Home / संस्कृति / लोक संस्कृति / छत्तीसगढ़ी संस्कृति में मितान परम्परा

छत्तीसगढ़ी संस्कृति में मितान परम्परा

“जाति और वर्ग भेद समाप्त कर सामाजिक समरसता स्थापित करने वाली परम्परा”

जग में ऊंची प्रेम सगाई, दुर्योधन के मेवा त्यागे, साग बिदूर घर खाई, जग में ऊंची प्रेम सगाई। जीवन में प्रेम का महत्व इतना होता है कि वह मनुष्य की जीवन लता को सींचता है और पुष्ट कर पुष्पित पल्वित करता है। यह प्रेम प्राप्त होता है मिताई से। ॠग्वेद के संगठन सुक्त की यह सुक्ति “समानो मन्त्र:समिति समानी समानं मन: सह चित्त्मेषाम्” समान विचार धारा पर हृदय में मित्र भाव के उपजने के कारण को बताती है।

सभी संस्कृतियों में परिवार के अतिरिक्त एक मित्र नामक पात्र होता है जो सहोदरों से रिश्तेदारों से बढ़कर होता है। क्योंकि भाई-बहन, माता-पिता कौन होंगे इनका चयन ईश्वराधीन है, परन्तु मित्र और शत्रु का चयन व्यक्ति स्वयं करता है। जब मित्रता की चर्चा होती है तो कृष्ण-सुदामा का स्मरण होता है, शोले फ़िल्म के जय-वीरु का स्मरण होता है। यही मित्रता, मिताई छत्तीसगढ़ अंचल में मितान कहलाती है जो शपथपूर्वक परिजनों एवं समाज की उपस्थिति में ग्रहण की जाती है।

हम अपने किसी हम उम्र के साथ पढ़ाई करते हैं, साथ-साथ काम करते हैं और हमारे विचार अधिकतर समान हो तो स्वभाविक रूप से मित्रता हो जाती है। यदि विचार ऐसे ही मिलते रहे तो मित्रता जीवन भर रहती है। पर मितानी परम्परा में होता यह है कि वही साथ में पढ़ाई करने वाले या काम करने वाले जिनके विचार आपस में मिलते है या कई बार ऐसे छोटे-छोटे बच्चे जिनके पालकगण का विचार मिलता है वे अपने हमउम्र बच्चों को मितान बना लेते हैं।

मितान

हम मित्रता के संबंध में कहें तो लड़का-लड़की, स्त्री-पुरूष भी आपस में मित्र हो सकते हैं और मित्रता में उम्र तथा जाति का बंधन नहीं होता। बीस वर्ष का का युवक भी पचास वर्ष के बुजुर्ग का मित्र हो सकता है और दोनों जीवन पर्यन्त मित्र रह भी सकते हैं। पर मितान ऐसा नहीं है, मितान का संबंध केवल समान लिंग के साथ स्थापित किया जाता है। जो हम उम्र हों और सगे परिवार के न हों जिसमें कोई उम्र बंधन नहीं है वे आपस में चाहे एक एक वर्ष के हो चाहे सौ सौ वर्ष के हो, मितान बद सकते हैं। बदना याने धार्मिक संस्कार पूर्वक मित्रता निभाने की शपथ लेना। मितान बदने में कोई भी जाति बंधन भी नहीं है किसी भी उम्र के और कोई भी जाति के आपस में मितान हो सकते हैं।

प्रारंभिक मित्रता को जब मितान का स्वरूप देना हो तब उसे मितान बदना या मितान बैठना कहा जाता है। मितान बदना एक रस्म की तरह ही है। जब कभी भी मितान बदा जाता है या तो उस दिन कोई पर्व या त्यौहार रहता है, यदि न भी रहे तो उत्सव की तरह ही कार्यक्रम आयोजित कर ईष्ट-मित्र, घर-परिवार, गाँव जन की उपस्थिति में पुरोहित से पूजा अर्चना कर मंत्रोच्चार के साथ मितान बदा जाता है। मितान बदने के कई रूपों में निश्चित पर्वों का होना जरूरी है। हमारे यहाँ मितान को विभिन्न नामों से जाना जाता है, मित्रता निभाने की शपथ के लिए उपयोग की वस्तु के नाम पर मितान का नाम निर्धारित होता है, इस संस्कार को निम्न प्रकार से पूर्ण किया जाता है-

