बिलाई माता के नाम से सुविख्यात विन्ध्यवासिनी देवी अर्थात महिषासुर मर्दिनी ही धरमतराई (धमतरी) की उपास्य देवी है प्रस्तर प्रतिमा के रूप में जिसका प्रादुर्भाव हैहयवंशी राज्य के अधीनस्थ किसी गांगवंशीय मांडलिक के शासनकाल का बतलाया जाता है। तब से आज तक यह मंदिर इस क्षेत्र की जनता के लिए एक मात्र पूजन-अर्चन तथा दर्शन का केन्द्र बना हुआ है।
यह मंदिर दक्षिण दिशा में नगर के बाहर महानदी की ओर जाने वाली सड़क के बायें किनारे पर स्थित है। प्रतिमा आकार विहीन एक लिंगाकार गहरे श्यामल रंग के प्रस्तर रूप में है, जिसके ऊपरी भाग में रजत धातु से देवी की मुखाकृति बना दी गई है। इसकी उत्पत्ति भूमि से ही हुई है, अतएव जिस तरह बाल्यावस्था में किसी बालक का वर्धन होता है, ठीक उसी तरह इस देवी का भी वृद्धि होती गई है। लोगों का विश्वास तो यहां तक है कि किसी समय इस देवी के मंदिर में नरबलि भी होती थी।
धमतरी प्राचीन काल से बसा हुआ एक नगर है जहां ईस्वी सन् के पश्चात किसी वैदिक धर्मावलम्बी माण्डलक राजा की राजधानी होने का अनुमान है। इस राजा को अपने इस छोटे से राज्य की सुरक्षा की रात-दिन चिंता लगी रहती थी। यही कारण है कि वह प्रतिदिन अपने साथ कुछ घुड़सवार सैनिको को लेकर रात्रि के समय नगर के भीतर तथा बाहर निगरानी किया करता था।
अपने इस सद्गुणी राजा के प्रति जनता में अटूट श्रद्धा था। एकदिन जब वह राजा दक्षिण दिशा की ओर से चक्कर लगाकर लौटते हुए उस स्थान पर पहुंचा, जहां वर्तमान में बिलाई माता का मंदिर है, आगे-आगे चलने वाले घुड़सवार का घोड़ा अड़ गया। घोड़े को खूब मारा-पीटा गया तब कहीं जाकर घोड़ा आगे बढ़ा। इस तरह उस दिन राजा अपने सैनिकों सहित निर्धारित समय से लगभग 1 घंटा बाद अपने घर पहुंचा।
दूसरे दिन भी राजा उसी मार्ग से लौटा। घोड़ा ठीक उसी जगह फिर अड़ गया। उस पर मार-पीट का कोई असर नहीं हुआ। अतएव राजा ने घुड़सवार को नीचे उतारकर निकटवर्ती झाड़ियों को अच्छी तरह देखने का आदेश दिया कुछ सैनिक ज्यों ही झाड़ियों में प्रविष्ठ हुए त्यों ही उन्होंने देखा एक श्यामल रंग के लिंगावृत पाषाण के दोनों ओर दो बिल्लियां बैठी हुई है।
सैनिकों को देखते ही बिल्लियां गुर्राने लगी। भय के कारण सैनिक आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं कर सके। थोड़ी देर बाद कुछ और सैनिक आ पहुंचे। उन्होंने प्रयत्न करके बिल्लियों को दूर भगा दिया और उन्होंने उस पाषाणाकृति के पास पहुंचकर उसका भली-भांति निरीक्षण किया।
झाड़ियों के बीच एक असाधारण सुंदर पाषाणाकृति को देखकर सैनिक आश्चर्य चकित रह गये। उन्हें यह पाषाणाकृति रहस्यात्मक लगी। उन्होंने तुरंत ही यह सूचना अपने राजा को दी, राजा तुरंत ही शेष सैनिकों के साथ वहां पहुंचे। उस पाषाणाकृति का निरीक्षण करने के बाद सोचा कि पाषाणाकृति को बाहर निकाल कर नगर के मध्य में स्थापित कर दिया जाये यह बात सब को जंच गयी।
खुदाई का आदेश दे दिया गया किंतु ज्यों-ज्यों खुदाई गहरी होती गई त्यों-त्यों उस प्रस्तर की मोटाई अधिक दिखाई देने लगी। पर्याप्त खुदाई के बाद नीचे से जल की धारा बह निकली। उस दिन खुदाई का काम वहीं रोक देना पड़ा। दूसरे दिन खुदाई का काम प्रारंभ करने के अभिप्राय से सब अपने-अपने घर लौट आये।
