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बस्तर का तीजा व्रत एवं तीजा जगार

छत्तीसगढ़ अंचल के अन्य त्यौहारों में तीजा व्रत भी प्रमुख त्यौहार है। यह त्यौहार भासो मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को प्रदेश के सरगुजा क्षेत्र से लेकर बस्तर तक मनाया जाता है। पोला तिहार से इस पर्व की तैयारी प्रारंभ हो जाती है। विवाहित बेटियाँ-बहने अपने भाई के आने पर उसके साथ अनिवार्य रुप से अपने मायके पहुंच जाती है और तीजा व्रत को करु भात खाकर करती हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में भी इस त्यौहार को मनाया जाता है।

तीजा व्रत में महिलाओं व युवतियों द्वारा शंकर-पार्वती की पूजा का विधान है। इस व्रत को कुंवारी कन्याओं द्वारा मनोवांछित वर की कामना, विवाहित स्त्रियों द्वारा अपने सुहाग की रक्षा के लिए तथा निसंतान स्त्रियां संतान प्राप्ति की कामना से करती है तीज के दिन व्रत करने का नियम है।

सुबह सबसे पहले सारी स्त्रियां मिलकर बाजे-गाजे, मोहरी वादकों के साथ नदी जाती है और नदी के किनारे की रेत साफ धोकर सात मुट्ठी एक परात में रखती है। कुछ महिलाएं गीत भी गाती है गीत का सार होता है कि हे पार्वती मैया आपकी ही तरह हमने भी यह व्रत किया है और हमें आशीर्वाद दो कि हम यह व्रत पूर्ण कर सके और आप हमारे सुहाग की रक्षा करना, सारी स्त्रियों को सौभाग्यवती रखना।

तीजा व्रत बस्तर के सभी आदिवासियों में प्रचलित नहीं है परन्तु यहां बस्तर में अन्य जितनी भी जातियाँ हैं जैसे कोष्टा, पनारा, धाकड़, ठाकुर, ब्राह्मण, बैरागी, गाड़ा-घसिया, सतनामी, कलार, राजपूत, आदि इस पर्व को सोल्लास मनाते हैं। हलबा, भतरा जनजाति में यह प्रचलित है। पहले भतरा जनजाति में यह प्रचलित नहीं था परन्तु कई दशकों से ये भी इस पर्व को मनाने लगे हैं।

इसके पश्चात उस परात के बालुओं को दो भाग में करती हैं और शिव और पार्वती बनाती है एवं उसी स्थान पर फूल, अक्षत, धूप, दीप, कलश और फल इत्यादि से पूजा करती है। कोई एक स्त्री या नवविवाहिता, कुंवारी भी जिसने व्रत रखा हो या जिसका पहला तीज व्रत हो या नि:संतान स्त्री, उसके सिर पर बाली गौरा रखते हैं और जिस कलश में दीप हो उसे भी ऐसी ही कोई महिला अपने सिर पर रखकर घर पर पूजा स्थल तक लाती है।

पूजा स्थान में बांस की कमचियों को चौकोर बांधकर एक नए कपड़े से या साड़ी ढककर फुलेरा बनाया जाता है, उसी फुलेरा में चेंडू लगाया जाता है। उसके नीचे चावल, आटे, हल्दी से मांड कर जो पीढ़ा रखा जाता है उस पर बालीगौरा वाले रात को रख देते हैं। बस्तर अंचल में कहीं-कहीं यह अमुस तिहार या हरेली के बाद से तीजा जगार का आयोजन भी होता है या जिसने मन्नत रखी होती है उनके द्वारा भी इसका आयोजन किया जाता है। इसे तीजा जगार में धनकुल वाद्य यंत्र का उपयोग होने कारण धनकुल भी कहते हैं।

तीजा जगार, तीजा तक चलता है और चतुर्थी तक अनिवार्यतः इसका समापन हो जाता है। महिलाएं बालीगौरा लाकर उसे पीढा़ में रख देती है और उसके ठीक सामने कलश रखती है फिर भोग प्रसाद बनाती है। शाम की दीया-बाती के बाद सभी अपने-अपने घरों के काम करने के उपरांत फुलेरा की जगह पहुंचती है। यहाँ रामायण पाठ, भजन-कीर्तन आदि करती है। अगर जगार का आयोजन हो तो जगार गायन सुनती है।

इस पूजा में सबसे पहले गौरी गणपति की भी पूजा करते हैं और शंकर पार्वती की विशेष तौर पर पूजा की जाती है। भगवान शंकर में कनेर फूल, बेलपत्र आदि अर्पित किए जाते हैं और माता पार्वती को भी मदार के फूल और अन्य फूलों के साथ श्रृंगार सामग्री चढ़ाते हैं। रात भर जागकर अखंड ज्योत की रक्षा करती है। दीया बुझने नहीं देती और आरती करने के पश्चात सभी फिर भजन-कीर्तन इत्यादि करती है।

अगली सुबह ब्रह्म मुहूर्त में स्नान आदि कर पूजन करती है, आरती करती है और सारी फूल पत्तियां इकट्ठी कर परात और कलश को सिर पर रखकर उसके विसर्जन के लिए बाजा मोहरी के साथ जाती है। बस्तर में मान्यता यह भी है कि जो महिलाएं बालीगौरा सिर पर रखती है उन पर देवी आरुढ़ होती है विशेषतःयह जगार आयोजन के समय देखा जाता है।

विसर्जन के समय महिलाएं गीत गाती हुई नदी में बालीगौरा की पुनः पूजा अर्चना करती है एवं जल प्रवाह में अपने-अपने दीपों को प्रवाहित करती है। परात की बालू को सात बार घूमाती हुई, गीत गाती हुई जल में प्रवाहित कर देती है और घर आकर अपना व्रत खोलती है और फलाहार करती हैं। इस तरह तीजा व्रत छत्तीसगढ़ में लगभग सभी जातियों में मनाया जाता है।

आलेख एवं छायाचित्र

लतिका वैष्णव


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