दक्षिण कोसल की जनजाति संस्कृति एवं धार्मिक विश्वास विषय पर दिनाँक 2 अगस्त 2020 को सेंटर फॉर स्टडी एंड हॉलिस्टिक डेवलपमेंट छत्तीसगढ़ और ग्लोबल इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रामायण उत्तर प्रदेश के संयुक्त तत्वाधान में इंटरनेशनल वेबीनार की आठवीं कड़ी संपन्न हुई। इसमें उद्घाटन उद्बोधन श्री विवेक सक्सेना, सचिव सी एस एच डी छत्तीसगढ़ ने किया तथा मुख्य अतिथि श्री मोहन मंडावी, माननीय सांसद कांकेर बस्तर थे। मुख्य वक्ता डॉ आनंद मूर्ति मिश्रा, एसोसिएट प्रोफेसर एंथ्रोपोलॉजी, बस्तर विश्वविद्यालय, छत्तीसगढ़, अतिथि वक्ता डॉ नूतन पांडेय, सेंट्रल हिंदी डायरेक्टरेट मिनिस्ट्री आफ ऑफ़ ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट ने’ भी इंडोनेशिया के जन-जन में राम’ विषय पर अपने विचार रखे। इस वेबिनार के अध्यक्ष डॉक्टर गौरी दत्त शर्मा, माननीय कुलपति, अटल बिहारी विश्वविद्यालय, बिलासपुर, होस्ट डॉ रामकिंकर पाण्डेय, लाहिरी महाविद्यालय चिरमिरी, छत्तीसगढ़, आभार प्रदर्शन श्री ललित शर्मा इंडोलॉजिस्ट एवं प्रोग्राम डायरेक्टर ग्लोबल इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ रामायण छत्तीसगढ़ ने किया तथा कार्यक्रम की रिपोर्टिंग हरि सिंह क्षत्रिय मार्गदर्शक जिला पुरातत्व संग्रहालय कोरबा ने की।
वेबीनार का प्रारंभ कार्यक्रम का संचालन करने के लिए ललित शर्मा जी ने आज की होस्ट डॉक्टर रामकिंकर जी को आमंत्रित किया। उन्होंने सभी जनों को संबोधित करने के बाद उनका परिचय देते हुए कहा कि राम को भारतीय चरित्र में आदर्शों के रुप में हम पाते हैं। हम तमाम वक्ताओं को सुनेंगे। राम की उपस्थिति जगह-जगह है। छत्तीसगढ़ के हर जिले, हर तहसील में मिलते हैं। आज के मुख्यातिथि आदरणीय मंडावी जी माननीय सांसद, जो रामायण के मर्मज्ञ भी हैं। उनको भी सुनने का अवसर मिलेगा। वे एक रामभक्त और जनजातीय संस्कृति के जानकार भी हैं।
उन्होंने सी एच एच डी के सचिव विवेक सक्सेना जी को उद्घाटन उद्बोधन के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने कहा कि आदरणीय सांसद महोदय मंडावी जी लोक सेवा आयोग के सदस्य भी रहे हैं। आज यह क्षेत्र नक्सल क्षेत्र से जुड़े हैं। राम वनगमन पथ की पहचान यहाँ की संस्कृति और यहाँ की सभ्यता से होती है। इत्यादि कह कर उन्होंने अपनी बातें कह होस्ट को आगे की कार्रवाई के लिए आमंत्रित किया। तब रामकिंकर जी ने श्री मोहन मंडावी जी को आमंत्रित किया
माननीय सांसद महोदय श्री मोहन मंडावी जी ने कहा कि लोक गीतों में, लोक गाथाओं में जो परंपरा है, उनको काव्य में, गीतों के रूप में अपनी बातों को रख कर विभिन्न उदाहरणों के साथ राम के चरित्र जनजातीय परंपरा के लोकगीतों में किस प्रकार शामिल है उसका सस्वर वाचन किया। रामकिंकर जी ने मुख्य वक्ता डॉ आनंद मूर्ति जी को अपने विचार रखने आमंत्रित किया।
