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प्राचीन भारत में नौका परिवहन एवं नौका शास्त्र

भारत की महान संस्कृति को छुद्र दिखाने के लिए विघ्न संतोषियों ने ऐसे झूठ फ़ैलाये जो कि सभ्य समाज के गले से नीचे नहीं उतरते। इनके झूठों को आगे बढ़ाने का कार्य इनके कुशिष्यों ने किया। जो कि कॉपी पेस्ट के रुप में अभी तक चल रहा है। इसमें एक बड़ा झूठ यह था कि ”
हिन्दू शाश्त्र कहते है कि समुद्र को पार मत करना लिखा है।” यदि ऐसा होता तो हजारों वर्ष पहले विश्व के अन्य स्थानों से व्यापार कैसे होता? श्री सुरेश सोनी जी का आलेख इस महाझूठ का पर्दाफ़ाश करता है। 

समुद्र यात्रा भारतवर्ष में प्राचीन काल से प्रचलित रही है। महर्षि अगस्त्य समुद्री द्वीप-द्वीपान्तरों की यात्रा करने वाले महापुरुष थे। इसी कारण अगस्त्य ने समुद्र को पी डाला, यह कथा प्रचलित हुई होगी। संस्कृति के प्रचार के निमित्त या नए स्थानों पर व्यापार के निमित्त दुनिया के देशों में भारतीयों का आना-जाना था। कौण्डिन्य समुद्र पार कर दक्षिण पूर्व एशिया पहुंचे। मैक्सिको के यूकाटान प्रांत में जवातुको नामक स्थान पर प्राप्त सूर्य मंदिर के शिलालेख में महानाविक वुसुलिन के शक संवत् 885 में पहुंचने का उल्लेख मिलता है। गुजरात के लोथल में हुई खुदाई में ध्यान में आता है कि ई. पूर्व 2450 के आस-पास बने बंदरगाह द्वारा इजिप्त के साथ सीधा सामुद्रिक व्यापार होता था। 2450 ई.पू. से 2350 ई.पू. तक छोटी नावें इस बंदरगाह पर आती थीं। बाद में बड़े जहाजों के लिए आवश्यक रचनाएं खड़ी की गर्इं तथा नगर रचना भी हुई।

प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक के नौ निर्माण कला का उल्लेख प्रख्यात बौद्ध संशोधक भिक्षु चमनलाल ने अपनी पुस्तक “हिन्दू अमेरिका” में किया है। इसी प्रकार सन् 1950 में कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक में गंगा शंकर मिश्र ने भी विस्तार से इस इतिहास को लिखा है।

भारतवर्ष के प्राचीन वाङ्गमय वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि में जहाजों का उल्लेख आता है। जैसे बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिसमें सैकड़ों योद्धा सवार रहते थे।

नावां शतानां पञ्चानां
कैवर्तानां शतं शतम।
सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठक्त्वत्यभ्यचोदयत्।।

अर्थात्-सैकड़ों सन्नद्ध जवानों से भरी पांच सौ नावों को सैकड़ों धीवर प्रेरित करते हैं।

इसी प्रकार महाभारत में यंत्र-चालित नाव का वर्णन मिलता है।

सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्।

अर्थात्-यंत्र पताका युक्त नाव, जो सभी प्रकार की हवाओं को सहने वाली है।

कौटिलीय अर्थशास्त्र में राज्य की ओर से नावों के पूरे प्रबंध के संदर्भ में जानकारी मिलती है। 5वीं सदी में हुए वारहमिहिर कृत “बृहत् संहिता” तथा 11वीं सदी के राजा भोज कृत “युक्ति कल्पतरु” में जहाज निर्माण पर प्रकाश डाला गया है।

नौका विशेषज्ञ भोज चेतावनी देते हैं कि नौका में लोहे का प्रयोग न किया जाए, क्योंकि संभव है समुद्री चट्टानों में कहीं चुम्बकीय शक्ति हो। तब वह उसे अपनी ओर खींचेगी, जिससे जहाज को खतरा हो सकता है।

