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मंदिरों की नगरी : प्रतापपुर

छत्तीसगढ़ के उत्तरांचल में जनजातीय बहुल संभाग सरगुजा है, यहाँ की प्राकृतिक सौम्यता, हरियाली, ऐतिहासिक व पुरातात्विक स्थलें, लोकजीवन की झांकी, सांस्कृतिक परंपराएं, रीति-रिवाज, पर्वत, पठार, नदियाँ कलात्मक आकर्षण बरबस ही मन को मोह लेते हैं।

सरगुजा अंचल के नवीन उत्खनन ने तो भारत के इतिहास में एक नया स्वर्णिम अध्याय जोड़ दिया है। यहां के पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक स्थल रामगढ़, डीपाडीह, महेशपुर, हरचौका, मुरेरगढ़, कोटाडोल, सतमहला, देवगढ़, बेलसर, देऊर मंदिर महारानीपुर, सारासोर, शिवपुर एवं बिलद्वार गुफा की ऐतिहासिकता देश ही नहीं वरन विदेशों तक फैली हुई है।

स्थिति एवं विस्तार-संभाग मुख्यालय अम्बिकापुर से 40 किमी. की दूरी पर उत्तरी छोर में प्रतापपुर विकासखण्ड 23-29 अंश उत्तरी अक्षांश 81-12 अंश पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। प्रतापपुर से ही उत्तरी 23.5 अंश अक्षांश वाली कर्क रेखा गुजरती है। प्रतापपुर से रांची एवं दिल्ली को मार्ग जाता हैं। 1 जनवरी 2012 से प्रतापपुर नवगठित जिला सूरजपुर के नक्शे में अपना स्थान बनाया हुआ है। यह जिला मुख्यालय सूरजपुर से 60 किमी की दूरी पर स्थित है।

नामकरण -प्रतापपुर का प्राचीन नाम परदाबपुर और परताबपुर पुराने अभिलेखों एवं भौगोलिक नक्शे में मिलते हैं। बताया जाता है कि रक्सेलवंशीय राजा धर्मजीतप्रताप सिंह के धर्म के प्रताप के कारण वर्तमान नाम प्रतापपुर प्रचलित हुआ। प्रतापपुर नामकरण के पीछे किवंदन्ति है कि यह नगर कभी महर्षि-महात्माओं की तपोभूमि थी, इसी कारण से इस स्थल का नाम प्रतापपुर पड़ा। बताया जाता है कि प्रतापपुर में काग भुसुंडी जी की तपो स्थली बांकी नदी के किनारे थी। प्रतापपुर नगर आज भी अपने प्राचीन वैभव को समेटे हुए अपना इतिहास बता रहा है।

इतिहास – प्रतापपुर के इतिहास के संबंध में कोई ज्यादा ठोस लिखित प्रमाण नहीं मिलते हैं। श्री समर बहादुर सिंह देव की पुस्तक ‘‘सरगुजा का अध्ययन’’ में प्रतापपुर के इतिहास के संबंध में कुछ तथ्य मिलते हैं। इस पुस्तक में लिखा हुआ है कि लाल विंधेश्वरी प्रसाद सिंह सरगुजा राज के सरवराकार महाराज इन्द्रजीत सिंह (1852 से 1879) के समकालीन थे। लाल विंधेश्वरी प्रसाद सिंह ने प्रतापपुर को सुन्दर नगर बनाया। वहाँ पर तालाब, राजमहल, राजमंदिर, सुन्दर सड़कें एवं इमारतें बनवाये। उन्होंने प्रतापपुर को राजा की राजधानी बनायी।

अंचल वासियों की मान्यता है कि इस अंचल में गोड़वाना राजाओं का भी लम्बे समय तक शासन रहा है। किन्तु इस ऐतिहासिक तथ्य के कोई लिखित प्रमाण नही मिलते हैं। नगरवासी बताते हैं, कि प्रतापपुर राजमहल के दरवाजे एवं गद्दी के पीछे सन् 1200 ई. लिखा हुआ था। इस काल अवधि के आधार पर राजमहल को 12 वीं सदी का माना जा सकता है परन्तु इसका कोई लिखित प्रमाण नही मिलता है इसलिए यह कल्पना-किंवदंती मात्र बनकर रह गई है।