आनंदमूर्ति मिश्रा जी ने कहा कि एक विशेष बोली, संस्कृति के धारक हैं जो वनाँचल में रहते हैं, को जनजातीय कह सकते हैं। जनजातीय संस्कृति और धार्मिक विश्वास एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक वाचिक परंपरा और संस्कृति को संस्कार के रूप में पहुँचाते हैं। जनजातीय समाज वैज्ञानिक रूप से कुछ मामलों में हमसे ज्यादा अच्छे हैं ।इनमें बहु पत्नी विवाह, विधवा विवाह और उड़रिया विवाह जैसी परंपरा है। जनजातीय संस्कृति को जन्म से लेकर मरण तक दो भागों में बांट सकते हैं। मूर्त संस्कृति और अमूर्त संस्कृति। मूर्त से तात्पर्य है संस्कृति और अमूर्त से मतलब है विश्वास। जब दो विभिन्न संस्कृति मिलती है तो एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। जनजातीय परंपरा में यह देखने को स्पष्ट रूप से मिलता है ।
दूसरा है धार्मिक विश्वास। विभिन्न विद्वानों का अलग-अलग मत है। धर्म की उत्पत्ति के संबंध में। आत्माएँ दो प्रकार की होती हैं। पहली स्वतंत्र आत्मा दूसरा शरीर आत्मा। स्वतंत्र आत्मा विचरण करती रहती है, जबकि यही बाहर हो जाती है, तो मृत्यु हो जाती है।
दण्डकारण्य में दण्ड एक पात्र है। वह अपने गुरु शुक्राचार्य के पास जाते हैं ।गुरुपुत्री से मिलते हैं। गुरुपुत्री दंड को भ्रातृवत् मिलती हैं। पर दंड गुरुपुत्री से अनाचार करते हैं। जब रात में गुरु शुक्राचार्य घर आते हैं तो गुरुपुत्री उसे दंड द्वारा घटित घटना को बताती है। तो क्रोध से शुक्राचार्य उस क्षेत्र को जल जाने का शाप दे देते हैं। यहाँ साल वृक्षों का आधिक्य है। बस्तर को साल वृक्षों का सरोवर कह सकते हैं।
दूसरी बात बाली हालांकि किष्किंधा में रहते थे पर यहाँ भी उनका पता चलता है। साहित्य और संस्कृति में उसका पता चलता है। कुछ लोकगीतों में भी बाली की कथा है। यह सुनने को मिलती है। समाज में बहुविवाह प्रथा है। बाली वध के बाद बाली की पत्नी तारा को सुग्रीव अपने पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं । यह आज भी है नागवंश में भी दिखता है। गोटूल या घोटूल शब्द से उत्पत्ति है गोस्ठ शब्द से होती है। गोस्ठ माने सभा माना जाता है। यह घोटूल रामायण कालीन परंपरा है। नाग वंश के सती अभिलेख में भी उल्लेख है। एल्विन और ग्रिप्सम के अनुसार 1948 में कहा गया है कि हमारी आर्य संस्कृति यूरोप से आई है। हालांकि अब इस बात का खंडन हो चुका है। गोटूल की संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रहती है।
गोटुल की संस्कृति को जनजाति एक दूसरे को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित करती रहती हैं। जनजातीय लोग सुपर नेचुरल पावर अर्थात भूत-प्रेतों पर विश्वास करते हैं। सांप काटने पर मंत्र उपचार से इलाज कराने की परंपरा है। जिसमें गणपति उमा और महादेव का भी जिक्र होता है। भैरव, डोकरादेव, दूल्हादेव, बंजारी माता आदि देवी देवता है। जादू टोना के जानकार को बैगा कहा जाता है। बली पूजा परंपरा को भी मानते हैं। तथ्यों के अनुसार जनजातीय बली पूजा करते हैं। धर्म के अनेक रूप होते हैं। धर्म, भय और श्रद्धा का मिश्रण होता है ।दूसरा वे प्रकृति पूजक होते हैं। जिससे जो कुछ भी ज्ञात होता है तो पहले वह श्रद्धा होगी। जो एक पीढ़ी से जब दूसरी पीढ़ी पर हस्तांतरित होती है।