नौकाओं के प्रकार- “हिन्दू अमेरिका” (पृ.357) के अनुसार “युक्ति कल्पतरु” ग्रंथ में नौका शास्त्र का विस्तार से वर्णन है। नौकाओं के प्रकार, उनका आकार, नाम आदि का विश्लेषण किया गया है।

(1) सामान्य-वे नौकाएं, जो साधारण नदियों में चल सकें।

(2) विशेष-जिनके द्वारा समुद्र यात्रा की जा सके।

उत्कृष्ट निर्माण-कल्याण (हिन्दू संस्कृति अंक-1950) में नौका की सजावट का सुंदर वर्णन आता है। चार श्रंग (मस्तूल) वाली नौका सफेद, तीन श्रीग वाली लाल, दो श्रृंग वाली पीली तथा एक श्रंग वाली को नीला रंगना चाहिए।

नौका मुख-नौका की आगे की आकृति यानी नौका का मुख सिंह, महिष, सर्प, हाथी, व्याघ्र, पक्षी, मेढ़क आदि विविध आकृतियों के आधार पर बनाने का वर्णन है।

भारत पर मुस्लिम आक्रमण 7वीं सदी में प्रारंभ हुआ। उस काल में भी भारत में बड़े-बड़े जहाज बनते थे। माकर्पोलो तेरहवीं सदी में भारत में आया। वह लिखता है “जहाजों में दोहरे तख्तों की जुड़ाई होती थी, लोहे की कीलों से उनको मजबूत बनाया जाता था और उनके सुराखों को एक प्रकार की गोंद में भरा जाता था। इतने बड़े जहाज होते थे कि उनमें तीन-तीन सौ मल्लाह लगते थे। एक-एक जहाज पर 3 से 4 हजार तक बोरे माल लादा जा सकता था। इनमें रहने के लिए ऊपर कई कोठरियां बनी रहती थीं, जिनमें सब तरह के आराम का प्रबंध रहता था। जब पेंदा खराब होने लगता तब उस पर लकड़ी की एक नयी तह को जड़ लिया जाता था। इस तरह कभी-कभी एक के ऊपर एक 6 तह तक लगायी जाती थी।”

15वीं सदी में निकोली कांटी नामक यात्री भारत आया। उसने लिखा कि “भारतीय जहाज हमारे जहाजों से बहुत बड़े होते हैं। इनका पेंदा तिहरे तख्तों का इस प्रकार बना होता है कि वह भयानक तूफानों का सामना कर सकता है। कुछ जहाज ऐसे बने होते हैं कि उनका एक भाग बेकार हो जाने पर बाकी से काम चल जाता है।”

बर्थमा नामक यात्री लिखता है “लकड़ी के तख्तों की जुड़ाई ऐसी होती है कि उनमें जरा सा भी पानी नहीं आता। जहाजों में कभी दो पाल सूती कपड़े के लगाए जाते हैं, जिनमें हवा खूब भर सके। लंगर कभी-कभी पत्थर के होते थे। ईरान से कन्याकुमारी तक आने में आठ दिन का समय लग जाता था।” समुद्र के तटवर्ती राजाओं के पास जहाजों के बड़े-बड़े बेड़े रहते थे। डा. राधा कुमुद मुकर्जी ने अपनी “इंडियन शिपिंग” नामक पुस्तक में भारतीय जहाजों का बड़ा रोचक एवं सप्रमाण इतिहास दिया है।

