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बस्तर में शाक्त आस्था का केंद्र : माँ दंतेश्वरी

आज के समय में दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय हो गया है। यहाँ दंतेश्वरी मंदिर की अवस्थिति के कारण इसे एक धार्मिक पर्यटन नगर होने का गौरव प्राप्त है। राजा की कुल अधिष्टात्री देवी का क्षेत्र यहाँ होने के होने के कारण दंतेवाड़ा को रियासत काल में भी विशेष दर्जा प्राप्त था तथा यह एक माफी जागीर हुआ करती थी।

बस्तर में काकतीय/चालुक्य वंश के संस्थापक अन्नमदेव से तो दंतेश्वरी देवी की अनेक कथायें जुड़ी ही हुई हैं साथ ही अंतिम शासक महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव को भी देवी का अनन्य पुजारी माना जाता था। राजाओं के प्राश्रय के कारण दंतेवाड़ा लम्बे समय तक माफी जागीर रहा है। माफी जागीर अथवा मुकासा एक तरह से दान भूमि होती थी जो मंदिरों को या ब्राम्हणों को राजा से मिलती है।

दंतेश्वरी माता – दंतेवाड़ा

मुकासे सभी प्रकार के टैक्स से मुक्त हुआ करते थे। बड़ी माफी जागीर थी दंतेवाड़ा जिसके अंतर्गत कभी गुदेली, कुपेर, अलनार, गीदम, दूमम, चितालूर, भैरमबंद, कावलनार, दुगेली, तोयलंका, पूरन तरई, मुसलनार, चेरपाल, पाहुरनार, कुंदेली, चीता लंका, दंतेवाड़ा, भोगम, चोलनार, करली, हरम, भांसी, तुमनार, गामावाडा, कोपानार, कलेपाल, कटेकल्यान, कोदरी, तोंगपाल, बनियाँगाँव, सिमोडा, झारागाँव, सोनारपाल, डिलमिली, कुरुसपाल, मावलीगुडा, करंजी, दहीकोंगा और टोंड़रपाल गाँव आते थे।

दंतेश्वरी मंदिर को कतिपय विद्वान शक्तिपीठ मानते हैं। देवी पुराण में शक्ति पीठों की संख्या 51 बताई गई है जबकि तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। कुछ अन्य ग्रंथों में यह संख्या 108 तक बताई गई है। दन्तेवाड़ा को हालांकि देवी पुराण के 51 शक्ति पीठों में शामिल नहीं किया गया है लेकिन इसे देवी का 52 वां शक्ति पीठ माना जाता है।

मां दंतेश्वरी की महिमा अत्यंत प्राचीन धार्मिक कथा “शिव और सती” से जोड़ कर भी देखी जाती है। अपने पिता के द्वारा पति का अपमान किये जाने पर सती ने पिता के यज्ञ कुण्ड में कूद कर अपने प्राण दे दिये थे। कुपित भगवान शिव अपनी पत्नी सती का शव ले कर तांडव करने लगे। धरती पर देवी सती के अंग जहाँ जहाँ पर गिरे वहाँ देवी का शक्तिपीठ स्थापित है। यह प्रबल मान्यता है कि इसी स्थल पर देवी सती का दंत-खण्ड गिरा था।

माना जाता है कि अन्नमदेव, अपनी मनोभावना लिख कर दंतेश्वरी माँ को समर्पित करते थे। एक रात देवी प्रसन्न हो कर, प्रकट हो गयीं। वरदान माँगने के लिये कहा, अन्नमदेव, राजा बनना चाहते थे। यही माँग लिया।तय हुआ कि वे आगे आगे चलेंगे और देवी दंतेश्वरी पीछे आयेंगी। अन्नमदेव जहाँ तक पीछे मुड़ कर नहीं देखेंगे वहाँ तक उनका राज्य होगा।

अन्नमदेव बढ़ते गये। उनके कानों में देवी के पायल की आवाज पड़ रही थी। रास्ते में नदी आयी। नदी के मुहाने की रेत पर चलते हुए अन्नमदेव के पैर धँस रहे थे। एकाएक वो रुक गये। देवी के पायल की आवाज अब वे नहीं सुन पा रहे थे। वे कुछ कदम और आगे बढ़े, कान पीछे लगे हुए थे। पायल की आवाज नहीं आ रही थी। अन्नमदेव ने पीछे मुड़ कर देख लिया।