उक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि सरगुजा राज्य की राजधानी प्रतापपुर भी एक समय में थी। आज के परिवेश में प्रतापपुर अंचल के मंदिरों, तालाबों, महलों के अवषेषों, पुरातात्विक स्थलों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह ऐतिहासिक क्षेत्र कभी महान प्रतापी राजाओं के अधीन रहा होगा। इस अंचल की कुछ स्थलें तो काफी प्राचीन लगती हैं, जो पुरातात्विक उत्खनन एवं सर्वेक्षण पर ही सही काल अविध की गणना हो सकती है।

जो वर्तमान में सिर्फ टीले (गढ़ी घुटरा) एवं ‘‘ देउर बाड़ी’’ के रूप में दिखाई देते हैं। प्रतापपुर में अंग्रेजों के शासन काल में ही सन 1933 के पूर्व पुलिस थाना की स्थापना हो चुकी थी। प्रतापपुर क्षेत्र के अंतर्गत शिवपुर,देऊर बाड़ी बैकोना, गढ़ीघुटरा, बिलदुरा प्रचीन गुफा, देवी झरिया एवं ”मंदिरों की नगरी प्रतापपुर“ में आज भी लगभग दो किमी. की दूरी पर प्राचीन काल के 10 मंदिर सही स्थित में हैं, जो निम्नलिखित हैं-
1- माँ समलेश्वरी मंदिर ।
2- माँ महामाया मंदिर ।
3 – माँ काली मंदिर।
4 – ठाकुरबाड़ी मंदिर।
5 – गणेश मंदिर ।
6 – हनुमान मंदिर ।
7 – सूर्य मंदिर ।
8 – शंकर मंदिर ।
9 – भैरव मंदिर।
10 – शीतला मंदिर।

इन मंदिरों की प्रतिमाएं अत्यंत दुर्लभ एवं कलात्मक ढंग से तरासी गई हैं। सभी प्रतिमाएं काले ग्रेनाइट पत्थर की बनी हुई लगती हैं।यहां की मंदिरों को देखने से ऐसा लगता है कि इनका निर्माण एक ही साथ एक ही काल में कराया गया होगा। मैंने अपने शोध पत्र में इन्ही मंदिरों की प्रतिमाओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है।ये सभी मंदिर प्रतिमाओं की बनावट के आधार पर एवं ग्रामीणां के बताये अनुसार 11वीं-12वीं सदी का माना जा सकता है।

प्रतापपुर नगर की ऐतिहासिक मंदिर एवं प्राचीन दुर्लभ प्रतिमाएं

माँ समलेश्वरी मंदिर –

यह मंदिर प्रतापपुर अंचल का मुख्य मंदिर है, जो ‘‘शक्ति स्थल’’ के रूप में विख्यात है। इसके अन्दर एक कुण्ड में माँ समलेश्वरी (शक्तिपीठ) विराजमान हैं। जो यहाँ की प्रमुख आराध्य देवी हैं। इसी शक्ति पीठ कुण्ड के ठीक पीछे दो बड़ी प्रतिमाएं पत्थर निर्मित एवं एक छोटी प्रतिमा संगमरमर निर्मित हैं जो कुददरगढी देवी की प्रतिमा बतायी जाती है। दोनों बड़ी प्रतिमाएं एक ही आकार की हैं। जिनका माप 3.3 फीट लम्बा एवं 2 फीट चौड़ा है। इनमें एक प्रतिमा अष्टभुजी है जिसके चार हाथों में खडग एवं चार हाथों में नर मुंड है।

समलेश्वरी माता

दूसरी प्रतिमा चतुर्भुजी है जिसके हाथों में खडग, नर मुंड,खप्पर, एवं त्रिषूल है।दोनों प्रतिमाएं शेर पर सवार हैं। ये प्रतिमाएं तीन सीढ़ी वाली जगती पर स्थपित हैं। ठीक सामने वाहन शेर भी है। इस मंदिर के दायें तरफ एक शिला पर माँ भगवती के पंजे के निशान स्पष्ट दिखाई देते हैं। पहले उंगलियों एवं बिछिया तक के निशान दिखाई पड़ते थे, किन्तु अब धीरे – धीरे श्रद्धालुओं के स्पर्श करने से उंगलियों के निशान मिटते जा रहे हैं, मंदिर पूर्वाभिमुखी है।

