़िलाफ़ गेंदसिंह ने अबूझमाड़ियों को संगठित कर विद्रोह का शंखनाद किया।

तीर -धनुष से सुसज्जित हजारों की संख्या में अबूझमाड़िया आदिवासियों ने अंग्रेज अफसरों और मराठा कर्मचारियों पर घात लगाकर हमला करना शुरू कर दिया। ये लोग 500 से 1000 की संख्या में अलग -अलग समूह में निकलते थे । महिलाएं भी इस लड़ाई में पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर शामिल होती थीं। गेंदसिंह अपनी इस जनता के साथ घोटुल में बैठकर इस छापामार स्वतंत्रता संग्राम की संघर्ष की रणनीति बनाते थे। लगभग एक साल तक यह संघर्ष चला ।

अंत में अंग्रेज प्रशासक एग्न्यू ने चांदा (महाराष्ट्र ) से अपनी फ़ौज बुलवाई। फ़ौज ने 10 जनवरी 1825 को परलकोट को चारों तरफ से घेर लिया। गेंदसिंह गिरफ़्तार कर लिए गए और 10 दिनों के भीतर 20 जनवरी 1825 को उन्हें उनके ही महल के सामने अंग्रेजी सेना ने फाँसी पर लटका दिया। गेंदसिंह शहीद हो गए।

वीर नारायण सिंह

इतिहासकारों के अनुसार वीर नारायण सिंह को देशभक्ति का जज़्बा अपने पिता रामराय से विरासत में मिला था। वर्ष 1740-41 में नागपुर के भोंसले शासन की सेना ने छत्तीसगढ़ पर आधिपत्य जमाने के बाद सोनाखान ज़मींदारी के 300 गांवों में से 288 गाँवों को अपने कब्जे में ले लिया और सोनाखान जमींदार को सिर्फ़ 12 गांव दिए।

रामराय इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहे। उनके पिता फत्ते नारायण सिंह ने भी इस अन्याय के विरुद्ध भोंसले शासन से विद्रोह किया था। वीर नारायण सिंह के पिता रामराय का वर्ष 1830 में निधन हो गया। उनके उत्तराधिकारी के रूप में 35 वर्षीय नारायण सिंह ने सोनाखान ज़मींदारी का कार्यभार संभाला।

छत्तीसगढ़ में 1856 में भयानक सूखा पड़ा था। तब 12 गाँवों के जमींदार वीर नारायण सिंह ने अकाल पीड़ित किसानों और मज़दूरों को भूख से बचाने एक सम्पन्न व्यापारी के गोदाम को खुलवाकर उसका अनाज जनता में बंटवा दिया और रायपुर स्थित अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर इलियट को बाकायदा इसकी सूचना भी दे दी। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने नारायण सिंह के प्रजा हितैषी इस कार्य को विद्रोह मानकर उन्हें 24 दिसम्बर 1856 को गिरफ़्तार कर लिया।

तब नारायणसिंह 28 अगस्त 1857 को सुरंग बनाकर रायपुर जेल से छुपकर निकल गए और सोनाखान आकर लगभग 500 किसानों और मज़दूरों को संगठित कर अपनी सेना तैयार कर ली तथा अंग्रेजों के ख़िलाफ़ संघर्ष का शंखनाद कर दिया। लेकिन ब्रिटिश फ़ौज को कड़ी टक्कर देने के बावज़ूद वह गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हे 62 साल की उम्र में 10 दिसम्बर 1857 को अंग्रेजी सेना ने रायपुर के चौराहे (वर्तमान जय स्तंभ) पर फाँसी पर लटका दिया।

इंदरु

इंदरु केंवट का जन्म बस्तर के अबूझमाड़ अंचल मे शहीद गेंदसिंह का स्वतंत्रता उदघोष चिंगारी की तरह फैल चुका था। आजादी की आंधी ने कांकेर की जनता को भी झकझोर के रख दिया। अंग्रेजों की दासता से छुटकारा पाने के लिए कांकेर रियासत मे भी लोगों ने करवट लेना शुरू किया, जिसके अगुवा थे महान स्वतंत्रता सेनानी इंदरू केवट। गेंदसिंह के बलिदान से इंदरू केवट प्रभावित थे अत: उन्ही के पदचिन्हों पर चलकर उन्होंने नेतृत्व की कमान अपने हाथों मे ले ली।

