प्रथम अकादमिक सत्र : राम वनगमन मार्ग का भौगौलिक क्षेत्र
तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन दिनाँक 29-31 अगस्त, 2020के मध्य हुआ। इस वेबीनार का विषय छत्तीसगढ़ में (दक्षिण कोसल में) रामकथा की व्याप्ति एवं प्रभाव रहा है। लोक साहित्य में छत्तीसगढ़ की संस्कृति राम की भूमि के रूप में भी प्रसिद्ध है। इसका आयोजन गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय बिलासपुर, छत्तीसगढ़, अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या, उत्तर प्रदेश एवं सेंटर फॉर स्टडीज एंड हॉलिस्टिक डेवलपमेंट रायपुर छत्तीसगढ़ के संयुक्त तत्वाधान में संपन्न किया गया।
इस सेमिनार के उद्घाटन सत्र के पश्चात प्रथम अकादमिक सत्र का आयोजन किया गया जिसमें अध्यक्ष प्रोफ़सर वंश गोपाल सिंह जी रहे, जो पंडित सुंदरलाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, मुख्य वक्ता श्रीश मिश्र, पूर्व प्राचार्य, लमगाँव अम्बिकापुर, अतिथि वक्ता डॉ घनश्याम भारती सागर मध्यप्रदेश रहे। सत्र का संचालन श्री हेमंत पाणिग्रही जगदलपुर बस्तर ने किया
इसी दिन द्वितीय अकादमिक सत्र अपराहन 2:30 से 3:30 के मध्य छत्तीसगढ़ के स्थापत्य एवं मूर्तिकला में रामकथा पर संपन्न हुआ। जिसके सत्र के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर ब्योमकेश त्रिपाठी, कुलपति, उत्कल विश्वविद्यालय और संस्कृति भुवनेश्वर, उड़ीसा थे। जबकि इस सत्र के मुख्य वक्ता प्रोफेसर आर.एन. विश्वकर्मा जी, पूर्व विभागाध्यक्ष प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति, खैरागढ़, छत्तीसगढ़ रहे। अतिथि वक्ता प्रोफेसर अवनीश चंद्र मिश्रा, विभागाध्यक्ष, इतिहास डॉ0 शकुंतला मिश्रा, पुनर्वास विश्वविद्यालय, लखनऊ रहे। इस सत्र का संचालन डॉक्टर नितेश कुमार मिश्र जी, प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर ने किया।
प्रथम सत्र के मुख्य अतिथि प्रोफेसर वंश गोपाल सिंह जी ने कहा कि श्री ललित शर्मा जी के इस संगोष्ठी और इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रामायण छत्तीसगढ़ के सफल आयोजन को अयोध्या शोध संस्थान अयोध्या के निदेशक श्री योगेंद्र प्रसाद सिंह जी ने खूब सराहा है ।
डॉ घनश्याम भारती ने कहा कि रामायण के ऊपर मेरी 4 पुस्तकें प्रकाशित हो चुके हैं, जिसके द्वारा मुझे संपूर्ण देश में बुलाया जाता है। मेरी पुस्तक का लोकार्पण अयोध्या शोध संस्थान में ही हुआ है। जहां अनेक विद्वानों ने देखा और सराहा है।
बस्तर और कांकेर में राम का आगमन रहा है। भगवान राम का पृथ्वी पर अवतरण का उद्देश्य ही धर्म स्थापना रहा है। राक्षस, ऋषि-मुनियों को परेशान कर रहे थे। जिनके कारण उनके उद्धार के लिए, यज्ञ और धर्म की रक्षा के लिए, राम का प्रादुर्भाव हुआ।