माँ समलेश्वरी शक्तिपीठ के संबंध में पंडित कन्हाई राम पाण्डेय एक किंवदंति एवं धार्मिक मान्यता बताते हैं कि ‘‘माता की पीठ प्रतापपुर में है एवं सिर सम्बलपुर (ओड़िसा) में है। वे बताते हैं कि शक्तिपीठ वाली शिला एक टीले में थी। जिस पर बैगा अपने बलुआ (फरसा) की धार तेज करता था। एक रात देवी ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि इस शिले पर धार तेज मत करना मैं ‘‘भगवती शक्तिपीठ’’ हूं। सुबह बैगा ने राजा को सारी बातें बतायी। राजा ने खुदवाकर अपने महल के दाहिने हिस्से में ले जाना चाहा किन्तु देवी वहाँ से नहीं हिलीं। अन्ततः राजा को देवी का मंदिर ‘‘शक्तिपीठ’’ वाली जगह पर बनवाना पड़ा। जो समलेश्वरी मंदिर के नाम से जाना जाता है। राज महल के दाहिने तरफ इसलिए ले जाना चाहते थे क्योंकि कहा जाता है –

‘‘सदभवानी दाहिने, सनमुख रहें गणेश।
पांच देव मिल रक्षा करें ब्रम्हा, विष्णु, महेश।।

आज भी देखने को मिलता है कि राजमहल खण्डहर के चारों तरफ उक्त पंक्तियों के अनुरूप मंदिर प्रतापपुर में बने हुए हैं किन्तु भगवती (देवियों) के मंदिर विपरीत दिशा बायें तरफ राजा को बनवाना पड़ा। पंडित कन्हाई राम पाण्डेय बताते हैं कि उनके सामने एक बार 1942-1943 में समलेश्वरी शक्ति पीठ कुण्ड को इलाका भर से दूध लाकर भरने का प्रयास किया गया था किन्तु वह कुण्ड नही भरा। इस शक्ति पीठ वाले स्थल पर प्रति वर्ष क्वांर एवं चैत राम नवमी में श्रद्धालुओं की भीड़ लगती है।

महामाया मंदिर –

माँ समलेश्वरी मंदिर के बायें बगल में ‘‘माँ महामाया मंदिर’’ है। इस मंदिर में एक चतुर्भुजी माँ महामाया देवी की पत्थर निर्मित विशाल प्रतिमा तीन सीढ़ी वाली जगती पर स्थपित है। जिसकी माप 5 फीट लम्बा एवं 2.5 फीट चौड़ा है। यह प्रतिमा शेर पर सवार है। इस प्रतिमा के चारो हाथ खाली हैं। यह मंदिर भी पूर्वाभिमुखी है।

काली मंदिर –

महामाया मंदिर के बायें बगल में ‘‘काली मंदिर’’ है। इसमें काली की दो प्रतिमाएं स्थापित हैं। एक प्रतिमा बड़ी है एवं एक प्रतिमा छोटी है। बड़ी प्रतिमा की माप 4.5 फीट लम्बा एवं 2.5 फीट चौड़ा है। छोटी प्रतिमा की माप 3 फीट लम्बा एवं 2 फीट चौड़ा है। दोनों प्रतिमाएं चतुर्भुजी हैं। जिनके एक हाथ में खप्पर, दो हाथों में खडग एवं एक हाथ में नर मुंड है। दोनों प्रतिमाएं भगवान शंकर की प्रतिमा पर खड़ी हैं। भगवान शंकर त्रिशूल एवं डमरु पकड़े लेटे हुए हैं। सभी दृश्य एक ही पत्थर पर बने हुए है। यह मंदिर पूर्वाभिमुखी है। ऐसी ही काली की प्रतिमा उदयपुर विकास खण्ड के रामगढ़ की पहाड़ी के उपर रखी हुई है।

