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कुल उद्धारिणी चित्रोत्पला गंगा महानदी

महानद्यामुपस्पृश्य तर्पयेत पितृदेवता:।
अक्षयान प्राप्नुयाल्वोकान कुलं चेव समुध्दरेत्॥
(महाभारत, वनपर्व, तीर्थ यात्रा पर्व, अ-84)
अर्थात महानदी में स्नान करके जो देवताओं और पितरों का तर्पण करता है, वह अक्षय लोकों को प्राप्त होता है, और अपने कुल का भी उध्दार करता है।

महानदी का कोसल के लिए वही महत्व है जो भारत के लिए गंगा का। प्राचीन कोसल की संस्कृति और सभ्यता का विकास महानदी घाटी में हुआ। पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय का तो यह दावा है कि वर्तमान छत्तीसगढ़ (प्राचीन कोसल) मनुष्य जाति की सभ्यता का जन्मस्थान है। मानव जाति की आदि सभ्यता यहीं पली है।

महानदी का सर्वप्रथम उल्लेख आदि कवि वाल्मिकी ने अपने ग्रंथ रामायण में किया है। अपने पुत्र भगवान श्री राम के वनवास के लिये जाने का समाचार सुनकर माता कौशल्या विलाप करने लगती हैं। वे कहते हैं-
स्थिरं नु हदयं मन्ये ममेदं यत्र दीर्यते।
प्रावृसील मानद्या: स्पृस्टं कूलं नवामभसा॥ (अयोध्या काण्ड, सर्ग 20)

निश्चय ही यह मेरा हृदय बड़ा कठोर है, जो तुम्हारे विछोह की बात सुनकर भी वर्षाकाल के नूतन जल के प्रवाह से टकराये हुए महानदी के कगार की भांति विदीर्ण नहीं हो जाता। महारानी कौशल्या कोसल नरेश भानुमंत की कन्या थी। कोसल की राजकन्या होने के कारण उन्हें कौसल्या कहा जाता था। कोसल राज्य का विस्तार इस महानदी के तट पर ही हुआ था। कोसल्या का बाल्यकाल महानदी के तट पर ही व्यतीत हुआ था। महानदी से उनका भावनात्मक संबंध था। यही कारण है कि जब उन पर पुत्र वियोग के दारुण दुख का पहाड़ टूट पड़ा, तो उनके मुख से अनायास महानदी का नाम निकल पड़ा। माता कौसल्या ने वर्षाकाल की बाढ़ में महानदी के कगारों को छत-विक्षत होकर ढहते हुए देखा था। उनके हृदय पर इस दृश्य की छाप इतनी गहरी थी कि दुख के कारण अपने हृदय की दीन अवस्था की तुलना के लिए उन्हें महानदी के सिवा कोई दूसरी उपमा ही नहीं सूझी।

वाल्मीकी रामायण में दूसरी बार महानदी का उल्लेख किष्किंधा काण्ड में हुआ है। कपिराज सुग्रीव वानरों को आदेश देते हैं कि चारों दिशाओं में जा कर वे महारानी सीता की खोज करें। इसी प्रसंग में सुग्रीव कहते हैं-
ततो गोदावरीं, रम्या कृष्णवेणीं महानदी।
वरदां च महाभागा महोरगनिसेविता॥ (किष्किंधा काण्ड, सर्ग 41)
अर्थात वानरों, तुम लोग सुरम्य गोदावरी, कृष्णवेणी, महानदी तथा बड़े-बड़े नागों से सेवित महाभागा वरदा आदि नदियों के तटों पर सब जगह जा कर सीता की खोज करो।

महाभारत में महानदी का कई बार उल्लेख है। एक बार अर्जुन को एक ब्राह्मण की गायों की रक्षा करने के लिए नियम भंग करना पड़ा। नियम भंग करने के कारण उन्हें प्रायश्चित स्वरुप एक वर्ष वनवास करना पड़ा। अपने वनवास काल में अनेक पवित्र स्थानों के दर्शन करते हुए पूर्व दिशा की ओर गये। वहां उन्होंने जिन पवित्र नदियों के दर्शन किए, उनके नाम इस प्रकार है-
नन्दा परनन्दा कोशिकीं च यशस्विनीम।
महानदी गयां चेव गंगामपि च भारत्॥ (अर्जुन वनवास पर्व, अ-214)
अर्थात अर्जुन ने नंदा, परनंदा, कोशकी (कोसी) महानदी, गया तीर्थ, तथा गंगा के दर्शन किए।