इंदरू केवट कांकेर रियासत के ग्राम सुरंगदाह के निवासी थे, जो वर्तमान मे भानुप्रतापपुर तहसील के विकासखंड दुर्गकोंदल मे स्थित है इनके आंदोलन का प्रारंभिक स्वरूप हिंसात्मक था या एक क्रांतिकारी विचारो से प्रेरित था। परंतु बाद मे महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा के विचारों से प्रभावित होकर अहिंसात्मक तरीके से अंग्रेजों को भगाने का विचार किया। इंदरू केवट ने अपने दो अन्य साथी मंगलूराम और पातर हल्बा (सुकदेव) के साथ कांकेर रियासत मे सविनय अवज्ञा आंदोलन एवम जंगलों की रक्षा के लिए जंगल सत्याग्रह की शुरुआत की, जिसके लिए उन्होंने वन कर्मियों के विरुद्ध सत्याग्रह भी किया।

महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित इंदरू केवट ने खादी वस्त्र पहना और तिरंगा झंडा लेकर गांव- गांव घूमते हुए आज़ादी का शंखनाद किया। सन् 1923 मे इनकी प्रथम मुलाकात महात्मा गांधी से हुई । इस मुलाकात के बाद कांकेर के आदिवासियों ने रियासत मे अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन प्रारम्भ किया। जल्दी ही कांकेर रियासत विद्रोह का केंद्र बन गया। इंदरू केवट को पकड़ने के लिए अंग्रेजी प्रशासन ने पूरी ताकत लगा दी। एक घटना के अनुसार शरीर मे डोरी तेल लगाने के कारण अंग्रेज सिपाहियों के हांथो से फिसलकर बचकर निकल गए, फिर भी अंग्रेजों ने उनका पीछा नही छोड़ा। ग्राम कुरे कूरसे बाजार मे अंग्रेज सिपाहियों ने इंदरू केवट और उनके साथियों को घेर लिया, पूरे बाज़ार मे भगदड़ मच गयी। अंग्रेजों से बचने के लिए उन्होंने निकट की कोटरी नदी मे कुदकर अपनी जान बचाई।

इंदरू केवट की जब मृत्यु हुई तब उनकी पेटी से तिरंगा झंडा, बिल्ला और कुछ कागजात मिले। वे सच्चे गाँधीवादी समर्थक और अनुयायी थे। आजीवन शोषण व अत्याचार के खिलाफ लड़ते हुए इतिहास के पन्नो पर इंदरू केवट अपना नाम अंकित कर गए।

बुढ़ान शाह

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बुढ़ान शाह का जन्म महासमुंद जिले के पिथौरा विकासखंड के अरंड ग्राम में 12 अप्रेल 1885 को  हुआ था। इनके पिता परऊ सिंह एवं माता वीरन देवी थी। इनके वंशज अपने को धमधा जमीदारी के गोंड़ जमीदार के वंशज बताते हैं। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया था इसलिए इन्हें धमधा से निर्वासित होना पड़ा। परिवार द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार स्व: परऊ सिंह ने धमधा से आकर अमेठी ग्राम में आश्रय मिला। उसके पश्चात कौड़िया जमींदारी के साथ संलग्न हो गये। उनकी सेवा एवं प्रशासनिक दक्षता से प्रभावित होकर कौड़िया रानी विष्णु प्रिया देवी ने उन्हें नौ गाँव की मालगुजारी प्रदान की, जिसमें अरंड भी शामिल था।

