नदी-कछार, जंगल-पहार, खेत-खार, पशु-पक्षी यानी कि प्रकृति ने मेरे बालमन को सदैव अपनी ओर आकर्षित किया है। 40 वर्षों तक पढ़ते-पढ़ाते स्कूल में बच्चों के बीच रहा। सेवा-निवृत्ति के बाद आज भी मेरे अंतस मे बाल स्वभाव नित हिलोरें लेता है। बच्चों को देखकर मन स्मृतियों में खो जाता है।
कल की ही बात है हमारे मित्र शिक्षक हैं भाई पन्ना लाल जंघेल शा.पूर्व मा.शाला अचानकपुर में प्रधान पाठक के पद पर पदस्थ हैं । उनका फोन आया । कहा-“भैया कल शनिवार को बैगलेस डे है। इस दिन बच्चे बिना बस्ता के आते हैं। कला-साहित्य,संगीत,खेलकूद से संबधित विभिन्न कार्यक्रम होते हैं। इससे बच्चों की प्रतिभा सामने आती है। बच्चे सीखते हैं। आप आ जाते तो बच्चे खुश हो जाते।”
मैंने कहा- “नेकी और पूछ-पूछ” मेरे बालमन को ऐसे मौकों की तलाश रहती है । मैंने हामी भर दी। रात में हमारे साहित्यकार मित्र श्री राजकुमार मसखरे जी जो शा.प्रा.शाला गहिराटोला में प्रधान पाठक हैं,उनका भी फोन आ गया कि सर आपको आना है अचानकपुर । मै वहीं मिलूँगा । ख़ुशी दोहरी हो गई । सोने में सुहागा । मैंने कहा-“जरुर आऊँगा” ।
शनिवार की सुबह वादे के मुताबिक मैं 9:30 बजे प्रातः अचानकपुर पहुंच गया । गंडई से 16 कि.मी. दूर जंगलों के बीच मुख्य सड़क पर स्थित है प्राथमिक शाला व माध्यमिक शाला एक ही परिसर में । रंग-रोगन से भरपूर मनमोहक चित्रों से सजी-धजी दीवारें बरबस ही राहगीरों को आकर्षित करती हैं। और आकर्षित करते हैं यहाँ के बच्चे। सभी गणवेश में और अनुशासित। ये बच्चे,फूलों की तरह मुस्काते और पंछियों की तरह फुदकते। बच्चे मन को आहालदित कर गए।
स्कूल और बच्चों को देखकर मन उत्साह से भर गया। वहाँ सारी व्यवस्था हो गई थी। सभी बच्चे कतार बद्ध कक्षा वार बैठ गए थे। स्वागत-सत्कार की औपचारिकताओं और परिचय का दौर समाप्त हुआ तो मै बच्चो से मुखातिब हुआ। बच्चे खुश थे, उनसे ज्यादा मैं खुश था, काफी अरसे के बाद अपने को बच्चों के बीच पाकर।
मैंने अपने शिक्षकीय जीवन में बच्चों को पढाने के बजाय बच्चों को पढ़ने पर ज्यादा ध्यान दिया है। नवाचारों को प्रमुखता दी हैं। इसलिए अचानकपुर के ये बच्चे मुझे अपने ही बच्चे लगे। मै जानता हूँ बच्चे क्या चाहते हैं ? उन्हें मनोरंजन चाहिए। अब यह हमारी कुशलता पर निर्भर करता है कि हम मनोरंजन के साथ शिक्षा की बातें किस तरह शामिल कर पाते हैं।
आज का विषय था “स्थानीय कला-साहित्य पुरातत्व संस्कृति और पर्यटन। गंडई क्षेत्र की कला साहित्य, पुरातत्व, संस्कृति और पर्यटन की दृष्टि से पूरे छत्तीसगढ़ में अपनी विशिष्ट पहचान कायम करता है। शुरूआत छत्तीसगढ़ी गीत से की। बच्चे ताली बजा कर साथ गाने लगे। कुछ छत्तीसगढ़ी जनौला से बच्चों का ज्ञानवर्धन और मनोरंजन हुआ। इस बीच कुछ ग्रामवासी भी आ गए, उनके चेहरों पर भी ख़ुशी समा गई।
