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सिसोदिया वंश मार्तण्ड महाराणा प्रताप

संस्कृति और इतिहास में राजस्थान नाम का उल्लेख प्राचीन काल में नहीं मिलता। वर्तमान राजस्थान के क्षेत्र में प्राचीन काल से अनेक राजनैतिक इकाइयों का उल्लेख मिलता है, जिनमें मत्स्य (जयपुर का उत्तरी भाग) सपादलक्ष (जयपुर का दक्षिणी भाग) कुरुक्षेत्र (अलवर का दक्षिणी भाग) शूरसेन (भरतपुर, धौलपुर तथा करौली) शिव (मेवाड़) वारगट (डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा) वल्लदेश (जैसलमेर) मरू देश (जोधपुर) जांगल देश (बीकानेर) मालव (प्रतापगढ़ झालावाड़) का उल्लेख मिलता है।

प्राचीन काल में क्षत्रियों के दो वंश थे सूर्य और चंद्र। बाद में अग्निकुल वाले चार के मिल जाने से कुल संख्या 6 हो गई। वर्तमान में जितने भी राजपूत वंश हैं वह इन्हीं छह की शाखाएं हैं। भारत में मुस्लिम शासन के पूर्व 36 राजकुल उपलब्ध थे जिन की सूची नाडोल के प्राचीन नगर मारवाड़ के जैन मंदिर से प्राप्त हुई है। दूसरा उल्लेख चंदबरदाई के ग्रंथ में, तीसरा उल्लेख चंदबरदाई के समकालीन कवि की रचना कुमारपाल चरित्र में, चौथी रचना खींची चारण कवि और पांचवी सौराष्ट्र के एक चारण कवि की रचना मे है।

भगवान रामचंद्र के के वंश में अंतिम राजा सुमित्र का उल्लेख है जिसके साथ गोहिल और वंश का संबंध है। कनक सेन ने अयोध्या का राज्य छोड़कर सौराष्ट्र में सूर्य वंश की स्थापना की थी तथा इसकी राजधानी वल्लभी में थी। इस वंश के अंतिम शासक शिलादित्य को युद्ध में घेर कर मारा गया। वंश समाप्त नहीं हुआ उसके मरणोपरांत उसके पुत्र गुहा दित्य ने ईडर नामक छोटे राज्य को जीता और शासन करने लगा। यह नया राजवंश उसी के नाम से गोहिल कहलाया तथा उसके वंशज ही guhilot गूहीलात कहाने लगे। इसी की एक शाखा आहाड़िया नाम से भी जानी जाती है जिसने डूंगरपुर में अपना अलग राज्य स्थापित किया था। इस वंश के माहप ने सिसोद नामक गांव को अपने राज्य की राजधानी बनाया और उस समय से माहप के वंशज सिसोदिया नाम से प्रसिद्ध हुए। इस तरह से सिसोदिया वंश गोहिलतो की एक शाखा है। गोहिलतों की कुल 24 शाखाएं हैं जिनमें से आठ वंश कर्नल टॉड के समय से बहुत पहले समाप्त हो गए. सोलह वंश जारी रहे।

इस वंश के प्रारंभिक शासकों में गोहिल, नागआदित्य तथा बप्पा रावल अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। बप्पा रावल की ख्याति किसी भी शासक के लिए जलन का कारण बन सकती है। बप्पा रावल ने अनेक विवाह किए तथा ईरान तक विजय प्राप्त की। जगह जगह विजय उपरांत प्राप्त हुई राजकुमारियों से उनके कुल 130 पुत्र हुए इनमें 98 पुत्र हिंदू स्त्रियों से थे। मेरु पर्वत की घाटी में अपने अंतिम दिनों में उन्होंने धार्मिक जीवन जीना शुरु किया और जीवित समाधि ली।