बुढ़ान शाह की प्रारंभिक शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा पिथौरा में हुई, इनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ़ विद्रोह की भावना थीइसलिए सन 1928 में कांग्रेस में सक्रिय भागीदारी निभाने लगे। सन 1930 में गांधी जी दांडी यात्रा तथा नमक सत्याग्रह के दौरान रायपुर में नमक कानून तोड़कर गिरफ़्तार हुए। उन्हें एक मार्च 1930 को चार माह का सश्रम कारावास का दंड दिया गया। जेल से रिहा हो कर वे अपने क्षेत्र में आंदोलनकारियों को संगठित करने लगे। 1930 के ऐतिहासिक सत्याग्रह की समाप्ति के पश्चात खरियार जमींदारी के सलिहागढ़ में सत्याग्रह के लिए जुट गये। लेकिन उन्हें घोषित तिथि 30 सितम्बर के पूर्व 25 सितम्बर 1930 को गिरफ़्तार कर लिया गया। बुढ़ान शाह को अक्टूबर में 3 माह 15 दिनों के कारावास की सजा दी गई। 7 मई 1941 को रायपुर में गिरफ़्तार हुए और एक वर्ष तीन माह की सजा हुई, उन्हें रायपुर सेंट्रल जेल से नागपुर फ़िर दो माह बाद सिवनी भेज दिया गया।

स्वतंत्रता के पश्चात चुनावी राजनीति से अलग हटकर वे सामाजिक, आर्थिक शोषण के विरुद्ध जनजागरण के कार्यों में जुट गये। वे 52 गढ़ गोंड़ समाज के मुखिया के रुप में 1969 तक सक्रिय  रहे। संत विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से प्रभावित होकर बुढ़ान शाह ने अपने स्वामित्व की भूमि पर भूमिहीनों को भूमि स्वामी बनाकर गोपालपुर ग्राम बसाया।

इस तरह जीवनपर्यंत सामाजिक सेवा करते हुए 17 अक्टूबर 1971 को उनका देहावसान हो गया। मरणोपरांत अतुलनीय योगदान के लिए 15  अगस्त 1972 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा ताम्रपत्र तथा 15 अगस्त 1972 को तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चंद सेठी द्वारा प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया गया।  

कंगला मांझी

कंगला मांझी के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म 1880 के आसपास मौजूदा कांकेर जिले के तेलावत गांव में एक गोंड़ परिवार में हुआ था एवं इनका नाम हीरा सिंह देव था। हीरा सिंह ने वन कानूनों को चुनौती दी और ब्रिटिश सरकार से भिड़ गये। इसके बाद उन्हें जेल में डाल दिया गया, और कुछ समय बाद वे स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल हो गए।

आदिवासी समाज के साथ हो रहे शोषण को देखकर ही उन्होंने अपना नाम ‘कंगला’ रख लिया, जिसका मतलब होता है दरिद्र. कंगला मांझी ने 1915 में महात्मा गांधी से प्रेरित होकर गोंडवाना प्रांत की स्थापना के लिए एक आंदोलन की अगुआई की। उन्होंने 1910 से 1912 तक तप किया। तप से संचित ऊर्जा को लेकर वे 1912 में सार्वजनिक जीवन में आ गये। दुर्ग जिले के जंगल में कंगला मांझी ने अपना मुख्यालय बनाया।

अंग्रेजों से गोंडवाना राज्य की मांग की गई। 1915 में रांची में बैठक हुई, फ़िर 1915 से 1918 तक लगातार बैठकें होती रही। 1919 में अंग्रेजों ने कांकेर, बस्तर एवं धमतरी को मिलाकर एक गोंडवाना राज्य देने का प्रस्ताव दिया। जिससे कंगला मांझी असहमत थे। वे लगातार राष्ट्रीय नेताओं के सम्पर्क में रहे और आंदोलनों का नेतृत्व करते रहे। आदिवासियों को संगठित कर स्वतंत्रता की अग्नि वन प्रांतर में धधकाते रहे।