राम का उद्भव, यहाँ शैलचित्रों में, गुफाओं में उकेरी कला में जानकारी मिलती है। 7-8 हजार साल पहले इन क्षेत्रों से गुजरे थे। भगवान राम का उद्देश्य वन गमन कर ॠषि मुनियों की राक्षसों से रक्षा करने था। दक्षिण कोसल के ऋषि- मुनि, राक्षसों से बहुत आतंकित थे। खर, दूषण और त्रिसरा ने ऋषि मुनियों पर बहुत से अत्याचार किया था। बार-बार उनके अत्याचारों से क्षेत्र के ऋषि-मुनि भयभीत थे। जिसकी रक्षा का भार वन गमन के दौरान भगवान राम ने उठाया था।
तब की भौगोलिक स्थिति अलग थी और आज की भौगोलिक स्थिति अलग है । नदियों ने मार्ग बदले, आवागमन के मार्ग बदला, जंगल ने अपना मार्ग बदला, लेकिन लोकमानस में उनकी यादें आज भी रची बसी हुई है। प्रयाग में ऋषि भारद्वाज का दर्शन कर उनकी आज्ञा से, राम चित्रकूट आते हैं। जहाँ आज सुंदर मंदिर बन चुका है, पर प्राचीन काल में यहाँ घने जंगल थे। अधिकांश वर्ष यही व्यतीत किए । भरत जी, राम से मिलने के लिए चित्रकूट आए। पर वह अयोध्या नहीं लौटे। भरत चाहते थे कि राम अयोध्या लौट जाए पर वह अयोध्या नहीं लौटे, क्योंकि उन्हें ऋषि-मुनियों को राक्षसों के अत्याचार से मुक्त कराना था। चित्रकूट से वह अत्रि ऋषि के आश्रम गए जहाँ माता अनुसूया से माता सीता को वस्त्र और आभूषण प्राप्त हुआ। यहाँ अयोध्या की ही तरह अनेक साक्ष्य हैं। यहाँ सीता रसोई है। फिर उन्होंने तुलसी दास रचित दोहा चौपाई के ज्ञान की भी उल्लेख किया।
अत्रि ऋषि के आश्रम से आगे शरभंग ऋषि का आश्रम है। वे वहाँ पहुंचे जहाँ ऋषि-मुनियों की हड्डियों को देखकर राम द्रवित हो प्रतिज्ञा करते हैं कि इस पृथ्वी से राक्षसों का नाश कर दूंगा । फिर सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम गए वहाँ से अगस्त जी के आश्रम गए फिर अगस्त मुनि से आज्ञा लेकर पंचवटी में आश्रम बनाते हैं। यहाँ से आगे खर और दूषण युद्ध होता है। शूर्पणखा की नाक काटी जाती है। सूर्पनखा ने रावण को सूचना दी। सीता हरण होता है। लंका कहाँ है किसी को पता नहीं था। यहाँ रामायण में नारी प्रधान चित्रण है। पहले शूर्पणखा फिर सीता, जिसके माध्यम से रामायण नारीप्रधान चरितार्थ होता है।
उसके आगे पंपापुर आते हैं। पंपापुर में भक्तिनि शबरी रहती थीं। उस समय छुआछूत की भावना प्रबल थी। उस समय शबरी माता के झूठे बेर खा कर उस अवधारणा को राम ने तोड़ा।
वाल्मीकि का ग्रंथ ज्यादा नहीं पढ़ा जाता है। रामचरितमानस को लोग ज्यादा से ज्यादा पढ़ते हैं। जिनके नाम से इस क्षेत्र को ज्यादा मान्यता मिली। यहाँ किंधा पर्वत भी मिलता है। छत्तीसगढ़ के स्थल जिसका उल्लेख तुलसीदास जी रचित रामचरितमानस के प्रसंग अनुसार यहाँ के स्थलों की मान्यता बढ़ती चली गई।
उसके बाद सत्र संचालक ने मुख्य वक्ता श्रीश मिश्राजी को आमंत्रित किया। श्रीश मिश्राजी ने रामगढ़ पर आधारित वीडियो दिखाने कहा पर तकनीकि खराबी के कारण वीडियो अपलोड नहीं हुआ।
