बाँस से व्यक्ति का प्रथम परिचय सुर के साथ होता है तथा जब सुर की बात हो तो कृष्ण की बांसूरी आँखों के सामने दिखाई देने लगती है। इसकी मधुर धुन मन को मोहित कर लेती है। इस सुरीले पौधे का दैनिक जीवन में अत्यधिक महत्व एवं मानव मन को वश में करने का गुण भी है।
बाँस बहुपयोगी घास है, शायद ही ऐसा कोई घर होगा जिसमें बांस का उपयोग किसी न किसी रुप में नहीं किया जाता होगा। आदिम मानव से लेकर आज तक बांस का उपयोग हमारे समाज में निरंतर जारी है। व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यू तक बाँस साथ निभाने वाला साथी है।
बाँस का ग्रामीण क्षेत्रों में अत्यधिक महत्व है। इसका उपयोग घरेलू उपयोग की वस्तुओं से लेकर घर बनाने में होता है। छत्तीसगढ़ अंचल में “बंसोड़/कंड़रा” जाति बांस शिल्पी मानी जाती है। यह जाति परम्परागत रुप से पीढी दर पीढी बांस के द्वारा हस्त शिल्प का निर्माण करती है। कांकेर के “कंड़रा राजा” को याद किया जा सकता है।
इससे जाहिर है कि समाज में इस जाति का महत्वपूर्ण स्थान था। बस्तर से लेकर सरगुजा तक के क्षेत्र में यह बहु उपयोगी और बहुतायत के साथ पाया जाने वाला हस्तशिल्प है। बाँस की अधिकांश वस्तुएं ग्रामीण दैनिक ज़रूरतों में काम आने वाली होती हैं. इसलिए ये बहुत बड़ी संख्या में बनती हैं और बिकती भी हैं। यह बंसोड़ो की आजीविका का प्रमुख साधन है।
बंगोली निवासी फ़ेकूराम बंसोड़ बताते हैं कि बाँस की वस्तुएं बनाने के लिए वैसे तो हरे बाँस की आवश्यकता होती है, वन विभाग द्वारा जंगल से बांस-कटाई पर रोक लगाये जाने के कारण बंसोड जंगल से बाँस काट लाते हैं, किसानों से महंगे दामों में खरीदते हैं या फिर सूखा बाँस खरीद कर उसे पानी में डुबाकर रखते हैं।
सबसे पहले एक विशेष प्रकार की छुरी ‘कर्री’ या कटारी से बाँस की लम्बी पट्टियाँ छिली जाती हैं। यह काम प्रायः घर के बूढ़े लोग बैठे-बैठे करते हैं। उसके बाद इन पट्टियों को पुनः छीलकर और पतला किया जाता है.जो मोटी काड़ियाँ निकाली जाती हैं, उनसे ‘टुकना’, ‘टुकनी’, ‘दौरी’, ‘चोंगरी’, ‘छितका’, ‘पर्रा’ आदि बनाया जाता है। इनका उपयोग अनाज रखने, वनोपज संग्रहण में, बाजार से विभिन्न वस्तुएं लाने-ले जाने के लिए किया जाता है।
इसके अलावा मछली पकड़ने के लिए ‘चोंगरी’ और सिर ढँकने के लिए टोप, खुमरी भी बनाये जाते हैं। इन वस्तुओं को सुन्दर बनाने के लिए इनकी कुछ पट्टियों और काड़ियों को लाल, पीले और हरे रंग में रंगा जाता है। रंग चढाने के लिए रंग को पानी में घोलकर उबाला जाता है। उसमें इन पट्टियों या काड़ियों को २-३ घंटे डुबोकर रखा जाता है।
रंगीन और सादी पट्टियों को क्रॉस करके डिजाईन बनाया जाता है। ग्रामीण घरों में कई बार दरवाजे भी बांस के बनाये जाते हैं, जो ‘टट्टर’ या ‘टाटी-फरका/फईका’ कहलाता है। वन विभाग बंसोड़ों को कलात्मक वस्तु बनाने का प्रशिक्षण देकर वस्तुएं तैयार कराता जिसमें लेटर बॉक्स, टेबल लेम्प, फूलदान, आईने की चौखट, सोफे, टेबल, कुर्सी, झूले आदि बनाना सिखाया जाता है।
बाँस की खपच्चियों को तरह तरह की चटाइयाँ, कुर्सी, टेबुल, चारपाई एवं अन्य वस्तुएँ बनाने के काम में लाया जाता है। मछली पकड़ने का काँटा, डलिया आदि बाँस से ही बनाए जाते हैं। मकान बनाने तथा पुल बाँधने के लिए यह अत्यंत उपयोगी है। इससे तरह तरह की वस्तुएँ बनाई जाती हैं, जैसे चम्मच, चाकू, चावल पकाने का बरतन। नागा लोगों में पूजा के अवसर पर इसी का बरतन काम में लाया जाता है।
इससे खेती के औजार, ऊन तथा सूत कातने की तकली बनाई जाती है। छोटी छोटी तख्तियाँ पानी में बहाकर, उनसे मछली पकड़ने का काम लिया जाता है। बाँस से तीर, धनुष, भाले आदि लड़ाई के सामान तैयार किए जाते थे। पुराने समय में बाँस की काँटेदार झाड़ियों से किलों की रक्षा की जाती थी। पैनगिस नामक एक तेज धारवाली छोटी वस्तु से दुश्मनों के प्राण लिए जा सकते हैं।
बाँस का ग्रामीण तथा औद्योगिक अर्थ-व्यवस्था में समान महत्व है। इसका उपयोग झोंपड़ी बनाने, बाड़ी एवं पनवाड़ी में लगाने, छड़ी, चटाई, बाँस बाहरी, टोकरी, चिक, सीढ़ी, फर्नीचर एवं दैनिक वस्तुओं के निर्माण में किया जाता है तो बाँस से प्लाईवुड, अख़बारी एवं लिखने का कागज, रेयान आदि भी बनाया जाता है। नगरों में बननेवाली अट्टालिकाएँ बाँस का सहारा पाकर ही ऊँचाई तथा भव्यता को प्राप्त करती हैं।
शहरों में मलिन बस्ती वालों के लिए भी बाँस घर बनाने का एक अति महत्त्वपूर्ण संसाधन है। बाँस का उपयोग सीमेंट काँक्रीट संरचनाओं- जैसे छोटी स्प्रान वीन्स, लिंटल्स, स्लैब, बाड़ लगानेवाले खंभों आदि को मज़बूत करनेवाली महंगी स्टील की छड़ों के विकल्प के रूप में भी किया जाता है। इस तरह बांस हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है, जो आदिकाल से मानव के जीवन यापन में सतत भूमिका रखते हुए वर्तमान में भी अपनी महत्ता बनाए हुए है।
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