महात्मा गांधी से प्रभावित कंगला मांझी ने अपनी शांति सेना के दम पर आंदोलन चलाया। आंदोलन के माध्यम से उन्होंने वनवासियों का मार्गदर्शन किया। 1947 में देश आजाद हुआ तो उन्होंने नये सिरे से संगठन खड़ा किया। अब शासक देशी थे, लेकिन शासन में आदिवासियों की हिस्सेदारी नही थी। नये संगठन का नाम रखा गया श्री मांझी अन्तर्राष्ट्रीय समाजवाद आदिवासी किसान सैनिक संस्था। इनकी एक संस्था का नाम अखिल भारतीय माता दंतेवाड़ी समाज समिति था। इस संगठन से लगातार आदिवासी जुड़ते गये। 1951 में बिल्ला एवं सैनिक वर्दी प्रदान करने की परम्परा शुरु हुई। इस तरह कंगला मांझी के सैनिक तैयार होते रहे। कंगला मांझी ने समाज को दिशा देने के लिए कुछ पर्चे भी निकाले। जिसमें समाज के लिए कर्तव्यों को बताया गया था। जैसे – अपने धर्म का आदर करे और उसका पालन करें, सुख शांति फ़ैलाने हेतु तत्पर रहें, असहाय बूढ़े-बूढियों, बच्चों की सहायता करें, पुज्य जनों का आदेश मानें, अपने राज्य एवं देश के लिए तन-मन-धन न्यौछावर करें।, अपना चरित्र पवित्र रखें। इस तरह कंगला माझी सबके साथ अपना विकास देखते थे।

कंगला मांझी सरकार का अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय दिल्ली में स्थापित हुआ। आदिवासी केम्प रणजीत सिंह मार्ग नई दिल्ली उसका पता है। यहां से पूरे देश के आदिवासियों के लिए परिपत्र जारी होता था। संगठन के पदों का निर्धारण हुआ, चुनाव हुए। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, पंच सभासद नियुक्त हुए तथा सैनिकों की भर्ती हुई। सैनिकों को वर्दी दी गई। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से वे अपने सैनिकों के साथ मिले। ये सभी सैनिक अवैतनिक होते थे।

इस तरह उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात आदिवासी समाज के संगठन के लिए अनेक कार्य किये। लगभग सौ वर्षों का सक्रिय एवं समर्पित , राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत जीवन जीकर वे 5 दिसम्बर 1984 को इस लोक से विदा हो गये। उनके द्वारा छोड़ी गई विरासत को उनकी पत्नी फ़ुलवा देवी संभाल रही है तथा वर्ष में एक बार कंगला मांझी की जयंती पर रायपुर से 120 किलोमीटर की दूरी पर बाघमार ग्राम में तीन दिवसीय सम्मेलन का आयोजन 5 दिसम्बर से 7 दिसम्बर तक होता है।

धमधा राज

रतनपुर राज्य के 36 गढ़ों में से शिवनाथ नदी के उत्तर के 18 गढ़ों में से एक गढ़ “धमधा” भी था तब भोसलों का शासन था और स्थानीय जानकारों के अनुसार विद्रोही जमींदार/राजा भवानी सिंह को फांसी की सजा दी गई थी।

इस घटना के बाद सन 1817 में धमधा में दूसरा विद्रोह हुआ था तब अंग्रेज अधीक्षक कर्नल एगन्यू रतनपुर राज्य के अधीक्षक नियुक्त हो चुके थे। बताया जाता है कि गोंड़ जमींदार भवानी सिंह के वंशजों के साथ सावंत भारती नामक विद्रोही नेता ने हजारों लोगों को जुटाकर अग्रेजों की व्यवस्था को कुछ दिनों के लिए स्वयं के हाथों में ले लिया था। प्रचलित ऐतिहासिक विवरण के अनुसार सावंत भारती को अंग्रेजों से आजीवन कारावास की सजा दी थी।

धमधा में तीसरा विद्रोह सन 1830 में होरी गोंड़ नामक पुजारी के नेतृत्व हुआ था जिसे अंग्रेजी प्रशासन ने कुचल दिया था। इस विद्रोह के बाद गोंड़ क्षत्रपों का निष्कासन हुआ था या वे वहां से पलायन कर गए थे। इनमें से एक परउ सिंह थे जिन्होंने महासमुंद तहसील के कौड़िया ज़मींदारी में शरण ली थी। कौड़िया की गोंड़ जमींदार रानी विष्णुप्रिया देवी ने परउ सिंह को जीवन यापन के लिए कुछ गाँव दिए थे तथा परउ सिंह पुत्र द्वय ठाकुर बुढ़ान शाह और जहान सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे। तो हम मान सकते हैं कि अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन का प्रारंभ 1774 ईं मे हो चुका था।

