भारतीय संस्कृति में वृक्षों की बड़ी महत्ता है। वृक्षों को ‘देव’ माना गया है। हमारी संस्कृति में पीपल, बरगद, नीम, आम, आंवला इत्यादि वृक्ष पूजनीय है, इन्हें ग्राम्य वृक्ष माना गया है। इसी कारण वृक्षों को न ही काटने की परंपरा है न ही जलाने की। आज भी गाँव में इन वृक्षों के लकड़ी को जलाऊ के रूप में उपयोग नहीं किया जाता। यह जनजातीय संस्कृति की देन है।
स्नानादि करने के बाद वृक्षों को जल देने की परंपरा में वृक्षों के संरक्षण का ही भाव छिपा हुआ है। इन वृक्षों को ‘देव’ रूप में मानने का वैज्ञानिक आधार भी है। यदि हम अपनी परंपराओं का विश्लेषण करें, तो यह स्पष्ट होता है कि परंपरा का उद्भव मानव जीवन के विकास के लिए हुआ है।
यदि हम तुलसी के पौधे पर ही बातें करें तो स्पष्ट है, तुलसी चौबीसों घंटे ऑक्सीजन प्रदान करती है, पर्यावरण को शुद्ध रखती है, यही नहीं तुलसी के पौधे कितने ही सारे औषधि गुणों से युक्त हैं। यदि इन परंपराओं का सम्यक उद्भव नहीं हुआ होता तो पर्यावरण आज से कई सौ साल पहले नष्ट हो गया होता और मानव जाति खतरे में होता।
जनजातीय संस्कृति की अपनी एक विशेषता है। बारीकी से हम जनजातीय संस्कृति, परंपरा, लोक जीवन और पर्वों का अध्ययन करें, तो अनके विकासात्मक तत्व दृष्टिगोचर होते हैं। लोग सदियों से जनजातीय को पिछड़ा मानते रहे हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। जनजातीय संस्कृति में जो परंपराएँ हैं, उन सबका वैज्ञानिक दृष्टिकोण और संवेदना से युक्त मानवीय आधार है।
हाँ, हम यह कह सकते हैं कि वनवासी समाज तक शिक्षा का प्रकाश बहुत विलंब से पहुंचा है। वे औपचारिक शिक्षा इसलिए ग्रहण नहीं कर पाये, क्योंकि वे बीहड़ जंगलों में निवास करते थे। उनके पास आवागमन के पर्याप्त साधन नहीं थे। भले ही वे औपचारिक शिक्षा से दूर रहे परन्तु अपने अनौपचारिक स्रोतों से भलीभांति शिक्षित होते रहे हैं।
सामाजिकता में शाँति, समरसता, भाईचारे का भाव उनके अंदर सदैव से रहा है। वे अपनी न्यून आवश्यकता के कारण सदैव संतुष्ट रहे और अपने बुजुर्गों से प्राप्त परंपरागत शिक्षा का उपयोग जीवन को सार्थक बनाने के लिए करते रहे। यही परम्परागत शिक्षा मानव के जीवन का मूल आधार है और अत्यावश्यक भी है।
वनवासियों की अपनी भाषा, संस्कृति एवं परंपराएँ हैं। इन परंपराओं में सामूहिक जीवन, सामूहिक उत्तरदायित्व और भावनात्मक संबंध कूट-कूटकर भरे हुए हैं। यही कारण है कि इनमें परस्पर विश्वास एवं स्वाभाविक संबंध कायम रहता है। ये केवल सहज, सरल, प्राकृतिक जीवन जीते हैं और यही प्राकृतिक जीवन पर्यावरण संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण कारक है।
छत्तीसगढ़ के जनजातीय समाज में मानव समुदाय के बीच संबंध के अनेक रूप मिलते हैं जिसमें एक टोटम है। यह ऐसा ही संबंध है जैसे एक माँ से जन्मे भाई-बहन के बीच का होता है। यह संबंध प्राणी जगत के साथ अनेक रूपों में दिखाई पड़ता है। इन संबंधों को टोटमवाद कहा जाता है।