क्या वास्कोडिगामा ने भारत आने का मार्ग खोजा: अंग्रेजों ने एक भ्रम और व्याप्त किया कि वास्कोडिगामा ने समुद्र मार्ग से भारत आने का मार्ग खोजा। यह सत्य है कि वास्कोडिगामा भारत आया था, पर वह कैसे आया इसके यथार्थ को हम जानेंगे तो स्पष्ट होगा कि वास्तविकता क्या है? प्रसिद्ध पुरातत्ववेता पद्मश्री डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने बताया कि मैं अभ्यास के लिए इंग्लैण्ड गया था। वहां एक संग्रहालय में मुझे वास्कोडिगामा की डायरी के संदर्भ में बताया गया। इस डायरी में वास्कोडिगामा ने वह भारत कैसे आया, इसका वर्णन किया है। वह लिखता है, जब उसका जहाज अफ्रीका में जंजीबार के निकट आया तो मेरे से तीन गुना बड़ा जहाज मैंने देखा। तब एक अफ्रीकन दुभाषिया लेकर वह उस जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक चंदन नाम का एक गुजराती व्यापारी था, जो भारतवर्ष से चीड़ व सागवान की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहां गया था और उसके बदले में हीरे लेकर वह कोचीन के बंदरगाह आकार व्यापार करता था। वास्कोडिगामा जब उससे मिलने पहुंचा तब वह चंदन नाम का व्यापारी सामान्य वेष में एक खटिया पर बैठा था। उस व्यापारी ने वास्कोडिगामा से पूछा, कहां जा रहे हो? वास्कोडिगामा ने कहा- हिन्दुस्थान घूमने जा रहा हूं। तो व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हूं, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।” इस प्रकार उस व्यापारी के जहाज का अनुगमन करते हुए वास्कोडिगामा भारत पहुंचा। स्वतंत्र देश में यह यथार्थ नयी पीढ़ी को बताया जाना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ। (उदयन इंदुरकर-दृष्टकला साधक- पृ. 32)

उपर्युक्त वर्णन पढ़कर मन में विचार आ सकता है कि नौका निर्माण में भारत इतना प्रगत देश था तो फिर आगे चलकर यह विद्या लुप्त क्यों हुई? इस दृष्टि से अंग्रेजों के भारत में आने और उनके राज्य काल में योजनापूर्वक भारतीय नौका उद्योग को नष्ट करने के इतिहास के बारे में जानना जरूरी है। उस इतिहास का वर्णन करते हुए श्री गंगा शंकर मिश्र कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक (1950) में लिखते हैं-

“पाश्चात्यों का जब भारत से सम्पर्क हुआ तब वे यहां के जहाजों को देखकर चकित रह गए। सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपीय जहाज अधिक से अधिक 6 सौ टन के थे, परन्तु भारत में उन्होंने “गोघा” नामक ऐसे बड़े-बड़े जहाज देखे जो 15 सौ टन से भी अधिक के होते थे। यूरोपीय कम्पनियां इन जहाजों को काम में लाने लगीं और हिन्दुस्थानी कारीगरों द्वारा जहाज बनवाने के लिए उन्होंने कई कारखाने खोल लिए। सन् 1811 में लेफ्टिनेंट वाकर लिखता है कि “ब्रिटिश जहाजी बेड़े के जहाजों की हर बारहवें वर्ष मरम्मत करानी पड़ती थी। परन्तु सागौन के बने हुए भारतीय जहाज पचास वर्षों से अधिक समय तक बिना किसी मरम्मत के काम देते थे।” “ईस्ट इण्डिया कम्पनी” के पास “दरिया दौलत” नामक एक जहाज था, जो 87 वर्षों तक बिना किसी मरम्मत के काम देता रहा। जहाजों को बनाने में शीशम, साल और सागौन-तीनों लकड़ियां काम में लायी जाती थीं।

सन् 1811 में एक फ्रांसीसी यात्री वाल्टजर सालविन्स अपनी “ले हिन्दू” नामक पुस्तक में लिखता है कि “प्राचीन समय में नौ-निर्माण कला में हिन्दू सबसे आगे थे और आज भी वे इसमें यूरोप को पाठ पढ़ा सकते हैं। अंग्रेजों ने, जो कलाओं के सीखने में बड़े चतुर होते हैं, हिन्दुओं से जहाज बनाने की कई बातें सीखीं। भारतीय जहाजों में सुन्दरता तथा उपयोगिता का बड़ा अच्छा योग है और वे हिन्दुस्थानियों की कारीगरी और उनके धैर्य के नमूने हैं।” बम्बई के कारखाने में 1736 से 1863 तक 300 जहाज तैयार हुए, जिनमें बहुत से इंग्लैण्ड के “शाही बेड़े” में शामिल कर लिए गए। इनमें “एशिया” नामक जहाज 2289 टन का था और उसमें 84 तोपें लगी थीं। बंगाल में हुगली, सिल्हट, चटगांव और ढाका आदि स्थानों पर जहाज बनाने के कारखाने थे। सन् 1781 से 1821 तक 1,22,693 टन के 272 जहाज केवल हुगली में तैयार हुए थे।

