स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी भारत में सुलग रही थी और राजे-रजवाड़े अंग्रेजी दमन के कारण अंग्रेजों के खिलाफ़ लामबंद हो रहे थे। उस समय यह स्वतंत्रता आन्दोलन पूरे भारत में फ़ैल रहा था। छत्तीसगढ़ अंचल भी इससे अछूता नहीं था। यहाँ भी 1857 के आन्दोलन में स्वतंत्रता की चाह लिए अंग्रेजों के विरोध में सशस्त्र क्रांति कर रहे थे और उन्होंने अपने जीवन का बलिदान भी किया। इनमें वीरनारायण सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
शहीद वीरनारायण सिंह का जन्म 1795 में सोनाखान के जमींदार रामसराय के यहाँ हुआ। 35 साल की आयु में उन्हें पिता से जमींदारी मिली। माना जाता है कि सत्रहवीं शताब्दी में सारंगढ़ जमींदार के वंशजों द्वारा सोनाखान राज्य की स्थापना की गयी। सोनाखान का प्राचीन नाम सिंघगढ़ था, कालांतर में वहां सोने की खदान होने की जानकारी मिलने पर उस जगह का नाम सोनाखान पड़ गया ।
सोनाखान के युवराज नारायण सिंह को उनकी वीरता के कारण ब्रितानिया सरकार ने उन्हें “वीर” की उपाधि से सम्मानित किया था। कहा जाता है कि युवराज नारायण सिंह अपने घोड़े पर सवार होकर अपनी रियासत का हालचाल लेते थे। एक बार उन्हें अपने रियासत क्षेत्र सोनाखान में एक नरभक्षी शेर का पता चला, जिसके आतंक से प्रजा भयभीत थी।
युवराज नारायण सिंह ने उस नरभक्षी को ढूंढकर अपनी तलवार से ढेर कर दिया। ब्रिटिश अधिकारीयों को जब युवराज के शौर्य का पता चला तो उन्होंने युवराज नारायण सिंह को “वीर” की उपाधि दी। इस सम्मान के बाद से युवराज वीरनारायण सिंह बिंझवार के नाम से प्रसिध्द हुए।
वीर नारायण सिंह अपनी देशभक्ति, निडरता, परोपकारिता और न्यायप्रिय होने के कारण जल्दी ही लोगों के जननायक बन गये| युवराज नारायण सिंह अपनी प्रजा के प्रति अपनीं सहृदयता के लिए प्रसिद्द थे। सन् 1856 में जब भयानक अकाल पड़ा तब अंग्रेजी हुकूमत ने जनता की मदद न कर उनपर तरह से दमनकारी नीतियों का प्रयोग करना शुरू कर दिया।
दमन देखकर नारायण सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी तथा उन्होंने अपनी प्रजा की रक्षा के लिए हजारों किसानों को साथ लेकर कसडोल के जमाखोर अनाज व्यापारी माखनलाल के गोदामों पर धावा बोलकर सारे अनाज लूट लिए व दाने-दाने को तरस रहे अपने प्रजा में बांट दिए।
इस घटना की शिकायत माखनलाल ने उस समय डिप्टी कमिश्नर इलियट से की गई। इस घटना को सोनाखान का विरोध के नाम से भी जाना जाता है। नारायण सिंह को अक्टूबर 1856 में सम्बलपुर से बंदी बना लिया गया
17 मई 1857 को मेरठ की छावनी से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आरम्भ हुआ तब वीरनारायण सिंह साथियों के साथ जेल में बंद थे। स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हो चुकी है यह सुनकर वीर नारायण सिंह आपने तीन साथियों सहित अगस्त 1857 को जेल से भाग निकले।
जेल से भागकर वीर नारायण सिंह सोनाखान पहुंचे जहाँ उन्होंने अंग्रेजों से लड़ने के लिए लगभग 500 बंदूकधारियों की एक सेना बनाई तथा कुर्रूपाट डोंगरी को अपना आश्रय बना लिया। ज्ञातव्य है कि “कुर्रूपाट”, गोड़, बिंझवार राजाओं के देवता हैं। ब्रिटिश सरकार के कमिश्नर इलियट ने कैप्टन स्मिथ को वीर नारायण सिंह को पकड़ने का जिम्मा सौंपा।
देवरी के जमींदार और नारायण सिंह के बहनोई तथा अन्य जमींदारों के सहयोग से कैप्टन स्मिथ ने नारायण सिंह के साथ युद्ध किया और उन्हें पकड़ लिया गया, वीर नारायण सिंह पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया अंततः वीर नारायण सिंह को 10 दिसम्बर 1857 को वर्तमान रायपुर के जयस्तंभ चौक पर फांसी दे दी गई एवं बाद में उनके शव को तोप से उड़ा दिया गया और इस तरह से भारत के एक सच्चे देशभक्त की जीवनलीला समाप्त हो गई।
राज्य शासन तथा आदिम जाति कल्याण विभाग ने उनकी स्मृति में “शहीद वीर नारायण पुरस्कार” की स्थापना की है। इसके तहत राज्य के अनुसूचित जनजातियों में सामाजिक चेतना जागृत करने तथा उत्थान के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले व्यक्तियों तथा स्वैच्छिक संस्थाओं को दो लाख रुपए की नगद राशि व प्रशस्ति पत्र देने का प्रावधान है।
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