1-महाप्रसाद–

महाप्रसाद जगन्नाथ पुरी जी में पके हुए चांवल को पूरा सुखाकर बनाया जाता है जिसे प्रसादों में श्रेष्ठ प्रसाद कहा जाता, जिसे सूखा होने के कारण सालो-साल रखा जा सकता है। इससे जो लोग मितान बदते हैं वे लोग सभी लोगों की उपस्थिति में पूजा अर्चना मंत्रोच्चार के साथ दोनों व्यक्ति एक-एक नारियल अपने हाथ में लेकर खड़े होते हैं और एक दूसरे के नारियल को सात बार अदला बदली करते हैं और नारियल को नीचे रखकर एक दूसरे के बायें कान में दूब खोंसकर एक दूसरे को थोड़ा-थोड़ा महाप्रसाद खिलाते हैं और आपस में गले मिलते हैं, सीताराम होता हैं। तदुपरान्त पुरोहित दोनों को कैसे मितानी निभाना है इसकी शिक्षा देते हैं। नारियल तोड़कर प्रसाद वितरण किया जाता है दोनों मितान हो जाते हैं तदुपरांत पंडित जी और सभी बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद लिया जाता है। इस तरह से मितान बदने में महाप्रसाद का प्रयोग होने के कारण मितान को मितान के साथ-साथ महाप्रसाद भी कहा जाता है।

2-गंगाजल

मितान का एक नाम और प्रकार गंगाजल भी है। मितान बदते समय महाप्रसाद के स्थान पर यदि गंगाजल का प्रयोग किया जाता है तब मितान को मितान के साथ-साथ गंगाजल भी कहा जाता है, शेष प्रक्रिया पूर्ववत रहती है।

3-तुलसीदल–

तुलसीदल भी मितान का एक नाम और प्रकार है। छत्तीसगढ़ में जब कभी भी श्रीमद्भागवत पुराण की कथा चलती रहती है उसमें एक दिन की कथा को तुलसी वर्षा के नाम से जाना जाता है, उस दिन श्रीमद्भागवत पुराण के समक्ष तुलसी की पत्तियों की वर्षा की जाती है। महाप्रसाद के स्थान पर यदि तुलसीदल का प्रयोग करने वाले मितान तुलसीदल होते हैं। इस प्रकार के मितान को कथा पंडाल के समक्ष ही बदा जाता है।

4-गजामूंग–

रथ यात्रा त्यौहार के दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और बहन सुभद्रा के रथ का नगर भ्रमण किया जाता है, उस दिन अंकुरित मूंग, चना और धान के लावा का प्रसाद वितरित किया जाता है। जिसे स्थानीय गजामूंग कहते है। गजामूंग से मितान बदने के लिए महाप्रसाद के स्थान पर गजामूंग का प्रयोग किया जाता है और गजामूंग रथयात्रा के दिन बदा जाता है।

5-जंवारा–

छत्तीसगढ़ में भी अन्य प्रांतों की तरह वर्ष में दो बार नवरात्रि पर्व मनाया जाता है लेकिन छत्तीसगढ़ में नवरात्रि में नवरात्रि दुर्गा पूजा के साथ साथ जंवारा भी बोया जाता है। जंवारा नवरात्रि में सात या नौ प्रकार के धान्य यथा गेंहू, धान, जौ, उड़द, मूंग, तिल, अरहर, मक्का, ज्वार इत्यादि जिसमें गेंहू की अधिकता होती है। इसे पूजा स्थल पर विशेष तकनीक से उगाया जाता है जो कई बार मात्र नवरात्रि में ही एक फुट ऊँचाई तक हो जाता है जंवारा कहलाता है। जंवारा से मितान बदना, जंवारा विसर्जन के पश्चता होता है। जंवारा को महाप्रसाद की तरह एक दूसरे को खिलाया नहीं जाता बल्कि केवल एक दूसरे के कान में ही खोंसकर प्रक्रिया पूर्ण की जाती है।

6-भोजली–

भोजली बोने के पर्व को छत्तीसगढ़ में एक तरह से तीसरी छोटी वाली नवरात्रि कहा जा सकता है। जो भादो मास में कृष्ण जन्माष्टमी से पोला के मध्य मनाया जाता है। इसमें भी जंवारा उगाया जाता है जिसे जंवारा न कहकर भोजली कहा जाता है। भोजली को भी विसर्जन उपरांत एक दूसरे के कान में खोंचकर बदा जाता है जिसे भोजली कहा जाता है और मितान भी कहा जाता है शेष प्रक्रिया पूर्ववत रहती है।