बप्पा रावल के बाद के शासकों में अनंगपाल, समर सिंह, राहप, लक्ष्मण सिंह तथा हम्मीर महत्वपूर्ण है। हम्मीर ने चित्तौड़ पर फिर से अधिकार किया। हमीर के बाद राणा लाखा का स्थान काफी ऊंचा है। आगे के शासकों में मोकल तथा उनके पुत्र चुंडा का प्रसंग किसी भी तरह से भूला नहीं जा सकता। चुंडा के प्रसंग में फिर से महाभारत कालीन भीष्म पितामह की याद बरबस आती है। राणा कुंभा ने भी मेवाड़ के इतिहास में अद्वितीय स्थान बना रखा है। इनके उपरांत रायमल तथा राणा सांगा का शासन काल राजनैतिक घटनाक्रम तथा षड़यंत्रों के कारण रोचकता के दृष्टिकोण से है। राणा सांगा का महत्व इतिहास के आधार पर भी समझा जा सकता है। राणा सांगा 80 युद्धों में घायल हुए थे। इन्हीं युद्धों में उनकी एक आंख चली गई थी और इतिहासकार मानते हैं कि राणा सांगा के शरीर पर बने घावों के इतिहास में राजस्थान का इतिहास छिपा हुआ था। राणा सांगा का दुखद अंत हुआ और उसके उपरांत तीन कम महत्व के और अशोभनीय शासक आए जिनके नाम हैं रतन सिंह, विक्रमाजीत तथा बनवीर।

राणा सांगा के सात पुत्र हुए, जिनमें से दो बचपन में ही मर गए थे राणा रतन सिंह को उत्तराधिकार मिला। रतन सिंह और उनके बहनोई सूरजमल लगभग बराबर उम्र के थे। उन दोनों के बीच में मनोमालिन्य और जलन भरपूर थी। स्त्री प्रसंग में रतन सिंह मारे गए। इस तरह बूंदी के हाडा और मेवाड़ के सिसोदिया वंश में थोड़े दिनों के लिए कटुता का आना संभव हो पाया। 1535 में राणा रतन सिंह की अकाल मृत्यु के बाद विक्रमाजीत चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा। उसमें राजा के गुण नहीं थे। उसने अपने भाई के गुणों को छोड़कर अवगुणों को ग्रहण किया था। उसका अधिक समय पहलवानों की कुश्ती देखने और कसरत में बीत जाता था। उन्हें तरह-तरह के पदों पर प्रतिष्ठित करता था। पारंपरिक राजपूत परिवारों की अपेक्षा इस तरह के सैनिकों को महत्व दिया जाने लगा। जब संकट का समय आया तब राणा ने अपने सरदारों को याद किया तो उन्होंने एक स्वर से उत्तर दिया कि आप अपने पदार्थी लोगों को भेजे।

गुजरात के सुल्तान बहादुर ने इस आपसी फूट को देखकर हमला करना तय किया। पहले की पराजय तथा चित्तौड़ में बंदी बनाकर रखे जाने का बदला चुकाने के लिए वह तैयारी के साथ चित्तोड़ पर हमला के लिए यात्रा पर चल पड़ा. राणा इस समय बूंदी के अंतर्गत लोईचा नामक स्थान पर पड़ाव डाले हुआ था। रास्ते में हुई इस भिड़ंत में विक्रमाजीत राणा अपनी आदतों के कारण विपत्ति में फंसे लेकिन अंतिम युद्ध में उन्होंने पीठ नहीं दिखाई। उनके मरने के बाद मेवाड़ के सरदारों ने तय किया कि राणा सांगा के छोटे पुत्र उदय सिंह को उत्तराधिकार दिया जाए। उनकी आयु कम थी और इसलिए कुछ सरदार उन्हें लेकर पहाड़ों की तरफ चले गए ताकि उनको बचाया जा सके।

चित्तौड़ पर सुल्तान बहादुर का घेरा पूरा हो चुका था। इस बार वह अपने साथ एक तेज तोपची लेकर आया था। भट्ट ग्रंथों में इस तुपची को फिरंगी का लबरीयान कह कर पुकारा गया है। अन्य स्रोतों में इसका नाम रूमी खान मिलता है। चतुर तोपची ने पहाड़ी के नीचे एक बड़ी सुरंग खोदी और उसमें बारूद भर कर आग लगा दी जिससे दुर्ग की 45 हाथ दीवार एक साथ उड़ गई। उस स्थान पर तैनात हाड़ा राजकुमार अपने 500 सैनिकों सहित मारा गया। टूटी हुई दीवार से सेना ने दुर्ग में प्रवेश करने का प्रयास किया. राव दुर्गा चुंडावत सरदार ने सत्तो और दूधों की सहायता से रोकने का प्रयास किया।