दयावती कंवर

तत्कालीन महासमुंद तहसील के तमोरा नामक ग्राम में जंगल सत्याग्रह की अग्नि प्रज्जवलित हो रही थी। मामला जंगल में मवेशी चरने को लेकर था। गांव के कुछ पशु सरकारी जंगल में प्रवेश कर गये थे, जिन्हें चौकीदार बिसाहू राम ने पकड़ लिया था। उसने गांव वालों से कहा कि वे लिखकर दें कि उनके मवेशी जंगल में चरते हैं। ग्रामीणों ने ऐसा लिखकर देने से इंकार कर दिया। जंगल विभाग ने किसानों एवं मालगुजारों पर मुकदमा दर्ज कर दिया। जांच में मुकदमा झूठा पाया गया।

इसकी जानकारी रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी को मिली। इसके पश्चात जंगल सत्याग्रह की रुपरेखा बनी। सत्याग्रह की तिथि 8 सितम्बर 1930 तय हुई। सत्याग्रह स्थल के रुप में ग्राम तमोरा का चयन किया गया। 8 सितम्बर को ग्राम तमोरा में बड़ी सभा हुई। फ़िर 10 एवं 11 सितम्बर को भी सभा हुई। लगभग 500 लोगों का बड़ा दल टोढ़ होते हुए आ रहा था कि मिर्जा बेग और द्विवेदी ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया। कुछ लोग वापस चले गये जबकि कुछ लोग सभा स्थल की ओर बढ गये। कुल 17 सत्याग्रहियों को 11 सितम्बर को गिरफ़्तार कर जंगल में छोड़ दिया गया।

12 सितम्बर 1930 को पुन: आमसभा हुई, रोज रोज की सभा से पुलिस का धैर्य टूट गया। धारा 144 लगाकर सभास्थल पर बेंत प्रहार के आदेश दे दिये गये। लगभग 5000 लोगों की भीड़ पर लाठी चार्ज किया गया, जिससे भगदड़ मच गई। सशस्त्र पुलिस संगीन की नोंक में सत्याग्रहियों को हटाने लगी, तभी आदिवासी बाला ‘‘दयावती कंवर’’ के नेतृत्व में 200 महिला सत्याग्रही सशस्त्र पुलिस के सामने आ धमकी। इनके और पुलिस के बीच नोंक-झोंक होने लगा और दयावती की टीम सीना ताने गोली चलाने ललकारने लगी। इस अभूतपूर्व शौर्य को देख, सशस्त्र पुलिस के पांव उखड़ने लगी और अततः पुलिस सत्याग्रह स्थल से खाली हाथ वापस लौट गई।

संदर्भ सूची :-

1. ठाकुर प्यारे लाल सिंह के जांच प्रतिवेदन के अनुसार
2. छत्तीसगढ़ का इतिहास डा0 भगवान सिंह वर्मा, पृष्ठ 1027.
3. छत्तीसगढ़ का जनजातीय इतिहास डा0 हीरालाल शुक्ल पृष्ठ 190.
4. छत्तीसगढ़ वृहद संदर्भ संजय त्रिपाठी पृष्ठ 331
5. छत्तीसगढ़ में जंगल सत्याग्रह आशीष सिंह
6. छत्तीसगढ़ के नारी रत्न केयूर भूषण।
7. डॉ घनाराम साहू, दक्षिण कोसल टुडे
8- स्व: हरि ठाकुर की पुस्तक “छत्तीसगढ़ गौरव गाथा” वर्ष 2003
9- अखिल भारतीय हल्बा आदिवासी समाज भिलाई नगर की पुस्तिका वर्ष 2014
10- संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित बिहनिया अंक 19

आलेख

ललित शर्मा इण्डोलॉजिस्ट रायपुर, छत्तीसगढ़

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