महानदी च तत्रैव तथा गवशिरो नृप।
यत्रा सौ कीर्तिं कीत्र्यत विप्रेरक्षय्यट करणो वद:। (तीर्थ यात्रा पर्व, अ-87)
महानदी और गयातीर्थ, जहां ब्राह्मणों ने अक्षयवट की स्थिति बताई है, जिसकी जड़े और शाखायें कभी नष्ट नहीं होते, वहां पितरों के लिए दिया हुआ अन्न कभी नष्ट नहीं होता।

भीष्म पर्व में भारत वर्ष की प्रमुख नदियों पर्वतों तथा जनपदों का वितरण है। इस अध्याय में कहा गया है-
नदी पिवन्ति विपुलां गंगा सिन्धु सरस्वतीम्।
गोदावरी नर्मदा च बाहुदां च महानदीम्॥
अर्थात हे कुरुनंदम्। इस भारतवर्ष में आर्य, म्लेच्छ और संकर जाति के मनुष्य निवास करते है। वे जिन बड़ी नदियों का जल पीते हैं, उनके नाम बताता हूं। ये बड़ी नदियां है गंगा, सिन्धु, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, बाहुदा और महानदी। महाभारत में वर्णित भारत की सात प्रमुख नदियों में महानदी की गणना की गई है। इससे महानदी की महत्ता स्वयं सिध्द है।

इसी अध्याय में महानदी को चित्रोत्पला नाम से भी सम्बोधित किया गया है।
चित्रोत्पलां चित्ररथां मंजुला बहिनीं तथा मंदाकिनी वैतरणीं कोषा चापि महानदीम्॥
अर्थात चित्रोत्पला, चित्ररथा, मंजुला मंदाकिनी, वेतरणी, महानदी, कोसा आदि नदियों का जल भारतवासी पीते हैं। महाभारत वह पहला ग्रंथ है जिसमें महानदी को चित्रोत्पला भी कहा गया है। महाभारत में इन तथा अन्य नदियों को सम्पूर्ण विश्व की माताएं कहा है। ये नदियां महान पुण्य फल देने वाली हैं। वस्तुत: मनुष्य जाति की सभ्यता का विकास किसी न किसी नदी के तट पर ही हुआ। यही कारण है कि इन नदियों को सम्पूर्ण विश्व की माताएं कहा गया है।

महानदी के चित्रोत्पला नाम पर विद्वानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये है। डा. दिनेश चन्द्र सरकार के अनुसार महानदी का चित्रोत्पला नाम उसके पैरी नदी के संगम के बाद से प्रारंभ होता है। यह संगम श्री संगम के नाम से प्रसिध्द है। यहीं पर प्रसिध्द राजिम तीर्थ है।

डा. विष्णुसिंह ठाकुर ने चित्रोत्पला नामकरण पर बहुत अच्छा विश्लेषण किया है चित्रोत्पला में दो शब्दों का युग्म है। प्रथम उत्पल तथा दिवतीय चित्रा। उत्पल का शाब्दिक अर्थ है निलकमल्। चित्रा- गायत्री स्वरुपा महाशक्ति का नाम है। यह परम ऐश्र्वर्य की महादेवी (महालक्ष्मी) है। इस तरह पैरी में संगम के बाद ही महानदी का चित्रोत्पला नाम तथा पैरी-महानदी संगम का महाभारत के रचना काल के प्रमुख वैष्णव पीठ होना सिध्द है। इस तथ्य की पुष्टि राजिम कुलेश्वर मंदिर अभिलेख से भी हो जाती है। कुलेश्वर मंदिर के महामण्डप में नवीं शताब्दी का एक अभिलेख है जिसकी पांचवी पंक्ति में पैरी और महानदी की संगम स्थल को ‘श्री संगम’ कहा गया है। श्री विष्णु की शक्ति लक्ष्मी का नाम है।

पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय तथा डा. विष्णु सिंह ठाकुर ने चित्रोत्पला नाम से संबंधित एक अन्य श्लोक का उल्लेख किया है-
उत्पलेशं समासादृय यावच्चित्रा महेश्वरी।
चित्रोत्पलेति कथिता सव्रपाद प्रणशिनी॥
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने यह श्लोक ‘रायपुर रश्मि’ से उध्दृत किया है। डा. विष्णु सिंह के अनुसार यह श्लोक महाभारत के भीष्म पर्व 9/35 में है, जिसे कलिंग हिस्टा. रिसर्च इंस्टीट्यूट जनरल भाग-3, पृ. 235 में उध्दृत किया गया है। विद्वानों के अनुसार उत्पलेश तथा चित्र महेश्वरी से चित्रोत्पला नाम की उत्पति हुई। उत्पलेश (कुलेश्वर महादेव) राजिम के पास श्री संगम पर स्थित है। महेश्वरी सोनपुर (अब उड़ीसा में) के पास महानदी और तेल (उत्पलिनी) के संगम पर स्थित है। इस प्रकार महानदी राजिम से लेकर सोनपुर (प्राचीन स्वर्णपुर) तथा चित्रोत्पला नाम से प्रसिध्द है।
उपर्युक्त श्लोक में चित्रोत्पला अर्थात महानदी को सब प्रकार के पापों का नाश करने वाली कहा गया है। इसी आशय का उल्लेख कपिल संहिता के महादेवी महत्म्य अध्याय में भी है। उसमें महानदी को गंगा की तरह पवित्र और सभी पापों का नाश करने वाली बताया गया है। महाभारत में महानदी में स्नान करने के पुण्य का वर्णन इस श्लोक में है:
महानद्यामुपस्पृश्य तर्पयेत पितृ देवता:।
अक्षयान प्राप्नुयालडोकान कुलं चेव समुध्दरेत्॥
महानदी में स्नान करके जो देवताओं और पितरों का तर्पण करता है वह अक्षय लोको को प्राप्त करता है और अपने कुल का उध्दार करता है। (वन पर्व, अ, 84)

महाभारत के भीष्म पर्व, अनुशासन पर्व आदि में भी महानदी का उल्लेख है।
महानदी का चित्रोत्पला नाम उतना ही पुराना है जितना महाभारत या पुराण्। महानदी को मत्स्यपुराण, वामनपुराण स्कंद पुराण (पुरुषोत्तम तत्व) में चित्रोत्पला कहा गया है।
वायु पुराण में चित्रोत्पला के स्थान पर नीलोत्पला नाम मिलता है।
तमसा पिल्प श्रेणी करतोया पिशाचिका।
नीलोत्पला विपाशा च जम्बुला बालुवाहिनी।

कोसल के प्राचीन ग्रंथों तथा ताम्रपत्रों में भी महानदी के लिए चित्रोत्पला नाम प्रयुक्त होता है। सोमेश्वर देव के माइदा से प्राप्त सन 1175 के ताम्रपत्र लेख में लिखा है-
यस्यावरोध स्तर चंद नानां प्रक्षालनाद्वारिविहार काले।
चित्रोत्पला स्वर्णवती गतापि गंगोर्मि संसच्पमिवाहिवभाति॥
सत्रहवीं शताब्दी के महाकवि गोपाल जो रतनपुर के राजा राजसिंह के राजकवि थे, ने अपने ग्रंथ ‘खूब तमाशा’ में चित्रोत्पला को अतिपुण्या कहा है-
पापहरण नरसिंह कहि बलपान गवरीश।
अतिपुण्या चितोत्पला तट राजे सवरीश॥

इसी काल के एक अन्य कवि पं. गंगाधर मिश्र ने कोसालन्द महाकाव्य में महानदी को चित्रोत्पला नाम से ही संबोधित किया है।
यत्प्राची वाट मंगला सुविदिता साम्येतु चित्रोत्पला।
वारुण्या महिषासुरस्य दलिनी सौम्येतु बुध्देश्वर:॥

पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को महानदी का चित्रोत्पला नाम अत्यंत प्रिय था। अपनी एक ही कविता में उन्होंने तीन बार चित्रोत्पला नाम का प्रयोग किया है-
‘’यस्मिन राजति शम्भु से वितजला चित्रोत्पला प्रोज्वला।
सोहमयं कोसलनाथं कीर्तिकलितो देशो महाकोसल:॥
चित्रोत्पला चुम्बित चारु देशे श्रीकोसले स्वर्णपुरे च शुभ्रे।‘’’
चित्रात्पला चरण चुम्बित चारु भूमों।
श्रीमान कलिंग विषयेषु यताति पुर्याम्॥