उन्होंने कहा कि राम का काल को अलग-अलग विद्वानों के द्वारा अलग-अलग बताया जाता है। कुछ विद्वान उनका काल को 500 वर्ष का मानते हैं, कुछ 5000 वर्ष का मानते हैं, कुछ लोग 580000 वर्ष पुराने मानते हैं। परंतु काल यहाँ पर मायने नहीं रखता है। राम का चरित्र ऐसा है कि वह हर कालखंड में रच बस जाता है। लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि उस समय अयोध्या के राजा दशरथ थे। जिन्होंने अधिकांश राज्यों को और उनके राजाओं को जीता था। दक्षिण कोसल की सीमा भी समय-समय पर बदलती रही है । रामायण काल में दक्षिण कोसल की सीमा वर्तमान छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र और झारखंड के कुछ हिस्से से मिलकर बना हुआ था। दंडकारण्य का नाम भी राजा दंड के कारण पड़ा। यहाँ की सीमा 1227 किलोमीटर से 1300 किलोमीटर, 70 योजन से 28 योजन तक राज्य की सीमा थी ।(अयोध्या कांड 107/17)
ऋषि मुनि का आश्रम, दक्षिण कोसल का प्रवेश द्वार था। (अयोध्या कांड 17/28) कुछ लोग दंडक राक्षस के कारण इस क्षेत्र का नाम दण्डकारण्य बताते हैं, तो कुछ लोग शूर्पणखा के नाक कान काट कर उन्हें दंडित किए, इस वजह से दंडकारण्य नाम देते हैं । महर्षि वाल्मीकि ने दंडकारण्य और जनस्थान को विभिन्न श्लोकों के उदाहरण देकर अलग-अलग बताया है। दंडकारण्य में कोई नगर और गाँव नहीं था। अगर था तो केवल ऋषि-मुनियों का आश्रम। इसी कारण राक्षस यहाँ निर्भय होकर विचरण करते थे। (अयोध्या कांड 45/27)
श्रृंग्वेरपुर कोसल राज्य के अंतर्गत था अयोध्या से यहाँ की दूरी 100 किलोमीटर है। उस क्षेत्र को आज प्रयाग कहते हैं। सतना जिले के चित्रकूट से 20 किलोमीटर दूर शरभंग मुनि का आश्रम था। जो वर्तमान में लगभग 55 किलोमीटर है। समय-समय पर भूगोल बदलता रहा है। इसलिए तब के समय और आज काल के समय में व्यापक अंतर है। आदि बातें करते हुए उन्होंने अपनी वाणी को विश्राम दिया।
इसके बाद फिर वंश गोपाल जी ने श्रीश मिश्रा जी के उद्बोधन के लिए उनको धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा कि मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के एक गाँव में हुआ था। जहाँ राम का एक मंदिर है । वहाँ से राम भक्ति का प्रेम हुआ। मेरा अधिकांश समय छत्तीसगढ़ में गुजरा है इसलिए दोनों का अंतर समझ पाता हूँ। दक्षिण कोसल की अरण्य की कथा, संघर्ष की कथा है जहाँ वह मर्यादा पुरुषोत्तम बने। भगवान राम ने छत्तीसगढ़ को अपने पैरों से नापा था। यहाँ चंद्रखुरी में माता कौसल्या का जन्म स्थान है। यहाँ उन्होंने 13 चौमासा बिताया है। भगवान राम यहाँ के भाँचा भगवान हैं। यहाँ की भक्ति उत्तर भारत की भक्ति से अलग है। यहाँ सभी जगह जाने का मौका उन्हें मिला। मुझे भी मिला। कांकेर गया हूँ, जहाँ ऋषि मुनि का आश्रम है। मैंने नारायणपुर में राक्षसों की हड्डी को भी देखा है। बारसुर से दंतेवाड़ा गया। आज स्वरूप बदल गया है पर निश्चित ही राम वहाँ आए थे। सुकमा के मेले में सब आते हैं। वहाँ से घुम-बैठकर सभी निकल जाते हैं। सरगुजा के रामगढ़ में भगवान राम का अस्तित्व सभी मानते हैं। शिवरीनारायण में नारायण कुंड में ऊँचाई होने पर भी जल होता है। राजिम में नदी के बीचो-बीच कुलेश्वर महादेव का मंदिर है। दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) के बारे में उत्तर रामायण काल के उसी की चर्चा होती है। बिलासपुर जिले में कोसला ग्राम को, कौसल्या का जन्म स्थान मानते हैं। भानुमंत की राजधानी उसी को मानते हैं।