ठाकुर बाड़ी मंदिर –

ठाकुर बाड़ी की प्रतिमाएं

काली मंदिर के बायें बगल में ठाकुर बाड़ी मंदिर है। इसके ठीक सामने प्राचीन ईेंटों से निर्मित एक गेट बना हुआ है, जो संरक्षण के अभाव में गिर रहा है। इस मंदिर में मुख्य प्रतिमा अष्ट धातु निर्मित नरसिंह भगवान की है। इसके अलावा राधा, कृष्ण, सुदामा की प्रतिमाएं रखी हुई हैं। मंदिर में ही काष्ठ निर्मित तीन प्रतिमाए कृष्ण, सुभद्रा एवं बलराम की भी स्थापित हैं। जो पुरी की काष्ठ प्रतिमा जैसी हैं। मंदिर के अंदर 7 फीट लम्बी एवं 10 फीट चौड़ी जगती पर सभी मूर्तियाँ रखी हुई हैं। मंदिर के दरवाजे के दायें दिवाल पर हनुमान की एवं बायें दिवाल पर गणेश जी की प्राचीन प्रतिमाएं लगी हुई हैं। पूर्वाभिमुखी इस मंदिर में आठ दरवाजे हैं।

गणेश मंदिर –

माँ समलेश्वरी मंदिर की उत्तर दिशा में लगभग 200 मीटर की दूरी पर पूर्वाभिमुखी गणेश मंदिर स्थित है। इस मंदिर में गणेश जी की पत्थर निर्मित तीन प्रतिमाएं लगी हुई हैं। जो काफी प्राचीन हैं। तीनों प्रतिमाएं एक जैसी चतुर्भुजी हैं। बायें के दोनों हाथों में शायद गद्दा एवं पुस्तक तथा दायें के दोनों हाथों में कलश एवं फरसा पकड़े हुए दिखाया गया है। इसमें एक बड़ी एवं दो छोटी प्रतिमाएं हैं। बड़ी प्रतिमा की माप 3 फीट लम्बा एवं 2 फीट चौड़ा है। यह प्रतिमा तीन जगती के उपर स्थापित है। बड़ी वाली प्रतिमा के दोनों तरफ दीवाल के तखते में 1.10 फीट लम्बाई एवं 1.3 फीट चौड़ाई की गणेश की दो छोटी प्रतिमाएं रखी हुई हैं। प्रतिमाओं के ठीक सामने वाहन मूषक भी है।

सूर्य मंदिर –

समलेश्वरी मंदिर के सामने पूर्व दिषा में प्राचीन पक्की तालाब के किनारे पूर्वाभिमुखी सूर्य मंदिर स्थित है। इस मंदिर में भगवान सूर्य, रथ पर सवार हैं, रथ को सात घोड़े खींच रहे हैं, एवं सारथी भी बैठा हुआ है। सारथी को अरुण बताया जाता है, जिसके पैर नहीं है। भगवान सूर्य के चार हाथ हैं तथा सिर के उपर छत्रक भी बना हुआ है। यह प्रतिमा दो जगती के उपर स्थापित है। प्रतिमा की माप 4.5 फीट लम्बा एवं 2.5 फीट चौड़ा है। सभी दृश्य एक ही पत्थर पर बने हुए हैं।

बताया जाता है कि पक्की तालाब से राजा के महल तक अंदर ही अंदर रास्ता बना हुआ है। रानियॉं इसी रास्ते से स्नान करने एवं सूर्य मंदिर में छठ पूजा करने आया करती थीं। यह सरगुजा संभाग के प्राचीन सूर्य मंदिरों में एक है। डीपाडीह में भी सूर्य मंदिर के अवशेष का पता चला है। डीपाडीह स्थित सामत सरना में मंदिर समुह से लगभग आधा फर्लांग की दूरी पर उत्तर-पश्चिम कोने में प्राचीन मंदिर समूह स्थित है। यहीं बोर्जा टीला को अनावृत करने के बाद एक विशल सूर्य मंदिर का अवशेष प्रकाश में आया। किन्तु सही स्थिति में प्रतापपुर का ही सूर्य मंदिर है।

