भारतवर्ष की सांस्कृतिक चेतना प्रारंभ से ही मातृ शक्ति के प्रति श्रद्धा, सम्मान, अर्चन और वंदन के भाव से समर्पित रही है। इस समस्त संसार में एकमात्र हमारा ही देश है जहां स्त्री को जगत जननी मानकर उसकी पूजा की जाती है। सदियों से इस पवित्र भूमि पर “ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ” की परम्परा रही है। इसी चेतना के भव्य और विराट स्वरूप की अभिव्यक्ति है नवरात्र उत्सव। हमारे यहां कहा जाता है कि शक्ति के बिना ‘शिव भी शव’ हैं। नवरात्रि उसी दिव्य शक्ति की आराधना का पर्व है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माता सती के अंग और आभूषण जहां भी गिरे, वह स्थल शक्ति पीठ कहलाए। यह पवित्र शक्ति पीठ पूरे भारतीय उप महाद्वीप पर स्थापित हैं। देवी पुराण में 51 शक्ति पीठों का वर्णन है। देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्ति पीठों का वर्णन मिलता है, वहीं तंत्र चूड़ामणि में 52 शक्ति पीठ बताए गए हैं। वर्तमान में भारत में 42, पाकिस्तान में 1, बांग्लादेश में 4, श्रीलंका में 1, तिब्बत में 1 तथा नेपाल में 2 शक्ति पीठ हैं।
विंध्याचल : एक जाग्रत शक्ति पीठ
इन तमाम शक्ति पीठों में उत्तर प्रदेश के जनपद मिर्ज़ापुर में, माँ गंगा की निर्मल धाराओं के समीप विंध्य पर्वत पर स्थित विंध्याचल धाम ही एकमात्र ऐसा शक्ति पीठ है जो जाग्रत है। यहां देवी के कोई अंग अथवा वस्त्राभूषण नहीं गिरे अपितु यहां साक्षात जगत जननी आदिशक्ति माँ विंध्यवासिनी अपने पूर्ण स्वरूप में विराजती हैं। यही कारण है कि इसे सिद्ध पीठ और मणिपीठ भी कहा जाता है। पुराणों में विंध्य क्षेत्र का महत्व तपोभूमि के रूप में वर्णित है। वन, पर्वत, नदी, तालाब, जल प्रपात आदि से सुसज्जित यह क्षेत्र प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही आध्यात्मिक चेतना का भी केन्द्र रहा है। यहां के घनघोर वन, गुफा – कंदराओं में आज भी अनेक साधक तपस्यालीन हैं। ऐसी मान्यता है कि सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता।
गुरु शिष्य परम्परा का संवाहक : विंध्य पर्वत
महेंद्र, मलय, सह्य, शक्तिमान, ऋक्ष, विंध्य और परियात्र, इन सप्त पर्वत श्रृंखला को भारतवर्ष में पुण्य क्षेत्र माना गया है। इन पर्वतों में विंध्य पर्वत का अपना विशेष स्थान है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार विंध्य और हिमालय पर्वत में बड़े होने की होड़ लगी। अहंकार ग्रस्त विंध्य पर्वत इतना विशालकाय होता गया कि सूर्य की किरणें धरती पर अवरुद्ध हो गई। इस संकटकाल में सभी ने विंध्य के गुरु महर्षि अगस्त्य से प्रार्थना की। अपने गुरु को समक्ष पाकर विंध्य पर्वत ने उन्हें साष्टाङ्गं दण्डवत् प्रणाम किया। अगस्त्य मुनि अपने लौटने तक उसे उसी अवस्था में रहने की आज्ञा देकर दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए और कभी नहीं लौटे। यही कारण है कि आज भी अपने गुरु की प्रतीक्षा में विंध्य पर्वत झुका हुआ है। यदि इस पूरे प्रकरण का वैज्ञानिक संदर्भ देखा जाए तो भी इसकी सत्यता प्रमाणित होती है। विज्ञान कहता है कि विश्व भर के प्रत्येक पर्वत की ऊंचाई प्रतिवर्ष बढ़ती है परन्तु विंध्य पर्वत कभी नहीं बढ़ता। संभवतः यह उसकी गुरु भक्ति का ही फल था कि साक्षात माँ भवानी ने उसे अपना धाम बनाया।
श्रीकृष्ण की बहन : माँ विंध्यवासिनी
माँ विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का शास्त्रों में अलग-अलग वर्णन मिलता है। शिव पुराण में माँ विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो वहीं श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी कहा गया है। माँ के अन्य नाम कृष्णानुजा, योगमाया, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं। जब अत्याचारी कंस से अपने नन्हें बालक कन्हैया की रक्षा हेतु वासुदेव अपने मित्र नंद बाबा के यहां गए तब यशोदा मैया के घर पुत्री जन्मी थीं। नन्हीं बालिका को लेकर जब वासुदेव लौटे और दुष्ट कंस ने उस नवजात बच्ची की हत्या करने हेतु उसे ऊपर उठाया तब, योगमाया अपने वास्तविक स्वरूप में प्रगट होकर आकाशवाणी करती हैं कि हे कंस! तू मेरी हत्या क्या करेगा! तुझे मारने वाला जन्म ले चुका है। तत्पश्चात देवी अपने धाम विंध्याचल लौट जाती हैं। पुराणों में वर्णित, “ नंदगोप गृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा, तत्स्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलवासिनी ” प्रस्तुत कथा की प्रामाणिकता की पुष्टि करता है।
त्रिकोण यात्रा का महत्व :
धर्म नगरी काशी और तीर्थराज प्रयाग के मध्य स्थित विंध्याचल धाम महाशक्ति पीठ के रूप में इसलिए भी विश्वविख्यात है क्योंकि यहां माँ जगदम्बे तीन रूपों में विराजमान हैं। श्री यंत्र की अधिष्ठात्री देवी विंध्यवासिनी, मुख्य मन्दिर से कुछ दूरी पर काली खोह में रक्तबीज का संहार करने वाली महाकाली और अष्टभुजा में माता सरस्वती के रूप में इस पुण्य क्षेत्र में माँ अम्बे भक्तों को दर्शन देती हैं। मान्यता है कि जब तक भक्तगण इस त्रिकोण यात्रा को पूर्ण नहीं करते तब तक माता का दर्शन अधूरा है।
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