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उपन्यास और लेखन से स्वत्व जागरण : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

स्वाधीनता के लिये संघर्ष जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण है समाज में स्वत्व जागरण का अभियान। यदि स्वत्ववोध नहीं होगा तो स्वतंत्रता की चेतना कैसे जाग्रत होगी। अपने लेखन से स्वत्व चेतना का यही अभियान चलाया आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने। उन्होने अपना सार्वजनिक जीवन स्वतंत्रता संग्राम से आरंभ किया लेकिन शीघ्र ही आँदोलन से अलग होकर साहित्य से सामाजिक जागरण का अभियान चलाया।

उन्होंने अपने रचना संसार से भारतीय समाज को अपने अतीत की गरिमा एवं गलतियों दोनों से अवगत कराया। उनकी भाषा बहुत रोचक और प्रवाहमयी थी। कथा कहानी, उपन्यास कविता और आलेख सभी विधाओं के सुप्रसिद्ध रचनाकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म 26 अगस्त 1891को उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले के अंतर्गत ग्राम चांदोख में हुआ था। उनके पिता केवलराम ठाकुर अपने क्षेत्र के एक प्रभावशाली वैद्य थे और आर्यसमाज से जुड़े थे। माता नन्हींदेवी राजस्थान से थीं और भारतीय परंपराओं एवं स्वाभिमान के प्रति समर्पित थीं।

जब आचार्य चतुरसेन जी का जन्म हुआ तो परिवार ने उनका नाम चतुर्भुज रखा। उनकी शिक्षा दीक्षा और आरंभिक जीवन इसी नाम से जाना गया। बालक चतुर्भुज की प्राथमिक शिक्षा पास के गाँव सिकन्दराबाद में हुई। आगे की शिक्षा के लिये जयपुर संस्कृत महाविद्यालय में प्रवेश लिया।

1915 में आयुर्वेदाचार्य एवं संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। वे बचपन से बहुत भावुक और विचारशील स्वभाव के थे और इतने कल्पनाशील कि किसी घटना के एक दो वाक्य सुनकर पूरा दृश्यांकन कर दें। लेखन का शौक बचपन से था। छोटी छोटी कहानियाँ लिखा करते थे।

शिक्षा पूरी करके दिल्ली आये। दिल्ली में आयुर्वेदिक चिकित्सालय आरंभ किया। संवेदनशील इतने थे कि गरीब और बेबश लोगो का इलाज निशुल्क किया करते थे इससे उनका चिकित्सालय न चल पाया। रोगी तो आते पर चिकित्सालय घाटे में रहा। लगातार घाटे के कारण चिकित्सालय बंद कर दिया और पच्चीस रुपये के वेतन पर एक अन्य धर्मार्थ औषधालय में नौकरी कर ली।

लगभग दो वर्ष के इस संघर्ष के बाद 1917 में, वे डीएवी कॉलेज, लाहौर में आयुर्वेद के प्रोफेसर बने। लेकिन यहाँ भी उनका तालमेल न बैठ सका और त्यागपत्र देकर राजस्थान के अजमेर आ गये। यहाँ उनके ससुरजी का औषधालय था। आचार्य चतुरसेन इसी औषधालय जुड़ गये। यहाँ उनके जीवन में स्थायित्व आया और लेखन कार्य को भी गति मिली।

एक लेखक के रूप में उन्होंने अपना नाम चतुरसेन रखा और वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुये। उन्होंने साहित्य की प्रत्येक विधा में लेखन किया। उपन्यास, कहानी, गीत, संस्मरण, धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक जीवन, चिकित्सा, स्वास्थ्य और तिलस्मी आदि विषयों पर भी लिखा। उनके संपूर्ण लेखकीय जीवन में उनके द्वारा सृजित और प्रकाशित रचनाओं की संख्या 186 है।

जबकि कुछ कहानियाँ और अन्य रचनाएँ प्रकाशित नहीं हो सकीं इन्हें मिलाकर कुल संख्या साढ़े चार सौ से अधिक है। कहानियों और उपन्यासों में उनकी रुचि ऐतिहासिक घटनाओं के प्रति अधिक रही। वे ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से अतीत की विशेषताओं और वर्जनाओं दोनों के प्रति समाज को जाग्रत करना चाहते थे। उनकी भाषा शैली बहुत रोचक और जिज्ञासु थी। अपनी इसी विधा से ही वे अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार माने गये।

स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी

दिल्ली और लाहौर में अपने आरंभिक जीवन में आचार्य चतुरसेन शास्त्री स्वाधीनता आँदोलन से जुड़े। 1920 के असहयोग आँदोलन से जुड़े पर दो घटनाओं से उद्वेलित हुये। उनकी दृष्टि में असहयोग आँदोलन में खिलाफत आँदोलन को जोड़ना उचित नहीं था। दूसरा मालाबार हिंसा पर गाँधी जी की भूमिका पर भी उनकी असहमति थी। इसलिये वे स्वतंत्रता संग्राम से दूर हुये और उन्होने गाँधीजी पर भूमिका पर व्यंग करते हुये लेखन आरंभ किया। साहित्य जगत में गाँधीजी पर यह पहली आलोचनात्मक रचना थी।