इसके बाद सत्र के संचालक ने सभी वक्ताओं का धन्यवाद देते हुए आभार प्रदर्शन किया और प्रथम अकादमिक सत्र की समाप्ति की घोषणा की।
द्वितीय अकादमिक सत्र : छत्तीसगढ़ के स्थापत्य एवं मूर्तिकला में रामकथा
द्वितीय अकादमिक सत्र अपरान्ह 2:30 से 3:30 के मध्य छत्तीसगढ़ के स्थापत्य एवं मूर्तिकला में रामकथा पर संपन्न हुआ। जिसके सत्राध्यक्ष प्रोफ़ेसर ब्योमकेश त्रिपाठी कुलपति उत्कल यूनिवर्सिटी आफ कल्चर,भुवनेश्वर उड़ीसा थे। जबकि इस सत्र के मुख्य वक्ता प्रोफेसर आर. एन. विश्वकर्मा जी पूर्व विभागाध्यक्ष प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति खैरागढ़ छत्तीसगढ़ रहे। अतिथि वक्ता प्रोफेसर अवनीश चंद्र मिश्राजी, विभागाध्यक्ष, इतिहास ,डॉ. शकुंतला मिश्रा, पुनर्वास विश्वविद्यालय, लखनऊ रहे इस सत्र का संचालन डॉक्टर नितेश कुमार मिश्र , प्राचीन इतिहास विभाग, पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर ने किया।
कार्यक्रम संचालक नितेश मिश्रा जी ने अध्यक्ष ब्योमकेश त्रिपाठी जी से अनुमति मांग कर सत्र प्रारंभ किया। उन्होंने अतिथि वक्ता प्रोफ़ेसर अवनीश चंद्र मिस्र जी को अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित किया । उन्होंने अतिथियों के संबोधन के पश्चात कहा कि संगोष्ठी के विषय पर काफी दिनों से चर्चा चल रही थी। इस विषय पर दूसरे विद्वानों के द्वारा भी विचार रखे जाएंगे। अब आपने जो मुझे जिस विषय पर विचार रखने को कहा है, वह मेरे संपूर्ण विषय को नहीं छूता है, पर राम कथा की व्यापकता, कथा, साहित्य और लोक मानस को गंगा की धारा की तरह पवित्र करती आ रही है । पर मैं मुख्य रूप से जटायु पर अपना विचार रखूँगा। जटायु पर विशेष रूप से इसलिए क्योंकि उनका चरित्र मेरे मन को छूता है।
जटायु की पहली भेंट दंडकारण्य में वनवास के दौरान भगवान राम से हुई थी। वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस में राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में बताया गया है। उनके राज्य में सुख, शांति और आदर्श का अनोखा संगम था। ऐसे राज्य जिसमें तीन प्रकार के सुख आधिभौतिक, आधिदैविक और अध्यात्मिक, तीनों ही प्रकार के सुख यहाँ थे। आधिदैविक ताप का आधिभौतिक ताप नहीं होते हैं। उसकी अवधारणा किसी भी एक अच्छे राज्य के लिए अवधारणा हो सकती हैं। राम को पूर्णतः उपनिषदों के आधार बताया गया है। वह इस वन में रमण करने वाले थे। वह किसी का भू-भाग हरने वाले नहीं। किसी भी जाति और प्रदेश में रहने वाले के लिए सुकृति दिखती है । वह किसी राज्य को हड़पना नहीं चाहता था। इसके लिए वह भारत के बाहर भी स्वीकार्य है। उन्होंने सनातन मूल्यों की स्थापना की। जनमानस को उच्चतम लक्ष्य दिया, उत्तम मूल्यों की स्थापना की। राम का रामायण आदर्श है। जटायु के चरित्र पर आपने विशेष रूप से प्रकाश डाला। उन्होंने जटायु के चरित्र को महाभारत के पात्र भीष्म के समक्ष रखकर तुलना की।
एक तरफ महाभारत के भीष्म सर्वशक्ति संपन्न होते हुए भी मौन थे,जबकि दूसरी तरफ साधारण जटायु जिसकी भेंट राम से दंडकारण्य में होती है, जिसका वाल्मीकि ने चौथे चरण में उल्लेख किया है। स्त्री के चरित्र की रक्षा के लिए जहाँ सर्व संपन्न शांतनु पुत्र भीष्म, गंगा पुत्र भीष्म मौन दिखते हैं। असहाय उनका व्यवहार लगता है। वहीं दूसरी तरफ उसी स्त्री की रक्षा के लिए, उसके अस्तित्व की रक्षा के लिए, जटायु जैसे साधारण पक्षी ने प्रखर प्रतिकार किया। शक्ति संपन्न रावण से टकरा गए। शक्ति संपन्न होते हुए जहाँ भीष्म असहाय दिखते हैं, वही वृद्ध जटायु निर्बल होते हुए भी, एक स्त्री की रक्षा के लिए, अपने अंतिम दान तक देने के लिए, सर्वशक्तिमान रावण से भीड़ जाते हैं। यही तो रामायण की विशेषता है। जटायु सीता की रक्षा के लिए, रावण को पहले समझाते हैं नहीं मानने पर आक्रमण कर देते हैं। भीष्म शक्ति संपन्न होते हुए धर्म में पड़कर, मौन रहते हैं। जबकि जटायु प्राणोत्सर्ग कर देते हैं। इसलिए भीष्म अपनी चेतना में रोज मरते हुए दिखते है और जटायु केवल एक बार मरते हैं। जिससे उसे यश मिलता है। जटायु एक पक्षी होने के बाद ही स्त्री चित्कार सुनकर प्रतिकार करने दौड़ जाते हैं, जबकि भीष्म खड़ा रह जाते हैं। यहाँ त्वरित निर्णय लेकर जटायु, परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं जबकि धर्म में बंधकर भीष्म मौन रहकर, अनुतीर्ण हो जाते हैं। यह परिवेश में रहने का परिणाम है।
जटायु परमात्मा के प्रेम में अर्जित पुण्य के मूल्यांकन में उचित-अनुचित के निर्णय लेकर जटायु उत्तीर्ण हो जाते हैं। इसीलिए जब भगवान राम उस समय कृष्णरूप में शांति दूत बनकर सभा में आने पर भीष्म की ओर देखते तक नहीं जबकि राम जटायु को गले लगा लेते हैं, जो सुख दशरथ को नहीं मिला था। जहाँ मन में मानवीय संवेदनाओं का सम्मान है, नीति और धर्म के लिए जटायु ने अपने प्राणों तक का मोह नहीं किया। आत्मशक्ति, शारीरिक शक्ति से बड़ी है। अन्याय और अनीति के विरुद्ध खड़े रहना, यह राम का संदेश है। दुर्जन शक्ति के संहार के लिए राम का जन्म हुआ। जटायु का जन्म हुआ मानवीय संवेदनाओं का सम्मान के लिए। यही राम में, तो यही जटायु में भी दिखता है। राजनीतिक शक्ति और शारीरिक शक्ति, अन्याय और अनीति के विरुद्ध खड़े रखना, सर्वस्व लुटा कर अधर्मी का प्रतिकार करना, रामायण का मार्ग है, जटायु का मार्ग है। भारत का सार है। गीता का सार है। यह सत्र कला का सत्र है। जिस पर विद्वान अभी चर्चा करेंगे। छठवीं-सातवीं शताब्दी से लेकर वर्तमान तक, कला की भिन्न रूपों में बातें कह कर उन्होंने नितेश जी को आगे की संचालन के लिए वाणी को विराम दिया।