जैसे- गर्भवती महिला बैल के पास नहीं जाएगी, आग के पास नहीं जाएगी, शव-यात्रा नहीं देखेगी आदि। इनकी रीति रिवाज परंपरा है। इनके विशिष्ट देवी-देवता होते हैं। काल्पनिक देवी देवता होते हैं। जिससे भी संबंध जोड़ लेते हैं ।जनजातियों में मृतक स्तंभ बनाने की परंपरा भी है। यहाँ हर जाति का पृथक-पृथक स्तंभ बनाए जाते हैं ।पर सबका मानना है कि उनके पूर्वजों का पुनर्जन्म होगा । दूसरा उनकी मृतक स्थान बनाना भी इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि मृतक की आत्मा हमें परेशान नहीं करेंगी। प्रभुत्वशाली लोगों का मृतकस्तंभ विशेष होता है ।यह या तो लकड़ी का होता है या पत्थर का। परंतु अब आधुनिक युग में यह सीमेंट का भी बनने लगा है। एक बार के यहाँ एक फ्रांसीसी आए थे। उन्होंने बताया कि इस प्रकार के मृतकस्तंभ बनाने की परंपरा फ्रांस में भी है।
विभिन्न जातियों के पशु टोटम पृथक-पृथक होते हैं। बघेल बाघ को मानते हैं, नाग, नाग को। दण्डकारण्य में दंतेश्वरी माता, मावलीमाता, परगना देवी आदि देवी देवता हैं। वहीं स्थानीय सोनकुँवर आदि को मानते हैं। खेत की देवी अलग है, जलदेवी अलग है।
अलग-अलग जनजातियों के अलग-अलग गोत्र होते हैं। आंगापेन, पुजारीपेन, पुजारी इत्यादि। आंगापेन साजा और हर्रा पेड़ की लकड़ी से बनाए जाते हैं। सिरहा लोग देवी देवता को बुलाने का काम करते हैं। सिरहा बनने की अलग परंपरा है। गुनिया लोग जादूगरी करते हैं। भूत- प्रेत को मानते हैं। जनजातियों में कुत्ते का अलग महत्व है। खासकर कुछ जगह विशेष महत्व दिया जाता है। जनजातीय परंपरा में जैव विविधता का बड़ा महत्व है। फ्लोरा और फोना पर, लोग बड़े जानकार होते हैं। आत्मा पर इनका बड़ा विश्वास होता है। यदि गर्भिणी की मृत्यु, आत्महत्या आदि होने पर उनका मानना है कि वे लोग प्रेत योनि में चले जाते हैं। चंदा और सूरज का भी जनजातियों में बड़ा महत्व होता है। बस्तर की जनजातियों में गोदना जनजाति हैं ।गोदना प्रथा का भी इनमें चलन है। गढ़वा देवता धरणी देवता इत्यादि त्योहारों में मड़ई जात्रा मेला, बड़ी जात्रा मेला, दशहरा मेला इत्यादि मेले का प्रचलन है।
जनजातियों में मुर्गी और अंडे की बलि देना स्वीकार होता है। लोक नृत्य में मंगला देवी ,धन धान्यकी देवी । पुरुष और महिला बायसन नृत्य, मोरिया आदि नृत्य की परंपरा अलग-अलग होते हैं। विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों का उपयोग जनजातीय करते हैं। गेड़ी, कर्मा, राउत नाचा आदि इनके लोक नृत्य होते हैं। लोकनाट्य की परंपरा में राम चरित मानस पर आधारित ,रामायण-महाभारत पर आधारित विभिन्न प्रसंग पर लोक नाटक खेला जाता है। तीज त्यौहारों पर मनोरंजन के लिए, खुद की संतुष्टि के लिए लोक नाटक करते हैं ।