उनका रचना संसार

आचार्य चतुरसेन शास्त्री का पहला उपन्यास “हृदय की परख” 1918 में प्रकाशित हुआ। 1921 में सत्याग्रह और असहयोग विषय पर गांधीजी पर केन्द्रित आलोचनात्मक कृति आई, जो अपने समय की सर्वाधिक चर्चित रचना रही। उनके उपन्यासों की कुल संख्या बत्तीस है और लगभग सौ नाटक नाटक लिखे।

उनके प्रमुख उपन्यासों में ”वैशाली की नगरवधू”, ”सोमनाथ”, ”वयं रक्षामः”, “सौना और खून”, ”आलमगीर” आदि अपने समय बहुत प्रसिद्ध रहे। उनकी रचनाओं में ग्रामीण, नगरीय, राजसी और सामान्य सभी प्रकार की जीवनशैली की झलक मिलती है।

वे पुराण, इतिहास, संस्कृत, मानव साहित्य और स्वास्थ्य विषयक साहित्य पर बड़ी गम्भीरता और ईमानदारी से लिखते रहे। उनके चिकित्सा एवं आरोग्य शास्त्रों में नारी केन्द्रित अधिक रहे। इनमें महिलाओं की चिकित्सा, आहार और जीवन शैली से स्वस्थ्य रहना, मातृकला तथा अविवाहित युवक-युवतियों के लिए आरोग्य आदि विषयों पर भी उनके ग्रंथों की संख्या एक दर्जन से अधिक है।

एक रचना ”यादों की परछाई” को उन्होने एक ऐसी आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत की जिसमें ‘राम’ के ईश्वरीय स्वरूप के बजाय एक पुरुषोत्तम स्वरूप पर केन्द्रित किया ताकि समाज में एक आदर्श जीवन कला विकसित हो।

सोमनाथ’, ‘वयं रक्षाम:’, ‘वैशाली की नगरबधु’, ‘सह्याद्रि की चट्टानें’, ‘अपराजिता’, ‘केसरी सिंह की रिहाई’, ‘अमर सिंह’, चार खंडों में ‘सोना और ख़ून’, ‘आलमगीर’, ‘धर्मपुत्र’, ‘खग्रास’, ‘मंदिर की नर्तकी’, ‘रक्त की प्यास’, ‘पत्थर युग के दो बुत’, ‘बगुला के पंख’, ‘ह्रदय की परख’ आदि उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं।

हालांकि उनके उपन्यासों में जो शोहरत ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘वयं रक्षामः’ और ‘सोमनाथ’ को मिली, वह अन्य को हासिल नहीं है. ‘वैशाली की नगरवधू’ के बारे में उन्होंने खुद ही लिखा था, ‘मैं अब तक की अपनी सारी रचनाओं को रद्द करता हूं, और वैशाली की नगरवधू को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूं।’ यह कृति साल 1957 में पहली बार छपी। तबसे अब तक न जाने इसके कितने संस्करण छप चुके।

यूँ तो उनकी प्रत्येक रचना में व्यापक संदेश फिर भी दो रचनाओं का प्रस्तुतिकरण बहुत अलग अंदाज में है। एक उपन्यास गोला गोली और दूसरा वयम् रक्षाम। कुछ रियासतों में “गोला- गोली” परंपरा थी। इस विसंगति पूर्ण प्रथा का चलन बढ़ गया था। राजमहलों में राजा महाराजाओं और उनकी दासियों के बीच चलने वाली इस विसंगति परंपरा पर उन्होने उपन्यास लिखा और देश के गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल को समर्पित किया था।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने इसके माध्यम से दास दासियों के प्रति मानवीय संवेदना और सम्मान को झकझौरा उससे चेतना आई और यह प्रथा को समाप्त होने का वातावरण बना। दूसरा “वयम् रक्षाम” उपन्यास रावण पर केन्द्रित है। किस प्रकार अधिकार भाव एक व्यक्ति को अहंकारी बनाता है उससे मानवीय मूल्यों के दमन की तस्वीर इस रचना में है।

आचार्य जी का बचपन आर्यसमाजी वातावरण में बीता था। यह वैचारिक प्रभाव उनके जीवन भर रहा। जो उनकी रचनाओं में भी झलकता है। दिल्ली में बसने की इच्छा बचपन से थी और दिल्ली की अनाज मंडी शाहदरा में उन्होंने एक घर बनाया जो घर दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड को दान कर दिया था, जिसमें आजकल विशाल लाइब्रेरी है।

पूरा जीवन समाज और साहित्य को समर्पित करने वाले आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने 2 फरवरी 1960 को जीवन से विदा ली। उन्होंने अपने शरीर से संसार छोड़ा पर उनकी रचनाएँ आज भी समाज के सामने है।

आलेख

श्री रमेश शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल, मध्य प्रदेश


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