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जिनके चौबीस गुरु थे : भगवान दत्तात्रेय

भगवान दत्तात्रेय की माता अनुसइया एवं पिता अत्रि थे। दत्तात्रेय को विष्णु का अवतार माना जाता है। दत्तात्रेय के अन्य दो भाई चंद्र देव और ऋषि दुर्वाशा थे। चंद्रमा को ब्रह्मा और ऋषि दुर्वाशा को शिव का रूप ही माना जाता है। जिस दिन दत्तात्रेय का जन्म हुआ आज भी उस दिन को हिन्दू धर्म के लोग दत्तात्रेय जयंती के तौर पर मनाते हैं।

इस बालक में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव, तीनों की ही शक्तियां विद्यमान थीं। सृजनशीलता बहुत से लोगों में होती है, पर सभी लोग इसका सदुपयोग नहीं कर पाते। सृजनशीलता का आरंभ तो अच्छा कर देते हैं लेकिन उसे निरंतर बनाए नहीं रख सकते। सृजनशीलता ही “ब्रह्मा शक्ति” है। यदि हमारे भीतर ब्रह्म शक्ति है, तो हम सृजन तो कर लेते हैं परन्तु ये नहीं जानते कि उसे कायम कैसे रखा जाए।

किसी कार्य अथवा बात को बनाए रखना या कायम रखना “विष्णु शक्ति” है। हमें ऐसे अनेक लोग मिल जाते हैं जो अच्छे प्रबंधक या पालक होते हैं। वे सृजन नहीं कर सकते परन्तु यदि उन्हें कुछ सृजन कर के दे दिया जाए तो वे उसे अत्युत्तम ढंग से बनाये रखते हैं। अतः व्यक्ति में विष्णु शक्ति अर्थात सृजित को बनाए रखने की शक्ति का होना भी अत्यंत आवश्यक है।

इसके पश्चात् आती है ‘शिव शक्ति’ जो परिवर्तन या नवीनता लाने की शक्ति होती है। अनेक लोग ऐसे होते हैं जो चल रही किसी बात या काम को केवल कायम या बनाए रख सकते हैं परन्तु उन्हें ये नहीं पता होता है कि परिवर्तन कैसे लाया जाता है या इसमें नए स्तर तक कैसे पहुंचा जाये। अतः शिव शक्ति का होना भी आवश्यक है। इन तीनों शक्तियों का एक साथ होना “गुरु शक्ति” है। गुरु या मार्गदर्शक को इन तीनों शक्तियों का ज्ञान होना चाहिए।

दत्तात्रेय की भीतर ये तीनों शक्तियां विद्यमान थीं, सच्चे अर्थों में वे गुरु शक्ति के प्रतीक थे। मार्गदर्शक, सृजनात्मकता, पालनकर्ता एवं परिवर्तनकर्ता सभी शक्तियां एक साथ विराजमान थी उनमे। दत्तात्रेय ने हर एक चीज से सीखा। उन्होंने समस्त सृष्टि का अवलोकन किया और सबसे कुछ न कुछ ज्ञान अर्जित किया।

असंवेदनशील से संवेदनशीलता की राह पर चलने का सन्देश –

श्रीमद भागवत में उल्लिखित है कि “यह बहुत ही रोचक है कि उन्होंने कैसे एक हंस को देखा और उससे कुछ सीखा, उन्होंने कौवे को देख कर भी कुछ सीखा और इसी प्रकार एक वृद्ध महिला को देख कर भी उससे ज्ञान ग्रहण किया।”

उनके लिए चारों तरफ ज्ञान बह रहा था। उनकी बुद्धि और ह्रदय ज्ञानार्जन एवं तत्पश्चात उसे जीवन में उतारने के लिए सदैव उद्यत रहते थे। अवलोकन (प्रेक्षण) से ज्ञान आता है और अवलोकन या प्रेक्षण के लिए संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है। यदि हम अपनी ही दुनिया में उलझ के रह गए हैं तो हम अपने आस-पास के लोगों से मिलने वाले संदेशों के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं।

जब लोग अपनी बातों को ज्यादा महत्त्व देने लगते हैं तो दूसरों के दृष्टिकोण पर उनकी नज़र जाती ही नहीं है। और ऐसे लोग ये भी मानते हैं कि उनकी धारणा बिलकुल सही है जबकि हम सभी जानते हैं कि वे सही नहीं हैं।

दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं इसीलिए उन्हें ‘परब्रह्ममूर्ति सद्गुरु’और ‘श्रीगुरुदेवदत्त’भी कहा जाता हैं। उन्हें गुरु वंश का प्रथम गुरु, साथक, योगी और वैज्ञानिक माना जाता है। हिंदू मान्यताओं अनुसार दत्तात्रेय ने पारद से व्योमयान उड्डयन की शक्ति का पता लगाया था और चिकित्सा शास्त्र में क्रांतिकारी अन्वेषण किया था।

हिंदू धर्म के त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रचलित विचारधारा के विलय के लिए ही भगवान दत्तात्रेय ने जन्म लिया था, इसीलिए उन्हें त्रिदेव का स्वरूप भी कहा जाता है। दत्तात्रेय को शैवपंथी शिव का अवतार और वैष्णवपंथी विष्णु का अंशावतार मानते हैं। दत्तात्रेय को नाथ संप्रदाय की नवनाथ परंपरा का भी अग्रज माना है। यह भी मान्यता है कि रसेश्वर संप्रदाय के प्रवर्तक भी दत्तात्रेय थे। भगवान दत्तात्रेय से वेद और तंत्र मार्ग का विलय कर एक ही संप्रदाय निर्मित किया था।

भगवान दत्तात्रेय ने जीवन में कई लोगों से शिक्षा ली। दत्तात्रेय ने अन्य पशुओं के जीवन और उनके कार्यकलापों से भी शिक्षा ग्रहण की। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि जिससे जितना-जितना गुण मिला है उनको उन गुणों को प्रदाता मानकर उन्हें अपना गुरु माना है, इस प्रकार मेरे 24 गुरु हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, कपोत, अजगर, सिंधु, पतंग, भ्रमर, मधुमक्खी, गज, मृग, मीन, पिंगला, कुररपक्षी, बालक, कुमारी, सर्प, शरकृत, मकड़ी और भृंगी।

ब्रह्माजी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता तथा कर्दम ऋषि की कन्या और सांख्यशास्त्र के प्रवक्ता कपिलदेव की बहन सती अनुसूया इनकी माता थीं। श्रीमद्भागवत में महर्षि अत्रि एवं माता अनुसूया के यहाँ त्रिदेवों के अंश से तीन पुत्रों के जन्म लेने का उल्लेख मिलता है।

दत्तात्रेय के शिष्य : उनके प्रमुख तीन शिष्य थे जो तीनों ही राजा थे। दो यौद्धा जाति से थे तो एक असुर जाति से। उनके शिष्यों में भगवान परशुराम का भी नाम लिया जाता है। तीन संप्रदाय (वैष्णव, शैव और शाक्त) के संगम स्थल के रूप में भारतीय राज्य त्रिपुरा में उन्होंने शिक्षा-दीक्षा दी। इस त्रिवेणी के कारण ही प्रतीकस्वरूप उनके तीन मुख दर्शाएँ जाते हैं जबकि उनके तीन मुख नहीं थे।

पुराणों अनुसार इनके तीन मुख, छह हाथ वाला त्रिदेवमयस्वरूप है। चित्र में इनके पीछे एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। औदुंबर वृक्ष के समीप इनका निवास बताया गया है। विभिन्न मठ, आश्रम और मंदिरों में इनके इसी प्रकार के चित्र का दर्शन होता है।

मान्यता अनुसार दत्तात्रेय ने परशुरामजी को श्रीविद्या-मंत्र प्रदान की थी। यह मान्यता है कि शिवपुत्र कार्तिकेय को दत्तात्रेय ने अनेक विद्याएँ दी थी। भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें श्रेष्ठ राजा बनाने का श्रेय दत्तात्रेय को ही जाता है।

दूसरी ओर मुनि सांकृति को अवधूत मार्ग, कार्तवीर्यार्जुन को तन्त्र विद्या एवं नागार्जुन को रसायन विद्या इनकी कृपा से ही प्राप्त हुई थी। गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेय की भक्ति से प्राप्त हुआ।

आदौ ब्रह्मा मध्ये विष्णुरन्ते देवः सदाशिवः
मूर्तित्रयस्वरूपाय दत्तात्रेयाय नमोस्तु ते।
ब्रह्मज्ञानमयी मुद्रा वस्त्रे चाकाशभूतले
प्रज्ञानघनबोधाय दत्तात्रेयाय नमोस्तु ते।।

भावार्थ – जो आदि में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अन्त में सदाशिव है, उन भगवान दत्तात्रेय को बारम्बार नमस्कार है। ब्रह्मज्ञान जिनकी मुद्रा है, आकाश और भूतल जिनके वस्त्र है तथा जो साकार प्रज्ञानघन स्वरूप है, उन भगवान दत्तात्रेय को बारम्बार नमस्कार है। (जगद्गुरु श्री आदि शंकराचार्य)

आलेख

श्रीमती संध्या शर्मा सोमलवाड़ा, नागपुर (महाराष्ट्र)

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