आज से लगभग सत्तर साल पहले जशपुर का वनवासी अंचल जब अशिक्षा, निर्धनता, बेकारी झेल रहा था और ईसाई मिशनरियां इसका फ़ायदा उठाकर उन्हें बेरोकटोक षड़यंत्रपूर्वक धर्मांतरित कर रही थी तब एक युवा वहाँ नौकरी करने आया था, जब उसने यह सब देखा तो नौकरी छोड़कर निर्धन एवं अशिक्षित वनवासियों का संकल्प लेकर वहीं बस गया और जीविकोपार्जन के लिए जशपुर में वकालत का पेशा प्रारंभ किया।
उस युवा का नाम रमाकान्त केशव (बालासाहब) देशपांडे था, उनका जन्म अमरावती (महाराष्ट्र) में श्री केशव देशपांडे के घर में 26 दिसम्बर, 1913 को हुआ। 1938 में वे राशन अधिकारी बन गये।एक बार उन्होंने एक व्यापारी को गलत काम करते हुए पकड़ लिया पर बड़े अफसरों से मिलीभगत के कारण वह छूट गया, इससे बालासाहब का मन खट्टा हो गया और उन्होंने नौकरी छोड़कर रामटेक में वकालत शुरू की।
1926 में नागपुर की पन्त व्यायामशाला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के सम्पर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी से भी उनकी बहुत निकटता थी। उनकी ही तरह बालासाहब ने भी रामकृष्ण आश्रम से दीक्षा लेकर ‘नर सेवा, नारायण सेवा’ का व्रत धारण किया था, 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में उन्होंने सक्रिय भाग लिया और जेल भी गये। 1943 में उनका विवाह प्रभावती जी से हुआ।
स्वाधीनता मिलने के बाद बालासाहब फिर से राज्य सरकार की नौकरी में आ गये। 1948 में उनकी नियुक्ति प्रसिद्ध समाजसेवी ठक्कर बापा की योजनानुसार मध्य प्रदेश के वनवासी बहुल जशपुर क्षेत्र में हुई। इस क्षेत्र में रहते हुए उन्होंने एक वर्ष में 108 विद्यालय तथा वनवासियों की आर्थिक उन्नति के अनेक प्रकल्प प्रारम्भ कराये। वहाँ उन्होंने भोले भाले वनवासियों की अशिक्षा तथा निर्धनता का लाभ उठाकर ईसाई पादरियों द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण के षड़यन्त्रों को देखा. इससे वे व्यथित हो उठे।
नागपुर लौटकर उन्होंने सरसंघचालक श्री गुरुजी से इसकी चर्चा की, उनके परामर्श पर बालासाहब ने नौकरी से त्यागपत्र देकर जशपुर में वकालत प्रारम्भ की, पर वह तो एक माध्यम मात्र था, उनका उद्देश्य तो निर्धन व अशिक्षित वनवासियों की सेवा करना था। अतः 26 दिसम्बर, 1952 में उन्होंने जशपुर महाराज श्री विजय भूषण सिंह देव से प्राप्त उनके पुराने महल में एक विद्यालय एवं छात्रावास खोला. इस प्रकार ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का कार्य प्रारम्भ हुआ।
1954 में मुख्यमन्त्री श्री रविशंकर शुक्ल ने ईसाई मिशनरियों की देशघातक गतिविधियों की जाँच के लिये नियोगी आयोग का गठन किया। इस आयोग के सम्मुख बालासाहब ने 500 पृष्ठों में लिखित जानकारी प्रस्तुत की। इससे ईसाई संगठन उनसे बहुत नाराज हो गये, पर वे अपने काम में लगे रहे।
उनके योजनाबद्ध प्रयास तथा अथक परिश्रम से वनवासी क्षेत्र में शिक्षा, चिकित्सा, सेवा, संस्कार, खेलकूद के प्रकल्प बढ़ने लगे। उन्होंने कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिये भी अनेक केन्द्र बनाये। इससे सैकड़ों वनवासी युवक और युवतियां ही पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन कर काम करने लगे।
इस कार्य की ख्याति सुनकर 1977 में प्रधानमन्त्री श्री मोरारजी देसाई ने जशपुर आकर इस कार्य को देखा। इससे प्रभावित होकर उन्होंने बालासाहब से सरकारी सहायता लेने का आग्रह किया, पर बालासाहब ने विनम्रता से इसे अस्वीकार कर दिया। वे जनसहयोग से ही कार्य करने के पक्षधर थे।
1975 में आपातकाल लगने पर उन्हें 19 महीने के लिये ‘मीसा’ के अन्तर्गत रायपुर जेल में बन्द कर दिया गया, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। आपातकाल की समाप्ति पर 1978 में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के कार्य को राष्ट्रीय स्वरूप दिया गया। आज पूरे देश में कल्याण आश्रम के हजारों प्रकल्प चल रहे हैं।
बालासाहब ने 1993 में स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से सब दायित्वों से मुक्ति ले ली। उन्हें देश भर में अनेक सम्मानों से अलंकृत किया गया। 21 अप्रैल 1995 को उनका देहान्त हुआ। एक वनयोगी एवं कर्मवीर के रूप में उन्हें सदैव याद किया जाता रहेगा। ऐसे लोग बिरले ही होते हैं, जो इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों से दर्ज होते हैं।
आलेख