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सशस्त्र क्राँति के नायक उय्यलावडा नरसिम्हा रेड्डी

अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 की सशस्त्र क्रान्ति के बारे सब जानते हैं। निसंदेह वह एक संगठित अभियान था पर इससे पहले भी स्थानीय स्तर पर अनेक सशस्त्र संघर्ष हुये हैं। इससे पहले ऐसा ही एक सशस्त्र आन्ध्र प्रदेश में हुआ था जिसके नायक थे नरसिंह रेड्डी। क्रांति से अंग्रेजी सेना में अधिकारी रहे थे। उनकी कमान में दो हजार सैनिक थे। लेकिन जब अंग्रेजों ने किसानों से जबरन बसूली आरंभ की तब उन्होंने विद्रोह कर दिया और अंग्रेजों से तीन किले छीनकर स्वतंत्र ध्वज फहरा दिया था।

ऐसे सशस्त्र क्रांति के नायक उय्यालवड़ा नरसिंह रेड्डी का जन्म आन्ध्रप्रदेश के कुर्नूल जिला अंतर्गत उय्यालवड़ा में 24 नवंबर 1806 को हुआ था । उय्यालवड़ा उनका जन्म स्थान था। इसलिये अपने नाम के आगे वे सदैव उय्यलावड़ा लगाते थे।

उनके परिवार की पृष्ठभूमि कृषि और सेना की रही थी। उनके पूर्वज पहले कृषि करते थे। समय के साथ परिवार की शिक्षा बढ़ी और दादा जयारामी रेड्डी एवं पिता उय्यलावडा पेडडामल्ला रेड्डी भी सेना में रहे थे। परिवार की सैन्य पृष्ठभूमि के कारण नरसिम्हा रेड्डी को सेना में उच्चपद मिला। उन्हें कदपा, अनंतपुर, बेल्लारी और कुर्नूल जैसे 66 गांवों में अंग्रेजी शासन का वर्चस्व बनाने की कमान सौंपी गई और उनकी सैन्य टुकड़ी को धन संग्रह का लक्ष्य देकर बलपूर्वक बसूली का काम सौंपा गया।

नरसिम्हा रेड्डी जी कृषकों से कर तो बसूलना चाहते थे। लेकिन बल पूर्वक नहीं। विशेषकर उन किसानों को राहत देना चाहते थे जिनकी फसल खराब हो गई। उन्होंने अपने उच्च अधिकारियों के सामने अपना पक्ष रखा पर बात न बनी। अंततः उन्होंने अपनी कमान के सैनिकों से विद्रोह का आव्हान किया। जो सहमत हो गये और 10 जून 1846 को उनकी कमान में एक सशस्त्र टुकड़ी ने कोइलकुंटला में खजाने पर हमला किया, खजाना लूटा और सूखा पीड़ित किसानों में धन बाँट दिया।

उसके बाद वे कंबम की ओर रवाना हुये जहाँ अंग्रेज अधिकारी को मारकर वह क्षेत्र को अंग्रेजों से मुक्त घोषित कर दिया। इस घटना को अंग्रेज सरकार ने गंभीरता से लिया और कैप्टन नॉट और कैप्टन वॉटसन की कमान में दो सैन्य टुकड़ियाँ नरसिम्हा रेड्डी को पकड़ने के लिये भेजी। लेकिन सफलता नहीं मिली।

सैन्य संचालन में दक्ष नरसिम्हा रेड्डी ने छापामार शैली अपनाई। वे अंग्रेज कैंप पर हमला करते और भाग जाते। उनकी इस छापामार शैली से आतंकित अंग्रेज सरकार ने उनपर नरसिम्हा रेड्डी की सूचना देने वाले को 5000 रुपये और सिर लाकर देने वाले को दस हजार रुपये का ईनाम देने की घोषणा की। ईनाम की इस राशि से ही यह अनुमान सहज लगाया जा सकता है कि क्राँतिकारी नरसिम्हा रेड्डी का अंग्रेजों पर कितना भय होगा।

अपने ऊपर ईनाम और अंग्रेजों की किसी कार्यवाही की बिना परवाह किये नरसिम्हा रेड्डी ने 23 जुलाई 1846 को गिद्दलूर में सेना के कैंप पर आक्रमण कर दिया। यह हमला इतना प्रबल था कि अंग्रेज सेना को कैंप छोड़कर भागना पड़ा। नरसिम्हा रेड्डी को यहाँ भारी मात्रा में हथियार और धन मिला। इससे उन्होने अपनी टुकड़ी में सैनिकों की संख्या बढ़ाकर तीन हजार कर कर ली।

जब उन्हें पकड़ने के लिये अंग्रेज सरकार के सभी प्रयास विफल हो गये तब अंग्रेजी सेना ने इनके पूरे परिवार और अनेक रिश्तेदारों को भी बंदी बना लिया। जब यह सूचना क्राँतिकारी नरसिम्हा रेड्डी को मिली तब नल्लामला वन क्षेत्र में थे। उन्होंने सेना के कैंप पर हमला करके परिवार जनों को मुक्त करने की योजना बनाई और नल्लामला वन क्षेत्र से कोइलकुंतला क्षेत्र आए।

इसके समीप ही रामबाधुनीपल्ले गांव में सैन्य छावनी थी जहाँ उनका परिवार बंदी था। नरसिम्हा रेड्डी ने इस गाँव के पास जगन्नाथ कोंडा गांव में अपनी एक टोली तैनात की और समय की प्रतिक्षा करने लगे। संभवतः यह अंग्रेजों की ही कूटनीति थी। उनका कोई भेदिया क्राँतिकारी नरसिम्हा रेड्डी की टोली में होगा। चूँकि जगन्नाथ कोंडा गाँव के आसपास सेना ने अपनी जमावट कर रखी थी।

अंग्रेज सेना ने रातों रात वह क्षेत्र घेरा और 6 अक्टूबर 1846 की रात में सोते समय उन्हें बन्दी बना लिया गया। उनके साथ अमानुषिक व्यवहार हुआ। अनेक प्रकार की शारीरिक यातनाएँ दीं गई। फिर जंजीरों में बाँधकर पूरे क्षेत्र में घुमाया गया। चौराहो पर खड़ा करके सबके सामने यातनाएँ दी जाती। अंग्रेज इन्हे प्रताड़ित करके अपना भय बनाना चाहते थे ताकि उस क्षेत्र में फिर कभी कोई विद्रोह का साहस न कर सके।

उनके साथ कुल 901 लोग बंदी बनाये गये थे। प्रताड़नाओं से कुछ लोग टूटे उन्होने वफादारी की सौगंध खाई ऐसे 412 लोगों को मुक्त दिया गया। अन्य को अलग-अलग दंड मिला। कुछ को अंडमान जेल में भेजा गया और कुछ अन्य जेलों में भेजे गये। यह सब कार्रवाई लगभग साढ़े तीन महीने चली। अंत में क्राँतिकारी नरसिम्हा रेड्डी को कुर्नूल जिला अंतर्गत जुर्रेती कोइलकुंटला में भारी भीड़ के सामने फांसी दी गई। वह 22 फ़रवरी 1847 का दिन था। वे भले दुनियाँ से चले गये । पर उस पूरे क्षेत्र में उनकी स्मृति एक लोक नायक के रूप में है।

आलेख

श्री रमेश शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल, मध्य प्रदेश

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