हनुमान मंदिर –

प्राचीन गढ़ी तालाब के पश्चिम मेड़ के समीप सूर्य मंदिर के ठीक दायें बगल में प्राचीन हनुमान (महावीर) मंदिर है। इसमें हनुमान जी की विशाल दुर्लभ प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा के दायें हाथ में गदा एवं बायें हाथ में पर्वत है। तथा हनुमान के बायें पैर के नीचे किसी राक्षस की प्रतिमा है। राक्षस के बायें हाथ में ढ़ाल एवं दायें हाथ में तलवार है। राक्षस ने ढ़ाल से हनुमान के बायें पैर को रोक कर रखा है। यह अनोखी एवं दुर्लभ प्राचीन प्रतिमा प्रतापपुर के अलावे और कहीं देखने को नहीं मिलती है। इस प्रतिमा की माप 6 फीट लम्बा एवं 2.9 फीट चौड़ा है। सभी दृश्य एक ही पत्थर पर बना हुए हैं। यह मंदिर पूर्वाभिमुखी है

शंकर मंदिर –

समलेश्वरी मंदिर एवं राजा के महल के ठीक सामने भगवान शंकर का मंदिर है। यह मंदिर पूर्वाभिमुखी है। इसमें पत्थर निर्मित शिवलिंग स्थापित है।

भैरव मंदिर –

प्राचीन मंदिरों की श्रृंखला में प्रतापपुर में एक पश्चिमाभिमुखी भैरव मंदिर भी निर्मित है। इसमें बटुक भैरव बाबा की विशाल प्रतिमा स्थापित है। दो भुजी प्रतिमा के एक हांथ में गदा (मुदगर) एवं एक हांथ में शायद खप्पर है। प्रतिमा के साथ में वाहन स्वान भी है। तथा मंदिर के दरवाजे पर भी वाहन कुत्ता पहरा देता हुआ दिखाया गया है। भैरव बाबा प्रतिमा की लंबाई 5.5फीट एवं चौड़ाई 2 फीट है।

शीतला मंदिर –

प्रतापपुर नगर के प्रांरभ में ही माता शीतला का मंदिर स्थापित है इसमें माता शीतला विराजमान हैं। यह मंदिर पश्चिमाभिमुखी है

हिंगलाजमाता –

प्रतापपुर मध्य बस्ती में एक शिला रूप में माता हिंगलाज विराजमान हैं। ऐसी मान्यता है कि हिंगलाज माता खुले स्थल में निवास करती हैं, इसलिए मंदिर नहीं बनवाया गया। यह स्थल प्राचीन काल से ही हिंगलाज माता के नाम पर पूजित है।

प्राचीन खण्डहर (अवषेष) :-

प्रतापपुर पक्की तालाब के उत्तरी मेड़ के समीप मंदिर की आकृति में प्राचीन ईंट से निर्मित एक खण्डहर है। इसके ठीक बगल में राजा एवं रानी का मठ बना हुआ है। मंदिर आकृति में निर्मित प्रचीन खण्डहर को प्रतापपुर वासी अलग-अलग बताते हैं। कुछ लोग इस खण्डहर को ‘‘राजमाता का मठ‘‘ बताते हैं। तो कुछ लोग इसे ब्रम्हा का मंदिर बताते हैं।

ग्यारह खण्ड़ों वाला प्राचीन गुम्बद –

लाल विंधेश्वरी प्रसाद सिंह सरगुजा राज के सरवराकार महाराज इन्द्रजीत सिंह (1852 से 1879) के समकालीन थे। लाल विंधेश्वरी प्रसाद सिंह प्रतापपुर मे रहने के दौरान सूर्य मंदिर एवं हनुमान मंदिर के ठीक सामने 11 वर्षों तक यज्ञ-तपस्या किये थे। 11 वर्षों के यज्ञ-तपस्या की राख को प्रत्येक वर्ष गुम्बद में एकत्र किया जाता था। वही ग्यारह खण्ड़ों वाला गुम्बद आज भी सूर्य मंदिर एवं हनुमान मंदिर के सामने खड़ा प्रमाण दे रहा है ।

इस तरह प्रतापपुर को ‘‘मंदिरों का शहर’’ कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रतापपुर के इतिहास के संबंध में भले ही कोई लिखित ठोस प्रमाण नहीं मिलता है, किन्तु यहाँ की प्राचीन मंदिरों को एवं उसमें स्थापित प्रतिमाओं को देखकर इतना निश्चित कहा जा सकता है कि यह अंचल कभी प्रतापी राजाओं के अधीन रहा होगा।

आलेख

श्री अजय कुमार चतुर्वेदी (राज्यपाल पुरस्कृत शिक्षक) ग्राम-बैकोना प्रतापपुर, सरगुजा

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