अब लोककथा की बारी थी। ‘चार पइसा के चार गीत’ लोककथा सुनकर बच्चो की हँसी और ख़ुशी का ठिकाना न रहा। कहा जाबे ओ डोकरी गीत में डोकरी का अभिनय दिखाया। गीत – कविता, जनौला और कहानी सुनाते डेढ़ घंटा कब बीत गया ? पता ही नहीं चला। अंत में बच्चो ने मंढिप खोल, सुरही नदी, घटियारी, नर्मदा कुंड, डोंगेश्वर महादेव, भाँड़देऊर आदि पर प्रश्न किया। उत्तर सुनकर बच्चों का ज्ञान वर्धन हुआ। मसखरे जी ने कविता सुनाई खैरागढ़ जिला के संदर्भ में। अब मध्यान्ह भोजन की बारी थी। शाला परिवार का आग्रह ठुकरा न सका। सबके साथ भोजन कर पेट के साथ मन भी तृप्त हुआ।
अब घर चलने की तैयारी थी। मसखरे जी ने आग्रह किया –“चलो सर घर चलें भदेरा।” मैंने कहा – “आपके घर चलने के बजाय जंगल चलते हैं घूमने।” वहाँ इस बात पर अन्य शिक्षक भी सहमत हो गए। यहाँ तो चारों ओर जंगल ही जंगल है। प्रश्न खड़ा हुआ कि किस जंगल में चलें ? तीन साल से मेरे मन मे धांस जलधारा देखने की इच्छा थी।
प्रकृति प्रेमी भाई हारून मेमन और डॉ.मांघीलाल यादव ने बताया था कि ‘धांस’ बड़ा मनोरम स्थल है, पर रास्ता सुगम नहीं है। लगभग पाँच किलोमीटर मोटर सायकल से यात्रा होगी और फिर उतनी ही यात्रा पैदल करनी होगी। कई बार वहाँ जाने की योजना बनी पर जानकार साथी या कहें मार्गदर्शक नहीं मिलने के कारण यात्रा नहीं हो पाई। काफी दुर्गम रास्ता है। इसलिए लोग वहाँ नहीं पहुँच पाते। साथियों का उत्साह देख मन आतुर हुआ और हम निकल पड़े ‘धांस’ जल धारा देखने।
प्रकृति प्रेमी शिक्षक श्री चेतराम वर्मा, श्री भावेश्वर पटेल, श्री राजकुमार मसखरे और मैं। हम चारों अपने-अपने दुपहिया वाहन से पैलीमेटा पहुँचे और दो मोटर सायकल को परिचित की दुकान में छोड़कर दो-दो सीट मोहगांव की ओर बढ़े। जानकारी यह थी कि मोहगांव जंगल से ही ‘धांस’ के लिए रास्ता है।
मैंने मोहगांव के परिचित साथी मोहन जंघेल को अपने आने की जानकारी और धांस चलने का निमंत्रण दिया। उन्होंने बताया कि वे सिंगारपुर गाँव गए हुए हैं। अतः हम मोहगांव के ही साथी कुमलाल वर्मा की दवाई दुकान मे पहुँचे । वे बड़े खुश हुए ।
आने का प्रयोजन बताया और साथ चलने का आग्रह किया तो बताया कि आज पितर पाख की नवमी है । उनके घर पीतर का कार्यक्रम है । साथ चलने में भी असमर्थता व्यक्त की और भोजन (पीतर-भात) खाने के लिए निवेदन किया। हमने बताया कि अभी घंटा भर पहले स्कूल से भोजने कर के चले हैं । हो सके तो धांस जाने के लिए एक मार्ग दर्शक की व्यवस्था कर दें । जो हमें वहाँ तक पहुँचा कर जंगलों के बारे में बता सके ।
कुमलाल वर्मा ने बड़ी तत्परता के साथ वन विभाग में काम करने वाले श्री बोधन सिंह मंडावी को बुलाया । और हम उन्ही के साथ हो लिए । राजकुमार मसखरे जी ने शीघ्रता से कुछ नमकीन, बिस्कुट और पानी की व्यवस्था कर ली । मैं मसखरे जी के साथ मोटर सायकल में तथा दूसरी मोटर सायकल में चेतराम वर्मा, भावेश्वर पटेल और बोधन सिंह मंडावी । श्री बोधन मंडावी रास्ता बताते चल रहे थे । मोहगांव नक्सल प्रभावित क्षेत्र है । इसलिए यहाँ चार-पाँच साल पहले ही पुलिस थाना खुला है ।
मोहगांव की पूर्व दिशा में पैलीमेटा में बड़ा बांध बना है । जिसे सुरही जलाशय कहते है । यह सुरही नदी पर बना है । सुरही नदी गंडई अंचल की प्रमुख नदी है । इसी बांध से इस क्षेत्र में सिंचाई होती है। कहा जाता है कि इस नदी में सोलह (सोरह) धार मिलने के कारण इसका नाम सोरही पड़ा, जिसे बोलचाल में सुरही कहा जाता है। वैसे सुरही देवताओं की गाय का नाम है । देखा जाय तो सुरही नदी का मान यहाँ देवताओं की गाय से कम नहीं है।
सुरही का जल अमृत बूंद के समान है,जो यहाँ की धरती को हरा-भरा करती है । धांस की जलधारा इसी सुरही नदी पर है,जहाँ जाने के लिए हमारा दल निकला है । बोधन मंडावी ने बताया कि बगबुड़ा नार,कुआँ नार,आमानार,घाँघरा कछार,बंजारी और सोरी ऐसी कुछ जल धाराएँ (नाले) हैं जो सुरही को समृद्ध करती हैं ।
नर्मदा-साल्हेवारा मुख्य मार्ग पर पुलिस थाना मोहगांव को पारकर मोटियारी घाट के नीचे से पक्की सड़क को छोड़कर हम घन घोर जंगल में प्रवेश कर चुके थे । उबड़-खाबड़ रास्ते से परेशानी तो होती,किन्तु हरे-भरे जंगल की शोभा को देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता । बरसात का मौसम बिदाई पर था ।
मौसम खुला होने के कारण रास्ते का कीचड़ साफ़ था । सामने नदी पड़ी । बोधन मंडावी ने बताया कि यह कुआँनार है । स्वच्छ जल खुशनुमा माहोल । कुछ लोग पिकनिक मनाने आये थे । कुछ परिचित चेहरे निकले । जंगल भीतर हमें जाते देखकर मुस्कुरा रहे थे ।
आगे बढ़े तो प्राकृतिक अवरोध । रास्ते में जंगली पेड़ गिरा पड़ा था । रास्ता अवरुद्ध । जैसे –तैसे मोटर सायकल पार हुई । यहीं कुछ चरवाहे गाय चरा रहे थे । एक चरवाहा बांख से रस्सी बना रहा था सोहई बनाने के लिए । पूछा तो बताया कि वे सब मोहगांव से आए है । रोज आते कान्हा की तरह हैं,गाय चराते हैं,और बंसी बजाते हैं । कितना आनंदित करता है गाँव का जीवन । निश्छल जीवन निश्छल विचार निश्छल व्यवहार यही तो श्रृंगार है हमारे ग्रामीण भाईयों और बहनों का ।
जंगली मार्ग कहीं पत्थर, कहीं फिसलन को पार करते हम, लगभग पाँच किलोमीटर का रास्ता पार कर चुके थे । चारों ओर पेड़ों से छनकर आती सूरज की किरणें हमारे मन को उर्जा से भर जाती । साजा, बीजा, सलिहा-मोंदे, तेंदू-बेल, कर्रा-तिन्सा के बहुतेरे पेड़ । रास्ते में हमे कुछ पारिजात के पेड़ दिखाई पड़े । कुछ फूल बिखरे हुए थे । गंध से मन मुग्ध हुआ । पारिजात को रात रानी, हरिसिंगार नाम से भी जाना जाता है ।
पारिजात के भूमि पर गिरे फूल देवताओं को अर्पण किए जाते हैं । जंगल में पारिजात को खिरसाली नाम से जाना जाता है । शहरी जीवन में यह सब संभव नहीं होता । वहाँ तो केवल कृत्रिमता है । जीवन का सुख तो जंगलों में है । जंगल ख़ुशी देती है,जंगल हँसी देती है । जंगल जिंदगी देती है । जंगल बंदगी देती है । इसका अनुभव तो जंगल में ही रहकर किया जा सकता है । जिसे हम सभी साथी अनुभव कर रहे थे ।
आगे फिर नदी मिली जो अपनी बाँहे फैलाये दुलार देने, हमारा स्वागत कर रही थी । माँ की तरह । नदी माँ ही तो है । जो अपने जल से हमारा जीवन सँवारती है । अपने दोनों किनारों पर सभ्यता और संस्कृति को पालती है ।
बोधन मंडावी ने बताया कि ये कुसुम नाला है । नदी तो वही है सुरही,पर यहाँ इसका नाम कुसुम नाला है । यहाँ पर कुसुम के पेंड़ो की अधिकता से इसकी यह पहचान बनी है । अब इसके बाद मोटर सायकल आगे नहीं जा पायेगी ।” “अतः बोधन मंडावी के कथनानुसार हमने दोनों मोटर सायकल लाक कर खड़ी कर दी । वैसे इस वियावान जंगल में चोरी की संभावना नहीं हैं । फिर भी सावधानी जरूरी है ।