तात्पर्य यह कि महाभारत तथा पुराणों से लेकर आधुनिक रचनाओं में चित्रोत्पला नाम महानदी के लिए प्रयुक्त होता रहा है। राजिम से सोनपुर तक इस नदी का विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। प्राचीन काल में बड़े-बड़े राज्यों की नींव इसके तट पर पड़ी। कितनी ही व्यापारिक केन्द्रों का निर्माण इसके तटों पर हुआ। इसके तटों पर कितने ही प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण हुआ। ये सब हमारी प्राचीन संस्कृति और कला के प्रमाण हैं।

महानदी रायपुर जिले के सिहावा पर्वत से निकलती है। लगभग 27 कि.मी. रायपुर जिले में प्रवाहित होकर महानदी दक्षिण की ओर मुड़ जाती है। इस दिशा में बहती हुई वह कांकेर (बस्तर) में प्रवेश करती है। तत्पश्चात चारामा के पास वह उत्तर पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती है। धमतरी पहुंचने के पूर्व उत्तर पूर्व दिशा की ओर सरकने लगती है। राजिम्। सिरपुर होते हुए महानदी बलौदाबाजार तहसील में प्रवेश करती है। उससे आगे उत्तर-पूर्व कोने में रायपुर तथा बिलासपुर जिलों की सीमाओं की विभाजन रेखा बनाती हुई शबरीनारायण को पार करती है। शबरीनारायण से पूर्व दिशा की ओर मुड़कर वह रायगढ जिले में प्रवेश करती है। रायगढ जिला पार कर वह सम्बलपुर जिले में प्रवेश करती है। सम्बलपुर और रायगढ जिले की सीमा पर महानदी पर देश प्रसिध्द हीराकुण्ड बांध का निर्माण किया गया है। सम्बलपुर से वह दक्षिण की ओर सोनपुर तक प्रवाहित होती है। सोनपुर में उसका मिलन तेल (पौराणिक नाम उत्पलनी) नदी से होता है। तेल नदी के जल को प्रेम पूर्वक ग्रहण कर महानदी पुनरु पर्व की ओर बहती है। तत्पश्चात कटक होते हुए बंगाल सागर की गोद में समा जाती है।

महानदी की सात बड़ी-बड़ी बहनें हैं-पैरी, जोंक, शिवनाथ, हसदो, मांद, ईब और तेल्। महानदी और ये ‘सतबहनिया’ सम्पूर्ण कोसल के शरीर में नसों की तरह फैली हुई है। उनके पवित्र और निर्मल जल ने कोसल की कला को संस्कृति को अभिषिक्त किया है।

महानदी सिहावा से बंगाल समुद्र तक 965 कि.मी. तक लंबी यात्रा तय करती है। इसके तट और संगम स्थानों पर अनेक तीर्थ और धार्मिक स्थल है जो उसके गौरव गरिमा की वृध्दि करते हैं। सिहावा, रुद्री, राजिम, श्रीपुर, शबरीनारायण धार्मिक महत्व के स्थान हैं। राजिम और शबरीनारायण इस क्षेत्र के सबसे बड़े तीर्थ हैं।

राजिम तथा शबरीनारायण तथा महानदी के अन्य स्थानों पर आस्थि विसर्जन और पितृ तर्पण का अत्यंत धार्मिक महत्व है। इसकी पुष्टि महाभारत के इस श्लोक से होती है-
महानद्यामुपस्पृश्य तर्पयेत पितृदेवता:।
अक्षयान प्राप्नुयाल्वोकान कुलं चेव समुध्दरेत्॥
अर्थात महानदी में स्नान करके जो देवताओं और पितरों का तर्पण करता है, वह अक्षय लोकों को प्राप्त होता है और अपने कुल का भी उध्दार करता है। डा. विष्णु सिंह ने ठीक ही लिखा है कि छत्तीसगढ़ क्षेत्र में महानदी का वही स्थान है जो भारत में गंगा का है। लोग श्री संगम (राजिम) को प्रयाग संगम के समान ही पवित्र मानते हैं। यहां स्नान करने मात्र से मनुष्य के समस्त कल्मश नष्ट हो जाते हैं तथा मृत्योपरांत विष्णुलोक प्राप्त होता है।