वनवासी अपने को किसी प्रकार के टोटम से संबद्ध मानता है, उनसे अपना अनुवांशिक रिश्ता जोड़ता है। यह टोटम किसी जानवर, किसी पक्षी या वृक्ष से होता है। इन्हीं संबंधों के आधार पर वे इनके प्रति विश्वास, श्रद्धा, भक्ति और आदरभाव रखते हैं और उनकी आराधना करते हैं।
टोटम पर यदि कोई विपत्ति आती है, तो संबंधित जनजाति पर यह विपत्ति संभावित मानी जाती है। वे टोटम से संबंधित जीव को छूना, मारना, मारकर खाना पसंद नहीं करते। टोटम एक तरह से गणचिह्न हैं, जो किसी समाज के उस विश्वास को प्रकट करते हैं जिसका उनके जीवन से व्यापक सरोकार है।
यदि हम टोटम का विश्लेषण करें, तो यह विशुद्ध रूप से मानववाद और प्रकृतिवाद का अतुलनीय उदाहरण है । एक-दूसरे से अन्योयाश्रित संबंध। टोटम का संबंध शायद जीव-जगत से लगाव व प्रकृति से प्रेम हो सकता है, जो कि प्रकृति संरक्षण का आदिम नियम है ।
यह स्वाभाविक है कि हम जिस पशु को पालते हैं उससे हमारा लगाव हो जाता है, ठीक उसी प्रकार हम अपने द्वारा रोपे गए पौधों को नहीं काटते। इसी भाव ने धीरे-धीरे परंपरा का रूप ले लिया। जो आज जैविक संतुलन व पर्यावरण को संरक्षित करने में अपनी अहम भूमिका रखता है।
टोटम में निर्धारित जीव व वृक्ष का किसी न किसी तरह मानव जीवन से निकटम संबंध रहा है। यह पर्यावरण को सुरक्षित रखने में सहायक है। हम यह भी कह सकते हैं कि इस परंपरा के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किसी न किसी जीव को बचाने के लिए संकल्प लिया जाता है। इस तरह के संकल्प से न केवल जीव जगत और जंगल का संरक्षण होता है, बल्कि मानव जीवन के विकासात्मक दृष्टिकोण का प्रतिपादन भी होता है।
टोटम पर चर्चा करते हुए गोंड समाज के प्रमुख श्री भरतलाल कोर्राम ने बताया कि गोंड समाज में 750 गोत्र हैं, जो कि 100-100 के समूह में 07 उपभागों में विभाजित हैं। 50 गोत्र गुरु गोत्र हैं। प्रत्येक गोत्र के तीन-तीन टोटम है। एक पशु, एक पक्षी और वृक्ष। इस टोटम परंपरा के माध्यम से हम वनवासी 2250 जीवों का संरक्षण करते हैं। यह परम्परा मूलतः पारिस्थितिक तंत्र पर आधारित है । यह रक्षण और भक्षण के सिद्धांत पर आधारित है। टोटम एक तरह से रक्ष् संस्कृति है। ‘रक्ष्’ अर्थात् रक्षा करना। इस तरह पर्यावरण का संरक्षण हमारी परंपरा का हिस्सा है।
हम यह कह सकते हैं कि वनवासी मन और आत्मा से पर्यावरण से जुड़ा हुआ है। यही जुड़ाव उनकी सामाजिक परंपराओं को परिलक्षित होता है। पर्यावरण से संबंधित वनवासी समाज का ज्ञान, समझ और अनुभव व्यापक है। यही समझ उसकी सांस्कृतिक धरोहर का आधार है।
किन्तु यह भी चिंता का विषय है कि तथाकथित शिक्षित जनजातीय समाज व युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति व धरोहरों से दूर होती जा रही है। इस पर केवल वनवासी समाज को ही नहीं बल्कि पूरे मानव समाज को विचार करना होगा और इन प्राचीन परंपराओं को अपने जीवन के साथ जोड़कर पर्यावरण संतुलन को बनाएँ रखने में अपना योगदान देना होगा।
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