कार्यक्रम संचालक श्री नितेश जी ने मुख्य वक्ता आर.एन. विश्वकर्मा जी को अपनी बात रखने के लिए मंच प्रदान किया। श्री विश्वकर्मा जी ने सत्र के सभी अतिथियों का धन्यवाद संबोधन करने के बाद कहा कि यह बड़ा सौभाग्य की बात है राम के चार पिढ़ियों का संबंध दक्षिण कोसल से रहा है। कौसल्या, उनके पिता भानुमंत और उनके पुत्र राम और राज के पुत्र लव- कुश। चार पीढियों का संबंध है।
छत्तीसगढ़ ऋषि-मुनियों को प्रदेश रहा है। जैसा कि हम जानते हैं कि तुरतुरिया में वाल्मीकि का आश्रम था। जहाँ लव और कुश का जन्म हुआ। चंद्रखुरी में माता कौसल्या का जन्म स्थान है। जहां पर उनका भव्य मंदिर है। शिवरीनारायण में शबरी का आश्रम था। खर और दूषण की नगरी यहाँ है। राम की व्यापकता छत्तीसगढ़ में प्रत्यक्ष रूप में निवास था। इस तरह देखते-देखते ही छत्तीसगढ़ में राम, राम की बातें, वाचिक परंपरा, रीति-रिवाजों में, रामकथा की व्याप्ति दिखाई देती है। साहित्य में सभी का लेखन होता है। कला और शिल्पी तथा समाज का एक अंग होता है। जिसे छीनी और हथौड़ी के माध्यम से शिल्पी अपनी भावनाओं को प्रकट करता है। दक्षिण कोसल में रामकथा अनेक मंदिरों में व्याप्त हैं। सिरपुर का राम मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, खरौद का लक्ष्मण मंदिर, देवरबीजा का राम मंदिर, बालोद आदि मंदिर के अलावा यहाँ की दो गुफाओं, खास करके रामगढ़ की सीता बेंगरा और लक्ष्मण बेंगरा का, सीधा संबंध राम की कथा से रही है । रामकथा की अनेकानेक प्रसंग यहाँ के अनेक मंदिरों में व्याप्त हैं ।
पहले राजनांदगाँव के गंडई स्थित मंदिर के बाईं जंघा में रामायण और दाहिनी जंघा में महाभारत की कथा प्रसंग है। छत्तीसगढ़ की छःमासी रात की कहानी, अनेक मंदिरों में देखने को मिलती है। राम, लक्ष्मण, हनुमान की मित्रता, बाली-सुग्रीव युद्ध इस घटना का सर्वाधिक उदाहरण शिल्प कला में देखने को मिलता है। वही शूर्पनखा का प्रणय निवेदन, सीता का अशोक वाटिका में सामने प्रकट रूप में हनुमान। सीता-हनुमान की दो बार श्रीलंका में भेंट, पहली मुद्रिका भेंट के दौरान और दूसरी विदाई के समय चूड़ामणि ग्रहण के समय का आता है। पर यहाँ जो वार्ता शिल्पांकन में चल रही है इसमें राम का हाल बताते हुए से प्रतीत होता है। घटियारी शिव मंदिर में अशोक वृक्ष के नीचे सीता बैठी है, जिसके सम्मुख हनुमान है। यह प्रतिमा अभी राजनांदगाँव के संग्रहालय में विद्यमान हैं। डीपाडीह से प्राप्त कार्तिकेय प्रतिमा के पीछे बाली- सुग्रीव युद्ध तथा तारा और रोमा को दिखाया गया है। इसमें बाली और सुग्रीव को लड़ते देखकर तारा और रोमा चिंतित दिखाई दे रही हैं।
जांजगीर के विष्णु मंदिर में नवीन प्रयोग किया गया है। यहाँ मंदिर 3 फीट ऊँची जगती पर स्थित है । इसी मंदिर के सीढ़ी के बाई तरफ 5 फलक हैं। पहले फलक में मृग फलक है । दूसरे में रावण को भिक्षा मांगते हुए दिखाया गया है । रावण, सीता को उठा कर ले जा रहा है। तीसरे में राम द्वारा ताल पेड़ के सात वृक्षों को भेदन और आड़ में धनुषधारी राम को बाली वध के लिए तैयार होते हुए दिखाया गया है। चौथे फलक में सेतुबंध बांधते हुए वानर सेना दिखाए गए हैं। पाँचवे फलक में रावण और बाणासुर युद्ध को सीढ़ी के दाएं तरफ में दिखाया गया है।