सिसोदिया महारानी जवाहर बाई भी उस स्थान पर लड़ रही थी। मुट्ठी भर राजपूत वीर कब तक टिक पाते। महारानी सहित सभी राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। जौहर की तैयारी की गई। महारानी कर्णावती 13000 राजपूत और समर्थक स्त्रियों के साथ उस अग्नि में कूद पड़ी। राजकुमार उदय सिंह को बूंदी के राव सुल्तान की देखरेख में सौंप दिया गया था। राजपूत अपने समर्थक सैनिकों के साथ दुर्ग का द्वार खोलकर बिना कपड़ों के लड़ने के लिए निकल पड़े और मारे गए. चित्तौड़ का अंतिम दिवस आ गया। इस में 32000 सैनिक मारे गए थे। यह चित्तौड़ का दूसरा शाका था अर्थात दूसरी बार चित्तौड़ का विनाश हुआ था। बहादुर केवल 15 दिनों तक ही चित्तौड़ में रह पाया क्योंकि हुमायूं उस पर हमला करने के लिए अपनी सेना सहित बढ़ता आ रहा था। इस हालत में सुल्तान बहादुर ने चित्तौड़ को खाली कर दिया और वापस लौट पड़ा।

इस तरह की पीड़ा दाई विपत्ति के बाद विक्रमाजीत को चित्तौड़ का सिंहासन पुनः नसीब हुआ लेकिन उसके व्यवहार में किसी भी तरह का सुधार नहीं आया। थोड़े दिनों में ही अपने सरदारों पर पुनः अत्याचार करना शुरू कर दिया। जिस करमचंद ने उसके पिता को विपत्ति के समय आश्रय दिया था और जो अपनी जिंदगी के अंतिम वर्षों में आ चुका था उसी पर विक्रमाजीत ने भरी सभा में प्रहार किया। यह अन्याय और अपमान देखकर समस्त सरदार अपने-अपने आसन से उठ बैठे और चूंडावत सरदार कांजी ने चिल्लाकर कहा बंधु सरदारों अब तक तो जो हुआ सो हुआ लेकिन अब यहां से चलना ही बेहतर है। कुछ अन्य ने तय किया कि राणा सांगा के मृत पुत्र पृथ्वीराज की उप पत्नी के पुत्र बनवीर को शासक बनाया जाए। बनवीर स्वयं तैयार नहीं हुआ लेकिन सरदारों के कहने से वह तैयार हो गया। शासक उदय सिंह को बनना था पर उनकी अल्पावस्था के कारण बनवीर को नया राणा बनाया गया। विक्रमाजीत शासन से उतार दिया गया।

बहुत जल्दी बनवीर को सत्ता से प्रेम हो गया और उसने तय किया कि पद से हटाए गए विक्रमाजीत और उदय सिंह दोनों की हत्या कर दी जाए। रात के समय वह रनवास में घुसा और उसने विक्रमाजीत की हत्या कर दी। इसके बाद रोना पीटना मचा शोर राणा उदय सिंह के महल तक पहुंचा। खींची राजपूत कुल में उत्पन्न पन्ना धाय उदय सिंह की देखभाल करती थी। दाई मां ने समझ लिया कि अब उदय सिंह की भी हत्या की जानी है। उदयसिंह के बिस्तर पर माता ने अपने पुत्र को सुला दिया और उदय सिंह को एक बर्तन में रखकर महल से बाहर निकाला। पन्ना धाय की आंखों के सामने उसका बेटा सुप्त अवस्था में ही मारा गया। खून चारों तरफ फैल पड़ा बिस्तर पर।