अंग्रेजों की कुटिलता-ब्रिटेन के जहाजी व्यापारी भारतीय नौ-निर्माण कला का यह उत्कर्ष सहन न कर सके और वे “ईस्ट इण्डिया कम्पनी” पर भारतीय जहाजों का उपयोग न करने के लिए दबाने बनाने लगे। सन् 1811 में कर्नल वाकर ने आंकड़े देकर यह सिद्ध किया कि “भारतीय जहाजों” में बहुत कम खर्च पड़ता है और वे बड़े मजबूत होते हैं। यदि ब्रिटिश बेड़े में केवल भारतीय जहाज ही रखे जाएं तो बहुत बचत हो सकती है।” जहाज बनाने वाले अंग्रेज कारीगरों तथा व्यापारियों को यह बात बहुत खटकी। डाक्टर टेलर लिखता है कि “जब हिन्दुस्थानी माल से लदा हुआ हिन्दुस्थानी जहाज लंदन के बंदरगाह पर पहुंचा, तब जहाजों के अंग्रेज व्यापारियों में ऐसी घबराहट मची जैसा कि आक्रमण करने के लिए टेम्स नदी में शत्रुपक्ष के जहाजी बेड़े को देखकर भी न मचती।

लंदन बंदरगाह के कारीगरों ने सबसे पहले हो-हल्ला मचाया और कहा कि “हमारा सब काम चौपट हो जाएगा और हमारे कुटुम्ब भूखों मर जाएंगे।” “ईस्ट इण्डिया कम्पनी” के “बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स” (निदेशक-मण्डल) ने लिखा कि हिन्दुस्थानी खलासियों ने यहां आने पर जो हमारा सामाजिक जीवन देखा, उससे भारत में यूरोपीय आचरण के प्रति जो आदर और भय था, नष्ट हो गया। अपने देश लौटने पर हमारे सम्बंध में वे जो बुरी बातें फैलाएंगे, उसमें एशिया निवासियों में हमारे आचरण के प्रति जो आदर है तथा जिसके बल पर ही हम अपना प्रभुत्व जमाए बैठे हैं, नष्ट हो जाएगा और उसका प्रभाव बड़ा हानिकर होगा।” इस पर ब्रिटिश संसद ने सर राबर्ट पील की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की।

काला कानून- समिति के सदस्यों में परस्पर मतभेद होने पर भी इस रपट के आधार पर सन् 1814 में एक कानून पास किया, जिसके अनुसार भारतीय खलासियों को ब्रिटिश नाविक बनने का अधिकार नहीं रहा। ब्रिटिश जहाजों पर भी कम-से कम तीन चौथाई अंग्रेज खलासी रखना अनिवार्य कर दिया गया। लंदन के बंदरगाह में किसी ऐसे जहाज को घुसने का अधिकार नहीं रहा, जिसका स्वामी कोई ब्रिटिश न हो और यह नियम बना दिया गया कि इंग्लैण्ड में अंग्रेजों द्वारा बनाए हुए जहाजों में ही बाहर से माल इंग्लैण्ड आ सकेगा।” कई कारणों से इस कानून को कार्यान्वित करने में ढिलाई हुई, पर सन् 1863 से इसकी पूरी पाबंदी होने लगी। भारत में भी ऐसे कायदे-कानून बनाए गए जिससे यहां की प्राचीन नौ-निर्माण कला का अन्त हो जाए। भारतीय जहाजों पर लदे हुए माल की चुंगी बढ़ा दी गई और इस तरह उनको व्यापार से अलग करने का प्रयत्न किया गया। सर विलियम डिग्वी ने ठीक ही लिखा है कि “पाश्चात्य संसार की रानी ने इस तरह प्राप्च सागर की रानी का वध कर डाला।” संक्षेप में भारतीय नौ-निर्माण कला को नष्ट करने की यही कहानी है।

लेखक – सुरेश सोनी जी ( साभार, पांचजन्य )

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