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अक्षय तृतीया का सामाजिक महत्व एवं व्यापकता

अक्षय अर्थात जिसका कभी क्षय या नाश ना हो। हिन्दू पंचाग के अनुसार बारह मासों की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि शुभ मानी जाती है, परंतु वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि स्वयं सिद्ध मुहूर्त में होने के कारण हिन्दू धर्म में अत्यंत महत्व है। ऋतु परिवर्तन काल में बसन्त ऋतु की समाप्ति के साथ ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ इसी तिथि से होता है। संधिकाल कारण इसे परंपरागत पर्व के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन से प्रारम्भ किए गए कार्य अथवा इस दिन को किए गए दान का कभी भी क्षय नहीं होता। पुराण कालीन संस्कृत ग्रंथ मदनरत्न के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्व बताया है –

“अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं।
तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥
उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः।
तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव ll

अर्थात इस तिथि को दिए हुए दान तथा किए गए हवन का क्षय नहीं होता,इसलिए मुनियों ने इसे अक्षय तृतीया कहा है।देवों तथा पितरों के लिए इस तिथि पर जो कर्म किया जाता है वह अक्षय अर्थात अविनाशी होता है।

शास्त्रों में साढ़े तीन तिथियां बताई गईं हैं जिनमें मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती ये तिथियां स्वयं सिद्ध होती हैं। इन तिथियों में पहली तिथि चैत्रपक्ष की प्रतिपदा अर्थात गुड़ी पाड़वा या हिन्दू नवसंवत्सर, दूसरी तिथि दशहरा, तीसरी अक्षय तृतीया और कार्तिक शुक्लपक्ष प्रतिपदा का आधा भाग। अक्षय तृतीया की तिथि को साढ़े तीन मूहूर्तों में से एक मुहूर्त माना जाता है।

अक्षय तृतीया के दिन सतयुग समाप्त होकर त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ, ऐसा माना जाता है। इस कारण भी यह संधिकाल ही हुआ। संधिकाल अर्थात मुहूर्त कुछ ही क्षणों का होता है परंतु अक्षय तृतीया के दिन उसका परिणाम 24 घंटे तक रहता है। इसलिए यह पूरा दिन ही अच्छे कार्यों के लिए शुभ माना जाता है। भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है। अक्षय तृतीया अनेक कारणों से महत्वपूर्ण है। स्कंद पुराण एवं भविष्य पुराण के अनुसार रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में जन्म लिया था तथा भारत में परशुराम जयंती बड़ी धूमधाम से पूजा अर्चना एवं अर्ध्य देकर परशुराम मंदिरों में मनाई जाती है।

अक्षय तृतीया के दिन ही अन्न की देवी मां अन्नपूर्णा का भी अवतरण दिवस में मनाया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, मां अन्नपूर्णा काशी यानी कि बनारस में निवास करती हैं। ऐसे में यह भी कहा जाता है कि इस शहर में कोई भूखा नहीं रहता है। इसकारण अन्न-दान का विशेष महत्व है।

ब्रम्हा जी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव तथा हयग्रीव अवतार, नर नारायण प्रकटीकरण भी इसी तिथि को हुआ। वृंदावन स्थित श्री बांकेबिहारी जी के श्री विग्रह के चरणदर्शन  भी इसी दिन होते हैं जो पूरे वर्ष वस्त्रों से ढंके रहते हैं। साथ प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनाथ धाम के कपाट भी इसी दिन पुनःखुलते हैं।अक्षय तृतीया के दिन ही महर्षि वेदव्यास ने महाभारत लिखना आरंभ किया था। इसी दिन महाभारत के युधिष्ठिर को “अक्षय पात्र” की प्राप्ति हुई थी। इस अक्षय पात्र की विशेषता थी, कि इसमें से कभी भोजन समाप्त नहीं होता था।

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर में से एक भगवान ऋषभदेव से जुड़ा है जो बाद में आदिनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए।   जिन्होंने ने कर्म बन्धनों से मुक्ति हेतु सांसारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार किया। भगवान आदिनाथ द्वारा अपने व्रत का पारायण इसीदिन इक्षुरस से करने के कारण यह तिथि इक्षु तृतीया अथवा अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुई।

हिन्दू पंचाग के अनुसार अक्षय तृतीया पर सूर्य और चंद्र अपनी उच्च राशि में रहते हैं। समस्त पापनाशिनी एवं सुखदायिनी इस तिथि की अधिष्ठात्री देवी पार्वती जी हैं। जिन्होंने इस तिथि को अमोघ फल देने की सामर्थ्य का आशीर्वाद दिया इसलिए इस तिथि पर किया गया काम निष्फल नहीं होता।

अक्षय तृतीया को समस्त मांगलिक कार्य, विवाह, गृहप्रवेश भूखंड एवं वाहन खरीदी, नवीन वस्त्र एवं आभूषणों की खरीदी, व्यापार, उद्योग  सभी शुभ कार्यों का आरंभ किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन मनुष्य जितने पुण्य कर्म एवं दान करता है उसका शुभ फल उसे प्राप्त होने के साथ-साथ शुभ फल का प्रभाव कभी समाप्त नहीं होता।

इस दिन चावल, घी, नमक, तरबूज़, खरबूजा, ककड़ी, मिश्री, आम, सत्तू गर्मी में लाभकारी वस्तुओं के दान का विशेष महत्व है। लोक मान्यता है कि इस दिन दान की गई वस्तुओं की प्राप्ति मनुष्य को स्वर्ग या अगले जन्म में प्राप्त होगी। लक्ष्मी-नारायण की पूजा सफेद कमल और सफेद या पीले गुलाबो से किये जाने का विशेष महत्व है।

“सर्वत्र शुक्ल पुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने।
दानकाले च सर्वत्र मंत्र मेत मुदीरयेत्॥”

सभी महीनों की तृतीया में सफेद पुष्प से कि गया पूजन प्रशंसनीय है। इसदिन अपने अच्छे आचरण व सद्गुणों से दूसरों का आशीर्वाद लेने अक्षय रहता है। इस तिथि को व्रत करने से मनुष्य को सुख-समृद्धि एवं पुण्यफल की प्राप्ति होती है।

शास्त्रों के अनुसार इस माह में प्याऊ, छायादार वृक्षों की रक्षा तथा पशु-पक्षियों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था, राहगीरों को जल पिलाने जैसे सत्कर्म से मनुष्य को पुण्यफल की प्राप्ति होती है उसका जीवन सफल होता है। स्कन्दपुराण के अनुसार इस माह में जलदान  का विशेष महत्व है। जिससे अनेक तीर्थों का फल प्राप्त होता है। छाया के लिए छाता, हवा के लिए बांस के बने हाथ पंखों का दान दिया जाता है  

मान्यता है कि इससे ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। चरण पादुका के दान से विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। इसी माह शिवलिंग पर जल चढ़ाने या गलन्तिका बंधन अर्थात मटकी में एक छेद कर उसमें जल भरकर शिवलिंग के ऊपर लटकाया जाता है। जिससे जल की बूंदों की धारा अनवरत भगवान शिव पर पड़ती रहने से उनका जलाभिषेक होता रहता है।

पुराणों के अनुसार अक्षय तृतीया को किया गया तर्पण तथा पिंडदान और किसी भी प्रकार का दान अक्षय फल प्रदान करता है। गंगा स्नान कर भगवत पूजन से समस्त पाप कर्मों नाश होता है। संयमित जीवन व्यतीत करने के लिए धार्मिक क्रियाओं का विशेष महत्व होता है, क्योंकि इनसे मन को शांति, विचारों को शुद्धता मिलने से मनुष्य को धर्म-कर्म के प्रति रुचि एवं सहयोग करने की प्रेरणा भी प्राप्त होती है।

भारत के विभिन्न प्रान्तों में अक्षय तृतीया बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। बुंदेलखंड में इस दिन से पूर्णिमा तक यह उत्सव मनाया जाता है। जिसमें कुंवारी कन्याएं गांव, घर, कुटुम्ब के लोगों के घर शगुन बांटती एवं गीत गाती हैं। मालवा में मिट्टी के नए घड़े पर खरबूजा और आम के पल्लव रखकर पूजा की जाती है। राजस्थान में अच्छी वर्षा की कामना से शगुन निकाला जाता है लड़कियां घर -घर जाकर गीत गातीं हैं और सात प्रकार के अन्न से पूजा-अर्चना की जाती है। मान्यता है कि इसदिन कृषि कार्य आरंभ करने से किसानों को समृद्धि प्राप्त होती है। उत्तर प्रदेश में आखातीज के नाम से यह पर्व मनाया जाता है।

दक्षिण कोसल अंचल की परम्पराएं ,पर्व एवं त्यौहार विश्व भर में अपनी विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध हैं। पीढ़ियों से चली आ रही यही परंपराएं यहां की जन-जन से लेकर कण-कण में रची-बसी हैं। छत्तीसगढ़ में अक्षय तृतीया को अक्ती कहा जाता है। इसका विशेष महत्व है। इसी दिन यहां बच्चे मिट्टी के बने गुड्डे-गाड़ियों जिन्हें पुतरा-पुतरी कहा जाता है पूरे रीति रिवाज से विवाह करते हैं जैसे बड़े-बुजुर्ग घर का वैवाहिक कार्य सम्पन्न करते हैं।

अक्षय तृतीया अर्थात अक्ती के दिन गांव का ग्राम पुजारी  जिसे बैगा कहते  हैं। ग्राम देवी-देवताओं की पूजा कर गांव की सुख-समृद्धि एवं कल्याण की कामना से पूजा अर्चना करता है। इसी दिन किसान के घर नौकरी करने वाला नौकर जिसे छत्तीसगढ़ में कमिया, बइला चरवाहा अथवा कृषक का सौंजिया कहलाता है जो फसल का एक हिस्सा अपने परिश्रम के बदले प्राप्त करने का अधिकारी होता है और वर्षभर के लिए अनुबंधित होता है वह कार्यमुक्त होता है। इस दिन कमिया अपने मालिक का मेहमान होता है उसे पूरा मान सम्मान दिया जाता है।

छत्तीसगढ़ शासन ने भी इस पर्व की सात्विकता एवं धार्मिक महत्व के कारण इस तिथि को महत्वपूर्ण घोषित करते हुए माटी-पूजन दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की है।जिसका उद्देश्य धरती एवं हमारे पर्यावरण को सुरक्षित करन है साथ ही मिट्टी की उर्वरा शक्ति को पुनर्जीवन प्रदान कर जैविक खेती को बढ़ावा देना है।      इस प्रकार विभिन्न मान्यताओं एवं शास्त्रों के आधार पर  इस दिन मिलने वाला पुण्य कभी खत्म नहीं होता. यह मनुष्य के भाग्य को सालों साल बढाता है। इसलिए प्राचीन काल से अक्षय तृतीया का मांगलिक पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है।

आलेख

श्रीमती रेखा पाण्डेय (लिपि) हिन्दी व्याख्याता अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़

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