जनजातीय कला में मृदा कला, टेराकोटा, काष्ठ शिल्प, ढोकराकला, बेल मेटल कला इत्यादि के लोग जानकार हैं। ढोकरा कला होटल ताज मुंबई में भी लगा है। बस्तर की कला विश्व प्रसिद्ध है। लौहशिल्प में जोड़ नहीं होता है। बांसकला गोदनाकला आदि। अब गोदना कला नवीन पीढ़ी में कम होने लगी है।
गाथा-काव्य- छत्तीसगढ़ में विभिन्न रामायण की गाथा गाई जाती है। नल दमयंती कथा पर आधारित नाटक-लीला होती है। बस्तर संस्कृति आज भी प्रसिद्ध है। यह विशेष है ।इसका सम्मान करना चाहिए। इसके बाद उन्होंने स्वरचित गीत से अपनी वाणी को विराम दिया। होस्ट रामकिंकर जी ने अतिथि वक्ता नूतन पांडे जी को अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित किया।
नूतन पांडे जी ने अपने विचार रखते हुए कहा कि मुझे लगता है कि समस्त मानवजाति अध्यात्मिकता से विमुख हो रही है। आपकी जैसी संस्था जो यह काम कर रही है, वह सराहनीय और महत्वपूर्ण है। भगवान राम की चरित्र किसी धर्म विशेष के लिए नहीं हैं। समस्त मानव के लिए है। मारीशस में भारतीय उच्चायोग में क़रीबी से काम करने का अनुभव रहा है। वहाँ रामायण सेंटर की स्थापना की गई है । जहाँ रामायण के मंचन का उद्देश्य, भगवान राम को किसी धर्म विशेष के लिए नहीं, बल्कि सभी सोसाइटी के लिए है। सभी इस बात से सहमत थे कि भगवान राम का वहाँ सेंटर हो। भगवान राम हमारी संस्कृति में रचे बसे हैं। राम का नाम हमारे जीवन में ऐसा समाया हुआ है कि जिसे किसी भी प्रकार से अलग नहीं किया जा सकता है। साहित्य में भगवान राम के चरित्र जितनी विधाओं में है, उतनी जगह किसी चरित्र का नहीं दिया गया है । विश्व के अनेक देशों में रामकथा है। रूसी भाषा में राम चरित मानस का अनुवाद 10 वर्षों में किया गया। इराक के पुरातत्त्व विभाग ने वहाँ राम की मूर्ति को प्राप्त किया जो 6000 साल पुरानी बताई गई है। लगभग 30 देशों में रामकथा का मंचन होता है। यह रामकथा ही है जो विदेशों में भी चली गई। पंडितों, कलाकारों आदि सभी ने रामकथा को विश्व में प्रचारित किया। विभिन्न देशों में अलग-अलग रामायण हैं। इनका आधार वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस ही है। उसे अपनी संस्कृति विभिन्न रूपों में जोड़ा गया है। रामकथा को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है। इंडोनेशिया एक खूबसूरत देश है।
हमारे शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल की पुस्तक बहुत अच्छी और पठनीय है। इंडोनेशिया में वर्षा वन है । यहाँ सबसे बड़ा फ़ूल खिलता हैं। यहाँ 17000 द्वीप हैं पर 6000 में ही जनसमुदाय निवास करते हैं। इसका कहीं न कहीं भारत और रामायण से संबंध रहा है। लंका के संबंध में जहा विजयादशमी का पर्व मनाते हैं, यह भारत का ही भाग रहा होगा। 16वीं शताब्दी में यहाँ का संबंध श्रीलंका से रहा है। 