राणा उदय सिंह ने अपने आप को इस बरमान तक कुर्बानी का हकदार वारिस नहीं साबित किया 1541 में उसे मेवाड़ का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ उसी की उम्र ने में अकबर ने भी उत्तराधिकार प्राप्त किया था लेकिन उदय सिंह ने अपने आप को दुनिया के ज्ञान से और रणनीति से वंचित रखा था अकबर का प्रारंभिक काल भैरव खान द्वारा संरक्षित था और जब उसने स्वयं शासन करना शुरू किया फिर राजस्थान पर राजपूत नीति का विकास हुआ बहुत जल्दी राजस्थान के अन्य घराने उसके सामने समर्पण कर बैठे। चित्तौड़ पर भी उसने हमला करना तय किया। इस हमले के पहले उदय सिंह चित्तौड़ की रक्षा का दायित्व बदनार के जयमल और कलवा के फ़त्ता पर छोड़कर उदयपुर की पहाड़ियों की तरफ निकल गया।

जयमल मेड़तिया राठौर कुल का था और पत्ता चूंड़ावती की एक शाखा जगावतओं का सरदार था। जोरदार मारकाट हुई, मुगलों की तोपों और बंदूकों का चित्तौड़ के सैनिक धनुष बाण से मुकाबला कर रहे थे। इसी समय जयमल की छाती पर शत्रु की एक गोली लगी। वह तत्काल अपने घोड़े से गिरकर मर गए। ऐसा समझा जाता है कि जयमल को गोली मारने का काम अकबर ने खुद किया था। जिस बंदूक से गोली मारी थी उसका नाम संग्राम रखा गया। जयमल और पत्ता की वीरता को अचल रखने के लिए अकबर ने दिल्ली किले के द्वार पर ऊंचा चबूतरा बनाकर उन दोनों की पाषाण मूर्तियां स्थापित की थी। बर्नियर जब भारत आया था तब वह मूर्तियां लगी हुई थी। चित्तौड़ को खोने के बाद उदय सिंह केवल 4 वर्ष तक ही जीवित रहा और 42 वर्ष की अल्पायु में गोगुंदा नामक स्थान पर उसका स्वर्गवास हो गया।

उदय सिंह अपने पीछे 25 पुत्र छोड़ गया. यह सभी राणावत के नाम से विख्यात हुए। मरने से पहले उसने अपने बच्चों के बीच संघर्ष का बीज बो दिया था। उसने परंपरागत जेष्ठ अधिकार नियम का उल्लंघन कर अपने छोटे किंतु प्रिय पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। श्मशान में एकत्र सभी सरदार उत्तराधिकारी के विषय में गंभीर परामर्श कर रहे थे। उदय सिंह की एक पत्नी जालौर के सोनगरा सरदार की पुत्री थी। जालौर का सरदार अपनी पुत्री से उत्पन्न पुत्र प्रताप को राणा बनवाना चाहता था, वह सबसे बड़ा भी था।

सोनगरा सरदार ने मेवाड़ के प्रमुख सरदार चुंडावत कृष्ण जी से पूछा कि आपने इस अन्याय के लिए कैसे स्वीकृति प्रदान की? चूंडावत सरदार ने कहा कि जब रोगी अंत समय में थोड़ा सा दूध मांगे तो उसको कैसे मना किया जा सकता है। हम ने मना नहीं किया। लेकिन सिहासन पर आप का भांजा प्रताप ही बैठेगा और मैं उसके साथ हूँ।

प्रताप मेवाड़ राज्य को छोड़कर जाने के लिए अपना घोड़ा तैयार कर रहे थे तभी चुंडावत कृष्ण जी ने उन्हें जाने से रोका। वह दरबार पहुंचे तथा जगमाल की बाहें पकड़कर सिहासन से उतारा। प्रकट में उसने कहा महाराज आपको कुछ भ्रम हो गया है। इस ऊंचे आसन पर बैठने का अधिकार आपके बड़े भाई प्रताप सिंह को ही है। इसके बाद प्रताप सिंह को सिंहासन पर बिठाया गया। जगमाल इसके बाद अकबर की शरण में चला गया जहां से उसे जागीर दी गई।