आधी रात के समय स्वप्न में राजा को देवी ने कहा कि मुझे अपनी जगह खोदकर अन्यत्र स्थापित करना तुम्हारे बस की बात नहीं है। तुम इस विचार का सदा के लिए परित्याग कर दो। मुझे पूर्ववत् रहने देने में ही तुम्हारा हित हैं। बल्कि ऐसी व्यवस्था करो कि तुम्हारी प्रजा इसी स्थान पर मेरी पूजा करें। अन्यथा कल खुदाई के समय जो जल धारा फूट निकली थी वह तुम्हारे राज्य के लिए घोर विपत्ति का कारण बन सकती है।
इसके बाद राजा की निंद्रा भंग हो गई। शेष रात्रि उन्होंने देवी की चिंतन करते बिता दी। सुबह होते ही उसने अपने अधिकारियों तथा कर्मचारियों को देवी की प्रतिष्ठा हेतु आवश्यक सामाग्री एकत्र करने का आदेश दिया। देवी की प्रतिष्ठा की सूचना सारे नगर में विद्युत गति से फैल गयी। देखते ही देखते सारा नगर प्रतिष्ठा स्थल पर आ पहुंचा। शुभ मुहुर्त देखकर सुविज्ञ पंडितों ने विधि पूर्वक वेद मंत्रों का उच्चारण के साथ देवी की प्रतिष्ठा का कार्य संपन्न किया।
देवी के चारों तरफ एक सुंदर चबूतरा बना दिया गया। एक पुजारी की नियुक्ति कर दी गई। यही नहीं पूजा कार्य के व्यय के खातिर राजा ने दर्री नाम का एक गांव भी देवी के नाम लिख दिया। कहा जाता है कि भोंसला शासनकाल तक यह गांव देवी के नाम से रहा किंतु अंग्रेजी शासनकाल में जब यहां मालगुजारी प्रथा की नींव पड़ी तब पुजारियों ने इस गांव को अपने नाम करा लिया। जो काफी समय तक उन्हीं के नाम से चलता रहा।
जन-मानस में विन्ध्यवासिनी देवी के प्रादुर्भाव पर आधारित एक और भी कथा है जो इस प्रकार है, एक बार नगर के कुछ घसियारे घांस काटने के लिए दक्षिण दिशा की ओर गये और उस झाड़ी में प्रविष्ट हुए जहां विन्ध्यवासिनी देवी अज्ञात रूप से अधिष्ठित थी। घसियारों ने देखा कि एक श्यामवर्ण पत्थर के दोनों ओर बैठी दो बिल्लियां उनकी आहट पाकर गुर्रा रही हैं।
किसी तरह अपने हंसिये दिखाकर घसियारे उन बिल्लियों को भगाने में सफल हो गये। उसके बाद उस पत्थर पर रगड़ कर उन लोगों ने अपने हंसिये पैने किये। फिर वे घास कांटने में जुट गये। अल्प समय में ही उन्होंने पर्याप्त घास काट ली। आश्चर्य की बात यह रही कि उनके हंसियों की धार ज्यों की त्यों बनी रही। घसियारे इस रहस्य को जान सकने में असमर्थ थे। वे घर लौट आये। उस दिन उन्हें घास की बिक्री से पिछले दिनों की अपेक्षा अधिक मूल्य प्राप्त हुआ।
रात के समय सपने में उस घसियारों को बोध हुआ कि जिसे मामूली पत्थर समझकर उन लोगों ने अपने हंसिये की धार तेज की थी वह तो विन्ध्यवासिनी देवी है। प्रातः काल उन लोगों ने अपनी यह स्वप्न कथा राजा तथा प्रमुख नागरिकों को कह सुनाई। इसके बाद सबके समवेत प्रयत्नों से वह स्थान पूजा का केन्द्र बन गया।
देवी के प्रादुर्भाव के संबंध में तीसरी कथा कुछ इस प्रकार है कि बहुत पहले यहां आदिवासी जातियां निवास करती थी। जिनमें एक जाति बैगा कहलाती थी। ये पक्षियों को पकड़कर तथा बेंचकर जीवन निर्वाह करते थे। एक बार कुछ लड़के चिड़िया पकड़ने की गरज से उसी झाड़ी में प्रविष्ट हुए जहां एक श्यामवर्ण प्रस्तर के आजू-बाजू दो बिल्लियां बैठी गुर्रा रही थी।
लड़के ने पता नहीं क्यों भावुकता से वशीभूत होकर कहा कि ‘‘हे बिलाई माता आज हम अगर तुम्हारी कृपा से अधिक पक्षी पकड़ने में सफल हुए तो हम अपने में से किसी एक का बलिदान तुम्हारे नाम कर देंगे, देवी की कृपा से सचमुच उस दिन लड़कों ने अधिक पक्षी पकड़े।
प्रसन्न मन से जब वह घर लौट रहे थे तो एक लड़के को बलिदान की बात स्मरण हो आयी मगर बलिदान के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। तब एक चतुर लड़के ने कहा कि सचमुच बलिदान न देकर हम वचन का निर्वाह प्रतिकात्मक बलिदान करके कर सकते हैं। ऐसा कहकर उस लड़के ने चिड़िया का एक पंख हाथ में लेकर उसे छूरी की तरह अपनी गर्दन पर फिराया कि ‘‘मैं बलिदान हो रहा हूँ।’’
तभी चमत्कार हुआ। पंख के स्पर्श से ही उस लड़के की गर्दन कट गई। सिर धड़ से अलग हो गया। उसके सब साथी भयभीत होकर देखते ही रह गये। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था। तभी आकाशवाणी हुई कि लड़के का सिर और धड़ एक साथ रखकर उसे सफेद कपड़े से ढंक दिया जाये। लड़कों ने वैसा ही किया।
देवी के आर्शीवाद से वह लड़का जी उठा। बस फिर क्या था विद्युत गति से यह बात सारे नगर में फैल गई राजा ने जब यह बात सुनी तो उसे भी कम आश्चर्य नहीं हुआ। देवी के प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा उमड़ आयी और उनके चारों ओर एक चबूतरा बनवाकर देवी के पूजन-अर्चन का मार्ग सबके लिए प्रशस्त कर दिया।
कहीं-कहीं लोक विश्वास इन तीनों घटनाओं को एक ही दिन में घटित मानता है। घटना घसियारों द्वारा घास कांटने की पहले ही घटी होगी। मध्यान्ह के बाद पक्षी पकड़ने वाले लड़को के साथ चमत्कार हुआ होगा। तभी इनके सम्मिलित आग्रह एवं प्रयास से देवी की सुखद स्थापना अविलम्ब हुई। अनुमान यह है कि प्रारंभ से देवी के लिए कोई मंदिर नहीं बनवाया गया। केवल चबूतरे से ही काम चलता रहा।
गढ़फ़ूलझर के भैना राजा बिलाई माता को अपनी कुल देवी मानते थे तथा वर्तमान में उनके वंशज भी अपनी कुलदेवी मानकर पूजा करते हैं, आराधना करते हैं। भैना राजाओं ने अपनी कुलदेवी बिलाई माता के नाम से बिलाईगढ़ बसाया, इसकी जानकारी बिलाईगढ़ थाने में पटल पर अंकित है।
कहा जाता है कि सर्वप्रथम मंदिर का निर्माण मराठा सरदारों में से पवार कुलोत्पन्न एक व्यक्ति ने कराया क्योंकि यह व्यक्ति देवी के चबूतरे से टकरा गया था। फलस्वरूप उनके पांव में एक भयंकर फोड़ा हो गया था। उस व्यक्ति ने इसे देवी का कोप समझा और मंदिर निर्माण का संकल्प ले लिया। ज्यों ही मंदिर निर्माण का काम पूरा हुआ त्यों ही उसकी चोंट ठीक हो गयी और वह पूर्ण रूपेण स्वस्थ हो गया।
कालांतर में जब यह मंदिर भी जीर्ण-शीर्ण हो गया तब ईस्वी सन् 1816-17 के लगभग मराठा कुल की ही एक साध्वी महिला सुश्री चन्द्रभागा बाई ने इस मंदिर को नये सिरे से बनवाया – जो अब तक विद्यमान है।
आज विन्ध्यवासिनी देवी के दर्शनार्थ दूर-दूर से लोग आते हैं मनोतियां मानी जाती हैं। इस मंदिर में त्याग तथा सेवा का प्रतीक भगवा ध्वज लगा हुआ है। जो कि वर्ष में केवल एक बार विजया दशमी के दिन बदला जाता हैं। विजया दशमी का पर्व देवी के मंदिर के पास ही परम्परागत ढंग से प्रति वर्ष बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
मराठा सरदारों के वंशजों तथा प्रतिष्ठित नागरिकों की भव्य शोभा यात्रा निकलती है। इस देवी का श्रृंगार विशेष रूप से लगातार 11 दिनों तक किया जाता है अन्य दिनों की अपेक्षा देवी की प्रतिमा चित्ताकर्षक एवं स्फूर्तिदायिनी लगती है। एक बार इस देवी पर कांकेर के स्वर्गवासी राजा नरहर देव जू ने 108 बकरों का बलिदान किया था।
इस बलिदान को यहां के एक तत्कालीन पुजारी मोतीराम जी ने अकेले ही अपने फरसे से संपन्न किया था। पहले इस मंदिर के प्रांगण पर ही मांघ-पूर्णिमा का मेला भरता था जो कि अब रूद्री में भरने लगा है। ईस्वी सन् 1620 से अब इस मंदिर में बलिदान प्रथा बंद हो गयी है।
पहले इस मंदिर का सारा प्रबंध यहां के पुजारी किया करते थे, किंतु बाद में एक ट्रस्ट बना जो कि अब इस मंदिर की व्यवस्था करता है। मान्यता कुछ ऐसी है कि निष्काम भाव से जो आदमी देवी की आराधना करता है उसकी इच्छा निष्फल कभी नहीं जाती। यही कारण है कि लोग भेदभाव से परे रहकर अत्यंत श्रद्धा एवं निष्ठा से देवी की पूजा करते हैं।
भक्तजनों ने मंदिर के अहाते में अनेक स्मृति चिन्ह बनवा दिये हैं। इन स्मृति चिन्हों में एक श्री सेवईबन नामक योगी का चबुतरा हैं। जो बावली के पास है और लगभग ढाई-तीन फीट ऊॅंचा हैं। इस योगी के संदर्भ में कहा जाता है कि जब तक वह वहां रहा देवी के सानिध्य में ही रहा। पूजन-आराधना और योगाभ्यास करता रहा। अंत में सारी सिद्धियां उसने प्राप्त कर ली। तत्कालीन धनी-मानी लोगों ने इस योगी की योग विद्या का बहुत लाभ उठाया।
कहते हैं कि भोंसले शासन के अंतर्गत नागपुर से आकर बसे मराठों को जब अपने अन्य कुटुम्बीजनों के कुशल समाचार बहुत दिनों तक नहीं मिलते थे, तब इस योगी की शरण में आते थे। योगी अपने योगबल से उन मराठों को उनके कुटुम्बों के कुशल समाचार देकर प्रसन्न कर देता था। जब कभी कोई मराठा सदस्य तीर्थाटन के लिए जाता तो योगी से यह वचन लेता था कि यात्रा के दरम्यान वह उसे अमुक स्थान पर दर्शन दे और उस यात्री की इस इच्छा को भी पूरी कर देता था।
यात्री के संबंधी भी मंदिर में जाकर तीर्थाटन के लिए निकले अपनी संबंधी के लिए कुशल क्षेम पूछ लिया करते थे। इस योगी के साथ निरंतर बने रहने के कारण एक अन्य व्यक्ति गंगाराम यादव को भी सिद्धी मिल गई थी। यह प्रतिदिन किसी एक नागरिक के घर जाता और सूर्योदय तक उसके घर-आंगन तथा आसपास की जगह को साफ कर दिया करता था।
स्नान-ध्यान के बाद वह उस नागरिक के दरवाजे पर अपना काष्ठपात्र लेकर पहंुच जाता था। सहज भाव से जो भी मिल जाता उसी से वह संतुष्ट रहता था। नगर के संपन्न नागरिक गंगाराम से उनके योग बल द्वारा कई काम करवा लेते थे।
अभी कुछ समय पहले देवी के एक भक्त श्री स्वयंभर प्रसाद जी थे। प्रतिदिन संध्या समय देवी के दर्शन के लिए अपने घर से डेढ़-दो मील पैदल चलकर आते थे। यह नियम किसी भी मौसम में खंडित नहीं होता था। बरसात की एक शाम को जब ये देवी के दर्शन के लिए आ रहे थे तो इन्हें रास्ते में एक जहरीले सांप ने कांट लिया। लालटेन लेकर साथ चल रहे नौकर ने इनसे लौट चलने को कहा किंतु ये नहीं माने देवी दर्शन के बाद उन्होंने देवी की थोड़ी सी भभूत लेकर जहां सांप ने कांटा था, उस जगह पर लगा दी। इस तरह उन पर विश का कोई प्रभाव नही पड़ा।
मनोतियाँ मानने वाले भक्त देवी को पिंवरी चढ़ाने के लिए हर सोमवार अथवा वृहस्पतिवार को आज भी आते हैं। नव रात्रि पर्व के समय जोत जलाते हैं तथा 10 दिनों तक देवी की उपासना में रत रहते हैं। यह देवी की कृपा हैं कि इस क्षेत्र का जनजीवन कभी असंतुष्ट नहीं रहा। दैवी विपत्तियां कभी-कभी आती जरूर है मगर खुल कर अपने प्रकोप का प्रदर्शन नहीं कर पाती। ममता की मूर्ति माँ विन्ध्यवासिनी देवी के चरणों में शत-शत प्रणाम! हम लोगों पर उनकी अनुकंपा का छत निरन्तर बना रहे यही कामना है।