1947 में जब यह क्षेत्र आजाद हुआ तो 99% भाग पर यहाँ की आबादी मुस्लिम थी। इंडोनेशिया का संबंध ईसा पूर्व से ही भारत से रहा है। भारत और इंडोनेशिया का आपस में संबंध काली का है, गजानन स्वामी गणेश जी का है। वहाँ के नोट में गणेश जी की तस्वीर लगाई गई है। जब वहाँ की अर्थव्यवस्था खराब होने लगी तो उन लोगों ने गणेश जी की तस्वीर रुपयों में लगाया। रामायण का स्थान, उनके हृदय में है। एक मुस्लिम जब वहाँ रामायण पाठ कर रहे थे तो एक व्यक्ति ने पूछा आप क्यों पढ़ रहे हैं? उन्होंने कहा मैं अच्छा इंसान बन जाऊं इसलिए रामायण पढ़ रहा हूँ। रामायण एक सांस्कृतिक विरासत है। इस्लाम हमारा धर्म है ,पर रामायण हमारी संस्कृति है।आदि बातें कहते हुए अतिथि वक्ता डाक्टर नूतन पांडे ने अपने विचार व्यक्त किए ।
फिर होस्ट ने अध्यक्षीय भाषण के लिए डॉक्टर गौरी दत्त शर्मा, कुलपति अटल बिहारी वाजपेई विश्वविद्यालय बिलासपुर छत्तीसगढ़ को आमंत्रित किया।
उन्होंने कहा कि मंडावी जी ने रामायण की चौपाई पर अपनी बात कही बस्तर की संस्कृति, कला, लोक कलाकार और बस्तर की जनजातीय पर उनका काम गहरा है। जैवविविधता आदि पर मिश्राजी का वक्तव्य सराहनीय रहा। उन्होंने परिपक्व और मान्युटलि जानकारी दी है ।विदेशी विचारको के विचारों को भी कोट करते हुए, भय और आस्था का संबंध को बताने का प्रयास किया है। मनुष्य के अंदर ही ऐसी शक्ति है जिससे जागृत कर नर, नारायण बन सकता है। उस पर अभी काम करने की आवश्यकता है ।काम हो भी रहा है। मैडम पांडे जी ने भी इंडोनेशिया में जो रामायण आदर्श रूप में है उस पर अपने विचार रखे। हमारा विधान रामराज्य की ओर ले जाता है। विशेषरूप से विवेक सक्सेना जी और ललित शर्मा जी ऐसे कार्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। अब इस समय जब महामारी से पूरी दुनिया भयानक दौर से गुजर रही है । वहीं यह वेबीनार सहायक सिद्ध होगा। एक चौपाई कहते हुए उन्होंने अपनी बातें आगे बढ़ाया। रामायण और राम हमारी सनातन संस्कृति में विद्यमान है। पशु-पक्षी, जीव-जंतु ,आत्मा आदि मृतक स्तंभ में लगाए जाते हैं। भारतीय संस्कृति में निर्जीव और सजीव को मान्यता है। वनवास के दौरान भगवान राम ने सभी का पूजन किया। नदी-नालों, पशु-पक्षी, जीव-जंतु सभी की पूजा की। दक्षिण कोसल सनातन संस्कृति के संवाहक रहा हैं। इन क्षेत्रों में, वृक्षों से नदियों से,उनकी चरणों से मिट्टी से जनजातीय लोगों का गहरा नाता है।
दक्षिण कोसल की संस्कृति का तकनीकी रूप से डिजिटलिकरण होने वाला है। इससे इको टूरिज्म को बढ़ावा मिलेगा। आने वाला समय इससे जुड़कर सूचना एकत्र करेंगे। यही सूचना एकत्र होकर एक वृहद साहित्य बनेंगी। विदेशों में छोटे छोटे चीजों की डिजिटल रुप मिलते हैं । छोटे से नाले को नदी के रूप में दिखाते हैं। ललित शर्मा जी इस पर काम कर रहे हैं । इसके आयोजकों खासकर ललित शर्मा जी और सक्सेना जी का धन्यवाद दिया।
अंत में विवेक सक्सेना जी ने सभी आमंत्रित विचारकों और जो फेसबुक तथा यूट्यूब से जुड़े हुए थे अभी लोगों का धन्यवाद ज्ञापन कर इस वेब सेमीनार की समाप्ति की घोषणा की।
बहुत सुन्दर भैया जी सादर प्रणाम