ज्ञात हो कि अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को कुंभलगढ़ में हुआ था। लेकिन राजस्थान का राजपूत समाज का एक बड़ा हिस्सा महाराणा प्रताप का जन्मदिन पंचांग के हिसाब से मनाता है क्योंकि सन 1540 में 9 मई के दिन ज्येष्ठ शुक्ल की तृतीया तिथि थी। इस हिसाब से साल 2021 में महाराणा प्रताप की 481वीं जयंती 13 जून 2021 को है।

प्रताप को मिल रहे समर्थन के कारण महाराणा प्रताप के नाम से संबोधित किया जाने लगा। धन और उज्जवल भविष्य उनके पास नहीं था लेकिन सरदारों ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जयमल के पुत्रों ने उनके काम के लिए अपना खून बहाया। फ़त्ता के वंशजों ने भी ऐसा ही किया तथा सलूंबर कुल के वीर सरदारों ने चुंडा की स्वामी भक्ति को फिर से जीवित किया। प्रताप ने इन सब का साथ सम्मान के साथ बनाए रखा।

चित्तौड़ की दशा को देखकर भट्ट कवि उस समय आभूषण रहित विधवा स्त्री की उपमा देते थे। प्रताप ने अपनी जन्म भूमि की इस दशा को देखकर विलासिता और भोग को पूरी तरह छोड़ दिया। भोजन के समय काम में लाए जाने वाले सोने चांदी के बर्तनों को त्यागा। पत्तल पर खाना शुरू किया। कोमल गद्दा और बिछावन को छोड़कर खरपतवार से बने बिछावन का उपयोग किया जाने लगा। यह भी तय कर दिया गया कि जब तक चित्तौड़ का उद्धार ना हो तब तक सिसोदिया राजपूतों को सभी सुख त्याग देने चाहिए।

प्रताप को अक्सर यह कहते हुए सुना जाता था कि यदि उदय सिंह पैदा ना होते या संग्राम सिंह और उनके बीच सिसोदिया वंश में कोई और नहीं होता तो राजस्थान पर तुर्क नियम लागू नहीं हो पाता। अपने कुछ अनुभवी और बुद्धिमान सरदारों की सहायता से प्रताप ने अपने सीमित साधनों को देखते हुए नया ढांचा निर्मित किया। कमलमीर (कुंभलगढ़) की सुरक्षा को मजबूत बनाया गया। गोगुंदा एवं अन्य पर्वतीय दुर्गों की मरम्मत की गई। मेवाड़ के समतल मैदान की रक्षा करने को मुश्किल जानकर महाराणा प्रताप ने उन क्षेत्रों को खाली कर दिया तथा मैदानी क्षेत्र के लोगों को पर्वतों में आश्रय लेने के लिए कहा गया। ऐसा नहीं करने वालों के लिए दंड की व्यवस्था की गई। कुछ ही दिनों में सिंचित क्षेत्र वीरान हो गए। मेवाड़ की सुंदर भूमि शमशान की तरह हो गई।

अकबर ने अजमेर को अपना केंद्र बनाकर मेवाड़ पर अभियान शुरू किया। मारवाड़ बीकानेर जैसे क्षेत्र अकबर के पक्ष में अपनी दुर्बलता तथा मजबूरी के कारण जा चुके थे। इस समय हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया और महाराणा की पराजय तो होनी ही थी क्योंकि केवल स्वाभिमान और दृढ़ इच्छा शक्ति के आधार पर युद्ध को नहीं जीता जा सकता है। (कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा की पराजय नहीं हुई थी।) प्रताप का परिवार संकट में आया। निरंतर यात्रा में सुरक्षा बनाए रखना भारी काम था। इस समय वे शत्रु के पंजे में परने वाले थे लेकिन कावा के स्वामी भक्त भीलों ने उन्हें बचाया। राणा के बच्चों को टोकरी में छुपा कर ले गए और इनके भोजन की व्यवस्था की।