इसी तरह रतनपुर के किले के मुख्य द्वार के इस खंड में रावण की अद्भुत प्रतिभा है। यहाँ रावण अपने नौ सिरों को काटकर शिव को चढ़ चुका है। रावण यहाँ केवल एक सिर में दिखाई दे रहा है।
इसी तरह रायपुर जिले के चंद्रखुरी के शिव मंदिर के सिर दल पर ललाट बिम्ब पर गजलक्ष्मी के बगल में राम, लक्ष्मण द्वारा सुग्रीव को बाली से लड़ने के लिए तैयार करते हुए दिखाया गया है। दूसरे में बाली सुग्रीव खड़े हुए हैं, तीसरे में दोनों को लड़ते हुए, चौथे में तारा को रोते हुए, पांचवें में पंडितों द्वारा सुग्रीव को सिंहासन पर बिठाते हुए तथा एक स्त्री को हार लेकर खड़ी हुई दिखाया गया है।
इसी तरह खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के मंडप के 20 स्तंभों पर रामकथा का अंकन है। यहाँ रावण विग्रह शिव सहित हिमालय के उठाने का अंकन, रावण को रुदन करते हुए दिखाया गया है । यहाँ रावण के दसवें सिर को गधे का सिर दिखाया गया है। बाली -सुग्रीव युद्ध, राम तीर लिए हुए खड़े दिखाई दे रहे हैं। राम ,सुग्रीव और हनुमान भेंट, रावण द्वारा पंचवटी में सीता हरण का अंकन, अशोक वाटिका में सीता हनुमान वार्तालाप, राम, सीता और लक्ष्मण का अंकन अद्भुत है।
इसी तरह मल्हार में मौर्य, सातवाहन, सोमवंशी और कलचुरियों का शासन रहा है । यहाँ अष्टकोणीय फलक में बाली-सुग्रीव युद्ध, दूसरा बाली वध, तारा विलाप में बाली का एक हाथ छाती और पेट पर है। सहसपुर में बजरंगबली के मंदिर में दो फलक हैं। पहला राम, लक्ष्मण से सुग्रीव का मिलाप और दूसरा में बाली- सुग्रीव युद्ध का है।
रायपुर के दूधाधारी मंदिर के जंघा भाग में राम बरात, सीता पालकी, राम द्वारा मारीच वध, शूर्पणखा का नाक-कान काटने के शिल्प, रावण द्वारा भिक्षा मांगना, जटायु-वध, सीताहरण पश्चात सीता की खोज ,जामवंत द्वारा सुग्रीव वार्ता, बाली-सुग्रीव युद्ध, रावण सिर 20 भुजी सिंहासन पर आरूढ़, राम-दरबार, राम-रावण युद्ध, ये सारे शिल्पांकन 16वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के मध्य के हैं। रायपुर क्षेत्र में भी मंदिर के जंघा-भाग में राम द्वारा मारीच वध, राम-सुग्रीव भेंट, श्री राम दरबार, रावण-मंदोदरी को आपस में आमने-सामने खड़े हुए दिखाने का अंकन है ।
छत्तीसगढ़ के लगभग 12 मंदिरों में रामकथा का अंकन है। शिल्पी द्वारा राम चरित्र का अंकन किया गया है। मंदिर के धड़, जंघाभाग, कुछ जगह सीढी के पास तो कुछ जगह स्वतंत्र रूप से रामकथा से संबंधित शिल्पकला का अंकन है। दक्षिण भारत के कुछ मंदिरों को छोड़ दिया जाए तो इतना अंकन भारत के और मंदिरों में नहीं दिखाई देता है । हमें गर्व है कि इस तरह की धरोहर छत्तीसगढ़ में दिखाई देती है। जो वाचिक परंपरा है, वह शिल्प कला में भी दिखाई देती है।
इसके बाद सत्र के संचालक नितेश मिश्रा ने अध्यक्षीय उद्बोधन के लिए ब्योमकेश त्रिपाठी जी को आमंत्रित किया
गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, ललित शर्मा एवं नितेश मिश्रा जी को बधाई देकर उन्होंने कहा कि जिस प्रकार समुद्र मंथन कर अमृत निकाला गया था। उसी प्रकार इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रामायण, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और इससे जुड़े हुए सी एस एच डी के द्वारा किए जा रहे रामकथा मंथन से जुड़कर मुझे खुशी हो रही है। उन्होंने वक्ताओं को बधाई देते हुए कहा कि बहुत से बच्चे नहीं जानते कि दक्षिण कोसल है क्या? रायपुर, बिलासपुर संबलपुर आदि मिलकर दक्षिण कोसल बनता है।
सांची और भरहुत में रामायण का सर्वप्रथम चित्र मिलता है । जिसमें कथानक का अंकन है। बौद्धजातकों में श्रृंगी ऋषि का जातक कथाओं में पता चलता है। दशरथ जातक की कथा सांची में पता चलती है । मध्य भारत में गुप्तकालीन नचना कुठारा में रामकथा दिखती है । विश्वकर्मा जी के अनुसार रामायण कथानक की शिल्प कला जो छत्तीसगढ़ के मंदिरों और स्थापत्य खंडों में देखने को मिलती है, उसे नए बच्चों को ढूंढना चाहिए।
दशावतार में राम का अंकन मिलता है। मेरी जानकारी में उड़ीसा में 80 से 120 मंदिरों में राम कथा संबंधित शिल्प कला दिखाई पड़ती है। वेस्टर्न उड़ीसा में 16वीं शताब्दी में रामाधीन मंदिरों की स्थापत्य में देखने को मिलता है।
मंदिर में राम, सीता और लक्ष्मण का अंकन है । छत्तीसगढ़ के सिक्कों में राम का अंकन नहीं मिलता है। हनुमान का अंकन मिलता है । दो शासकों तेलुगु चोल और पांडुवंशीय अभिलेखों में, सोनपुर को पश्चिम लंका, कॉपर प्लेट में कहा गया है जो कहीं न कहीं श्रीलंका से जुड़ा है। इसीलिए प्रोफेसर सांकल्या ने यहाँ उत्खनन किया। इससे पता चलता है कि सोनपुर क्षेत्र में हनुमान की मूर्ति बनाई जाती थी। उड़ीसा के सोनपुर क्षेत्र में हनुमान मूर्ति बनाकर उसमें आग लगाया जाती है। यहाँ यूनिक ट्रेडिशन इस क्षेत्र में देखने को मिलता है। इसके माध्यम से वह लंका में हनुमान जी के द्वारा लंका दहन किये जाने की प्रतीकात्मक परंपरा को मानते हैं।
पश्चिम उड़ीसा में राम, सीता और लक्ष्मण एक साथ दिखाई देते हैं। कोस्टल उड़ीसा में छठी से दसवीं शताब्दी तक महानदी क्षेत्र में लेखन हुए हैं। विष्णु के दशावतार 10-12 जगहों पर मिलता है। जिस में राम का अंकन मिलता है ।
2011 के एक सर्वे में पता चला कि 3326 गाँव का नाम राम के नाम पर है। इन नामों के आधार पर पता चलता है कि राम कितने पॉपुलर थे। पश्चिमी उड़ीसा में दो ब्राह्मण समुदाय हैं। जिसमें एक रघुनथिया ब्राम्हण हैं जो कथा अनुसार राम वन आए थे, तब जनजाति राम के नाम से रघुनथिया ब्राम्हण बन गए। दूसरा कुलता जाति के लोग राम की पूजा अधिक करते हैं। वे लोग मिथिला से आए हुए मानते हैं। समाज को आज के विषय में भी देखना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने बहुत सी बातों पर प्रकाश डालने के बाद पहले दिन की अकादमिक सत्र की समापन की घोषणा सबका धन्यवाद और आभार प्रकट करते हुए की गई।
सत्र रिपोर्ट