राजिम के पास देवी स्थित हो गयी और उनके राज्य की सीमा वहाँ तक हो गयी। नदी का नाम भी पैरी पड़ गया है। पैरी का मतलब पायल होता है। यही पैरी नदी कांकेर और बस्तर रियासत के बीच की सीमा है। ऐसी ही एक कथा को शंखिनी डंकिनी नदी के संगम के साथ जोड़ कर भी बताया जाता है जिसके किनारे ही माँ दंतेश्वरी का मंदिर अवस्थित है।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि ग्यारहवी शताब्दी में जब नागवंशी राजाओं ने गंगवंशी राजाओं पर अधिकार कर बारसूर को अपनी राजधानी बनाया, उन्हें पास के ही गाँव तारलापाल में स्थित देवी गुड़ी में अधिष्ठापित देवी की प्रसिद्धि ने आकर्षित किया।

नागवंशी राजा जगदेश भूषण धारावर्ष स्वयं देवी के दर्शन करने के लिये तारलापाल उपस्थित हुए तथा बाद में इसी स्थल पर उन्होंने अपनी कुल देवी मणिकेश्वरी की प्रतिमा को स्थापित कर मंदिर बनवाया और अपनी राजधानी को भी बारसूर से तारलापाल ले आये।

चौदहवी शताब्दी में काकतीय राजा अन्नमदेव ने जब नाग राजाओं को पराजित किया उन्होंने भी इस मंदिर में ही अपनी कुल देवी माँ दंतेश्वरी की मूर्ति स्थापित कर दी। कालांतर में तारलापाल का ही नाम बदल कर दंतेवाड़ा हो गया।

सिंह द्वार से भीतर प्रविष्ठ होते ही मंदिर के समक्ष एक खुला अहाता मौजूद है। माता के मंदिर के सामने ही एक भव्य गरुड़ स्तंभ स्थापित है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे बारसूर से ला कर यहाँ स्थापित कर दिया गया है। मंदिर सादगीपूर्ण है तथा बहुतायत हिस्सा आज भी काष्ठ निर्मित ही है।

मंदिर में माई जी की मूर्ति से अलग अधिकांश मूर्तियाँ नाग राजाओं के समय की हैं। द्वार से घुसते ही जो पहला कमरा है यहाँ दाहिने ओर एक चबूतरा बना है। रियासत काल में राजधानी जगदलपुर से राजा जब भी यहाँ आते तो वहीं बैठ कर पुजारी और प्रजा से बातचीत किया करते थे।

मंदिर का दूसरा कक्ष यद्यपि दीवारों की सादगी तथा किसी कलात्मक आकार के लिये नहीं पहचाना जाता किंतु यहाँ प्रवेश करते ही ठीक सामने भैरव बाबा, दोनो ओर द्वारपाल और यत्र-तत्र गणेश, शिव आदि देवों की अनेक पाषाण मूर्तियाँ स्थापित हैं। मंदिर के समक्ष तीसरे कक्ष में अनेक स्तम्भ निर्मित हैं, कुछ शिलालेख रखे हुए हैं, स्थान स्थान पर अनेक भव्य प्रतिमायें हैं साथ ही एक यंत्र भी स्थापित किया गया है।

इस स्थान से आगे किसी को भी पतलून पहन कर जाने की अनुमति नहीं है चूंकि आगे ही गर्भ-गुड़ी निर्मित है, जहाँ माता दंतेश्वरी विराजित हैं। दंतेवाड़ा में स्थापित माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी प्रतिमा काले ग्रेनाइट की निर्मित है। दंतेश्वरी माता की इस प्रतिमा की छह भुजाओं में से दाहिनी ओर के हाथों में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाईं ओर के हाँथों में में घंटी, पद्म और राक्षस के बाल हैं। यह प्रतिमा नक्काशीयुक्त है तथा इसके ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरुप बना हुआ है।

प्रतिमा को सर्वदा श्रंगारित कर रखा जाता है तथा दंतेश्वरी माता के सिर पर एक चांदी का छत्र भी स्थापित किया गया है। गर्भगृह से बाहर की ओर द्वार पर दो द्वारपाल दाएं-बाएं खड़े हैं जो चतुर्भुजी हैं। द्वारपालों के बायें हाथ में सर्प और दायें हाथ में गदा धारित है।

मंदिर की गर्भगुड़ी से पहले, उसकी बाई ओर विशाल गणेश प्रतिमा स्थापित है जिसके निकट ही एक द्वार बना हुआ है। इस ओर से आगे बढ़ने पर सामने मणिकेश्वरी देवी का मंदिर है। यहाँ अवस्थित प्राचीन प्रतिमा अष्ठभुजी है तथा अलंकृत है।

मंदिर के गर्भगृह में नव ग्रहों की प्रतिमायेंस्थापित है। साथ ही दीवारों पर नरसिंह, माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की प्रतिमायें हैं। मंदिर के पीछे की ओर चल कर माई जी की बगिया से आगे बढ़ते हुए शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम की ओर जाया जा सकता है।

आलेख

राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ लेखक

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