महाराणा प्रताप इस तरह के जीवन से निराश हो रहे थे। उन्होंने तय किया कि चित्तौड़ और मेवाड़ को छोड़कर किसी दूरवर्ती क्षेत्र में केंद्र बनाया जाए, तैयारी शुरू की गई। सरदार भी उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गए। चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब उनके ह्रदय से जाती रही। पर्वतीय क्षेत्र को पार कर यह काफिला मरुस्थल में प्रवेश करने वाला था। अरावली घाटी की आखिरी सीमा पर आश्चर्यजनक घटना घटी। मेवाड़ के वृद्ध मंत्री भामाशाह ने अपने जीवन में काफी संपत्ति अर्जित की थी। उन्होंने अपनी संपूर्ण संपत्ति महाराणा को अर्पित करने की घोषणा की तथा मेवाड़ के उद्धार की भिक्षा मांगी। यह संपत्ति इतनी अधिक थी कि उसे 25 वर्षों तक 25000 सैनिकों का खर्च पूरा किया जा सकता था। यहां से महाराणा का पुनः विजय अभियान शुरू हुआ। मुगलों ने जमकर सामना किया पर वे परास्त होते गए। देवी नामक स्थान पर पहली महत्वपूर्ण विजय हुई। इसके उपरांत कमलमीर के दुर्ग पर विजय प्राप्त किया गया। इस तरह 32 दुर्गों पर महाराणा का अधिकार हो गया।

चित्तौड़ अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर संपूर्ण मेवाड़ पर महाराणा प्रताप ने पुनः अधिकार जमा लिया। उदयपुर पर भी महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। पहले की प्रतिज्ञा जारी रही। उदयपुर में पहुंचने के बाद महाराणा ने राज महलों को छोड़कर पिछोला तालाब के समीप अपने लिए झोपड़ियां बनवाएं ताकि वर्षा और सर्दी में आश्रय लिया जा सके। इन्हीं झोपड़ियों में महाराणा प्रताप ने अपना जीवन परिवार के साथ बिताया।

उनके जीवन का अंतिम समय आ रहा था. चित्तौड़ का उद्धार अभी तक नहीं किया जा सका था। महाराणा को अपने पुत्र अमर सिंह पर भरोसा नहीं होता था। महाराणा ने अपने सरदारों को कहा कि मेरा पुत्र अमर सिंह हमारे पूर्वजों के गौरव की रक्षा नहीं कर सकता। वह मुगलों क अधीन हो जाएगा क्योंकि वह विलासिता को नहीं छोड़ सकता है। महाराणा ने कहा इन झोपड़ियों के स्थान पर बड़े-बड़े रमणीक महल बनेंगे। मेवाड़ की दुरावस्था भूलकर अमर सिंह यहां पर अनेक प्रकार के भोग विलास करेगा। अमर के अभिलाषी होने पर मातृभूमि की स्वाधीनता जाती रहेगी जिसके लिए मैंने बराबर 25 वर्ष तक कष्ट उठाए, सभी तरह के सुख को छोड़ा।

समस्त सरदारों ने महाराणा को विश्वास दिलाया कि हम लोग बप्पा रावल के पवित्र सिंहासन की शपथ करते हैं कि जब तक हम में से कोई भी जीवित रहेगा मेवाड़ पर किसी का अधिकार नहीं होने देंगे। दुर्भाग्य से महाराणा प्रताप की विशेषताएं अमर सिंह में नहीं थी। मेवाड़ यादों में बसा है, महाराणा प्रताप को भूलना संभव नहीं क्योंकि पूरे सिसोदिया वंश में वह अकेले थे जीवन में संघर्ष करने वाले। उनके पिता उदय सिंह भी विलासी थे। उनके पुत्र अमर सिंह भी समझौतावादी थे। शायद यही कारण है कि महाराणा प्रताप भुलाए नहीं भूलते हम महाराणा की गाथा संघर्ष की गाथा।

आलेख

प्रो. ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह, प्राचार्य शासकीय महाविद्यालय, मैनपुर जिला गरियाबंद


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