7-सखी–

मितान के एक नाम और प्रकार में सखी भी है। सखी मितान केवल लड़की-लड़की ही बदती हैं, पुरूष वर्ग सखी नहीं बदते, इसमें महिलाएं किसी भी फूल को एक दूसरे के कान में खोंचकर बदते हैं, शेष प्रक्रिया वही रहती है। सखी या अन्य पर्व विशेष में जो मितान बदते हैं उसमें निजी आयोजन करना अति आवश्यक नहीं होता है।

उपरोक्त मितान बदे जाने के संस्कार और प्रकारों का वर्णन है, जो मेरी जानकारी में थे जो हमारे आसपास प्रचलित हैं। मितान बदे जाने के उपरांत मितानी को निभाने का भी लोक संस्कृति के अनुसार अपना तरीका है। मितान एक दूसरे का नाम नहीं लेते और एक दूसरे के पति या पत्नि का भी नाम नहीं लेते बल्कि मितान या मितानिन कहकर संबोधित करते हैं। जैसे कोई स्त्री या पुरूष मितान बदते हैं तो एक दूसरे के पति या पत्नि स्वतः ही मितान या मितानिन हो जाते हैं।

मितान के पति या पत्नी के साथ जेठ और भाई बहु कि तरह ही दूरी बनाकर रखा जाता है स्पर्श नहीं किया जाता और एक दूसरे के माता-पिता भी आपस में मितान और मितानिन हो जाते हैं, वे भी आपस में इसी तरह मान गुन से रहते हैं, माता जी, पिता को और पिता जी माता को स्पर्श नहीं करते। एक दूसरे के माता-पिता को फूल बाबू या फूलददा और फूलदाई कहा जाता है। बाकी के संबंध जैसे सगे भाई के संबंध रहते हैं उसी तरह रहते हैं।

मितान और उनके पति या पत्नी या उनके माता-पिता परस्पर जब भी दिन में प्रथम बार मिलते हैं, तो सीताराम होते हैं। सीताराम होने की भी अपनी रीति है। सीताराम एक अभिवादन का एक विशेष तरीका है, दोनों परस्पर अपने हाथों को सीने के समक्ष जोड़कर दोनों एक दूसरे के हाथों को स्पर्श करके अपने हाथों को जोड़े हुये अपने मस्तक तक ले जाकर सीताराम मितान कहा जाता है यह मितानों के बीच अभिवादन का तरीका है।

मितान के संबंध स्थापित होने के बाद आशा और विश्वास स्थापित किया जाता है कि दोनों मितान एक दूसरे के साथ और उनके परिवार के साथ सगे संबंधियों से बढ़कर भी संबंध निभाएंगे और कभी भी विवाद नहीं करेंगे, एक दूसरे का सम्मान करेंगे, दोनों मन में एक दूसरे के परिवार के प्रति निश्छल, निष्कपट भाव रखेंगे तथा एक दूसरे के सुख दुःख में सहयोग करेंगे।

ऐसी मान्यता रही है कि समय के साथ-साथ सभी सगे रिश्तों के मध्य दूरियाँ स्वतः बनती चली जाती है पर मितान का संबंध ज्यों का त्यों स्थायी बना रहता है। उसका मूल्य आजीवन दृढ़ बना रहता है। इसीलिए छत्तीसगढ़ में कहावत प्रचलित है कि “सुख में समधियान अउ बीपत में मितान।” इसका अर्थ है कि सुख में समधी या भाई बंधू तथा दुख में मितान काम आता है।

आजकल हमारी छत्तीसगढ़ की सरकार भी अपने विभिन्न योजनाओं और पद के नाम में मितान और मितानिन शब्दों का प्रयोग कर रही है। जैसे किसान-मितान, मुख्यमंत्री मितान योजना, गाँवों में जो स्वास्थ्य सेविका होती है उसे मितानिन कहा जाता है। क्योंकि जिसने मितान शब्द का भाव समझा, मितान उच्चारण सुनकर ही उसका हृदय तरंगित हो उठता है। ऐसी हमारी संस्कृति है, ऐसी हमारी सभ्यता है जो जाति और वर्ग का भेद समाप्त कर मितान हो जाती है।

आलेख एवं चित्र

श्री सुनील शुक्ल
बागबाहरा, छत्तीसगढ़

About noadmin

Check Also

“सनातन में नागों की उपासना का वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और जनजातीय वृतांत”

शुक्ल पक्ष, पंचमी विक्रम संवत् 2081 तद्नुसार 9 अगस्त 2024 को नागपंचमी पर सादर समर्पित …

One comment

  1. प्रो अश्विनी केसरवानी

    बहुत सुंदर आलेख।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *