कला की अभिव्यक्ति के लिए कलाकार का मन हमेशा तत्पर रहता है और यही तत्परता उपलब्ध माध्यमों के सहारे कला की अभिव्यक्ति का अवसर देती है। वह रंग तुलिका से लेकर छेनी हथौड़ी तक को अपना औजार बनाकर कला को जन जन तक पंहुचाता है, इसमें काष्ठ कला भी कलाभिव्यक्ति का एक सर्वप्रिय माध्यम है।
प्राचीन काल में राजाश्रय में इस कला ने उन्नति की एवं मान- सम्मान भी पाया। राजा भोज कृत वास्तु ग्रंथ समरांगण सुत्रधार में उल्लेख है कि एक काष्ठ शिल्पी ने काठ का घोड़ा बनाया, जो एक घटी में ढाई सौ कोस का सफ़र तय करता था। राज प्रसादों, मंदिरों से लेकर आमजन के आवास गृहों में हमें काष्ठ शिल्प दिखाई देता है।
नेपाल भ्रमण के दौरान मैने ललितपुर पाटण क्षेत्र में आवासों में की गई काष्ठ कलाकृतियों को देखा। यहां महीनता के साथ कारीगरी के अद्भुत नमुने दिखाई देते हैं, यहाँ तक कि पशुपतिनाथ मंदिर में काष्ठ शिल्प में मिथुन प्रतिमाएं उकेरी गई हैं, जिसमें कालकेलि का उन्मुक्त प्रदर्शन किया गया है। राजस्थान की हवेलियों में भी यह कला बहुतायत में दिखाई देती है।
किवाड़ों की चौखट एवं फ़लक पर विभिन्न आकृतियाँ बनाकर उन्हें सुसज्जित किया जाता है। यह शिल्पांकन प्राचीन काल से लेकर अद्यतन जारी है। देवालयों के द्वार को सुंदर उत्कीर्णन द्वारा सजाया जाता है। बस्तर अंचल में भी काष्ठ पर कलाकृतियाँ उकेरी जाती हैं। आदिवासी कला के नाम पर अब पर्यटकों में यह लोकप्रिय हो रही है।
मेरी भेंट बाड़रा लंजोड़ा बस्तर वासी परम्परागत काष्ठ शिल्पी जेठूराम बाज से होती है। वे मनोयोग से देवी गुड़ी के द्वार पर शिल्पांकन कर रहे थे। साल की लकड़ी के डेढ इंच के तख्तों पर द्वार शिल्प का कार्य हो रहा था। किवाड़ों को परम्परागत ज्यामितिय आकृतियों से अलंकृत किया जा रहा था।
किवाड़ के दिल्हों पर मानवाकृति निर्मित की जा रही थी। देवगुड़ी में लगने वाले प्रत्येक काष्ठ स्तंभो पर भी जनजातिय अलंकरण किया जा रहा था। जिसमें पशु, पक्षियों से लेकर मानवाकृति को स्थान दिया गया था। द्वार के प्रत्येक दिल्हे में बस्तर की संस्कृति समाहित किया जा रहा था।
हम इस द्वार फ़लक को घड़ी की सुई के अनुसार देखते हैं, पहले दिल्हे में दो आकृतियाँ दिखाई दे रही है। जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों ने कांधे पर टांगी रखी है तथा स्त्री के हाथ में बांस की छोटी पेटिका है। यह गाँव कारीन देवी है, इसके साथ पुरुष इसका डूमा ( पति) है।
लोकदेवियों के साथ उसके पति को भी शिल्प में स्थान दिया जाता है। दूसरे फ़लक में हिंगलाजिन माता को दिखाया गया है। माता के हाथ में दंड एवं उसके डूमा के हाथ में त्रिशुल दिखाई दे रहा है। तीसरे फ़लक में आदि देव सूरज एवं चाँद को स्थान दिया गया है। जो कि संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है और देवों में इनका स्थान प्रमुखता से निश्चित है। बस्तर से लेकर उत्तर पूर्व तक आदिवासियों संस्कृति में दोंई पोलो (सूरज एवं चाँद) का महत्वपूर्ण स्थान है।
चौथे फ़लक में देवी बैठी हुई हैं और उसका परिचारक या सेवक चंवर डूला रहा है, यह एक घरेलू स्वाभाविक सहज चित्रण है। पाँचवे फ़लक में तीन मानवाकृति दिखाई दे रही हैं। उपर की दो मानवाकृतियों में सिरहा बैगा देवी पूजा के समय एक व्यक्ति के गाल को छेद कर उसमें “सांग” (लोहे की छड़) को प्रविष्ट करवा रहा है।
यहाँ देवी के प्रति पूर्ण समर्पण एवं आराधना की पराकाष्ठा दिखाई दे रही। सामने एक भक्त हाथ जोड़ कर बैठा हुए इस कार्य को देख रहा है और समक्ष ही जल का कलश रखा हुआ दिखाई दे रहा है। छठवें फ़लक में “गुलाट” खिलाते हुए गुलाट देवी दिखाई दे रही हैं।
सातवें फ़लक में माई की डोली का चित्रण किया गया है। पर्व के अवसर पर माई को डोली में बिठाकर गांव का भ्रमण कराया जाता है। दो व्यक्ति डोली को उठाए हुए दिखाई दे रहे हैं। बस्तर के प्रसिद्ध दशरहा के पर्व में दंतेवाड़ा से माई की डोली को सम्मान बाजे गाजे के साथ जगदलपुर लाया जाता है।
डोली के साथ सारे अनुषांगी देवता भी पधारते हैं। आठवें फ़लक में प्रसिद्ध देवता आँगा देव का चित्रण किया गया है। एक व्यक्ति आँगा देव को धारण कर रखा है तथा दूसरा व्यक्ति हाथ जोड़ कर उन्हे प्रणाम कर रहा है। तीसरा व्यक्ति बकरे से साथ दिखाई दे रहा है, इसे आँगा देव को अर्पित करने के लिए लाया गया है।
मानता के अनुसार बकरे की बलि देवी देवताओं को अर्पित करने की प्रथा अभी तक चलन में दिखाई देती है। इस तरह देवगुड़ी काष्ठ शिल्प मे शक्ति उपासना प्रमुखता से दिखाई देता है।
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