महानदी के पौराणिक महत्व को सिध्द करने वाली एक कथा वामन पुराण के अध्याय 50 में कही गयी है। कथा इस प्रकार- एक बार समस्त देवताओं को लेकर देवराज इन्द्र ब्रम्हाजी के पास पहुंचे। उन्होंने उनसे शिकायत की कि बलि ने उनका राज्य छीन लिया है। इन्द्र ने बलि से अपना राज्य वापस लेने का उपाय पूछा। ब्रम्हा ने उनसे कहा तुम देवर्षि कन्या श्रेष्ठ महानदी के पास जाओ, वहां नित्य स्नान करो और उनसे तट पर निवास करते हुए गदाधर (विष्णु भगवान) की अराधना करो। अत: विष्णु की अराधना हेतु देवराज इन्द्र दिव्य नदी महानदी के पुण्य तट पर आए और आश्रम बनाकर रहने लगे।

प्रतिदिन प्रात: काल स्नान कर, भूमि पर शयन करते हुए, एक बार भोजन कर इन्द्र भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए तपस्या करने लगे। सर्वथा जितेद्रिय, काम क्रोध रहित होकर उन्होंने एक वर्ष तक कठोर तपस्या की।

इन्द्र की तपस्या से भगवान विष्णु प्रसन्न हो गये। उन्होंने प्रकट होकर कहा कि तुम अब पाप मुक्त हो गये। तुम शीघ्र अपना राज्य प्राप्त करोगे। तुम्हारा कल्याण हो। महानदी और राजीव लोचन के महत्व को प्रतिपादित करने के लिए यह कथा ही पर्याप्त है।

कुछ पुराणों में महानदी का उद्गम स्थल ॠक्षवन्त या ॠक्षवान पर्वत को बताया गया है। पुराणों के अनुसार ॠक्षवान पर्वत सप्त कुल पर्वतों में से एक है।मत्स्य पुराण में ॠक्षवान पर्वत से निकलने वाली नदियों के नाम इस प्रकार हैं –
मन्दाकिनी दशार्णा च चित्रकूटा तथेव च
तमसा पिप्लीश्येनी तथा चित्रोत्पलाप्पि च॥
विमला चंचला चेव तथा धूतवाहिनी।
शुक्तमंती शुनी लज्जा मुकुटरा दिकापिच॥
ॠक्षवन्त प्रसूतास्तस्तथा मलजाला शुभ॥

वायु, वामन तथा ब्रम्हा पुराण में भी नर्मदा तथा महानदी को ॠक्ष पर्वत से निकली बताया गया है, किन्तु, ब्रम्हाण्ड पुराण में महानदी का उद्गम स्थल विन्ध्य पर्वत कहा गया है। टालेमी ने महानदी का उल्लेख मानद नाम से किया है। उसके अनुसार महानदी उस क्षेत्र से निकलती है, जहां ‘सबराई’ (शबर) लोग निवास करते हैं। शबरीनायाण नाम से ही स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में शबर जाति का निवास था और वे महानदी के तट पर दूर-दूर तक बसे थे।

टालेमी ने यह भी लिखा है कि महानदी के तट पर हीरा की खदान है। इस संदर्भ में वह सम्बलक (सम्बलपुर) का उल्लेख करता है। कोसल में हीरे पाये जाने का उल्लेख वराह मिहिर ने भी किया है।
वेणावटे विशुध्द शिरीष कुसुमोपमंच कोसलकम।
सौरष्ट्रक माताम्रं कृष्ण सापारिक वज्रम॥ (वृहत संहिता, अ-80)
अर्थात कोसल के हीरे विशुध्द और शिरीष के फूल के समान होते थे। प्राचीन काल में कोसल के हीरों की प्रसिध्दि विश्व भर में थी। पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय ने इतिहासकार गिब्बन को उध्दृत करते हुए लिखा है कि सम्बलपुर से हीरों का निर्यात रोम तक होता था। प्रसिध्द चीनी यात्री हुएन सांग ने भी लिखा है कि इस क्षेत्र के हीरे कलिंग के बाजार में बिकते थे। महानदी के जिस स्थान पर हीरे मिलते थे, उस स्थान का नाम हीराकूट था। हीराकुंड बांध इसी स्थान पर निर्मित है।

आलेख

स्व: श्री हरि ठाकुर

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