बोधन सिंह जी आगे, मैं उसके पीछे और मसखरे जी के साथ वर्मा जी और पटेल जी साथ चल रहे थे। बोधन सिंह ने बताया कि ये भीतरी कछार जंगल है । ऊँचे-ऊँचे पेड़ सीधे और सपाट मैदान पर प्राकृतिक रूप से उगे हुए है । यहाँ पर ‘नहा’ जिसे भुँईलीम भी कहा जाता है । यह औषधिक पौधा है । जिसे हिन्दी में चिरायता कहा जाता है,काफी संख्या में उगे हुए हैं ।
हम सुरही नदी के किनारे-किनारे चल रहे थे। ”ये घुघवा दाहरा है । यहाँ उल्लुओं का बसेरा है । आगे चलकर भालू का माड़ा (गुफा) मिलेगा । यहाँ बाघ भी मिलते है । बोधन ने कहा । भालू और बाघ का नाम सुनकर जी में डर समा गया । परन्तु हम सभी बोधन सिंह के दम पर आगे बढ़ रहे थे । उन्होंने बताया कि यहीं आसपास बैगा जनजाति के लोग नदी में मछली मारने आते हैं । ये बायीं ओर का रास्ता परसाही जाता है । जो बैगा गाँव है । उसके पहले बीच में चोर बजार नामक स्थान है।”
चोर बाज़ार नाम सुन कर जिज्ञासा हुई कि उसे चोर बाज़ार क्यों कहा जाता है ? पर बोधन सटीक उत्तर नही दे पाए । अब बाँस के पेड़ भी दिखने लगे । दाँयी ओर ऊँचे पहाड़ के किनारे-किनारे हम चल रहे थे । उन्होंने बताया कि यह ‘खरकनी’ पहाड़ है । लोग पहाड़ के ऊपर काँड़ (बल्ली) आदि काट कर खरकाते हैं । इसलिए इसे खरकनी पहाड़ कहते हैं ।
बोधन सिंह की बातों से उस जंगल के संबंध में नई-नई जानकारी मिल रही थी । तभी किसी जानवर की आवाज सुनाई दी । हम सब घबरा गए । तब उन्होंने समझाया कि यह जानवर नहीं बन्दर की आवाज है । सचमुच कुछ दूर आगे चले तो बंदरो का झुंड पेड़ों पर उछल कूद कर रहा था । रास्ते में तरह-तरह के बेल दिखाई दिए जो पेड़ों से लिपटे हुए थे । इनमें मोहलइन (माहुल) बेल,केंवटी बेल प्रमुख हैं । भेलवा के पेड़ से भी बोधन ने हमें परिचित कराया और बताया कि भेलवा पेंड़ का स्पर्श करने या उसके पास से गुजरने पर शरीर में चकते उभर आते हैं और खुजली होती है ।
सुरही नदी को हम कभी बाएँ से और कभी दाएं से पार करते हुए आगे बढ़ते गए । नदी का पानी कभी घुटने तक तो कभी जांघ तक । उसमें भी चट्टानें । कभी चट्टानों से कूदकर नदी पार करते । हम नदी की जलधारा के बहाव के विपरीत चलते गए । जगह-जगह चट्टानों से टकराती जलधाराएँ संगीत पैदा कर रही थी ।
तभी बोधन ने नदी के किनारे कुछ खुर के निशान दिखाये और बताया कि ये नील गाय के खुर हैं । इस स्थान पर नील गायें आती-जाती हैं । अब तक हम एक ही नदी यानी सुरही नदी को छः-सात बार पार कर चुके थे ।
हम धांस जलधारा( जलप्रपात) के करीब थे । क्योंकि जल प्रपात का तीव्र स्वर अब साफ़-साफ सुनाई दे रहा था । सूर्य की रोशनी ठीक हमारी आँखों पर पड़ रही थी साढे तीन बज रहे थे । धांस जलधारा अब हमारी बाँयी ओर चाँदी के कतरा के समान ऊँचे पहाड़ से नीचे झर रही थी । कुदरत का अद्भुत नजारा देखकर हम सबका मन गदगद हो गया । चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ । पहाडों पर हरे-भरे पेड़ हवा के साथ झूम रहे थे ।
बोधन सिंह ने बताया कि पहाड़ के उस पार पश्चिम दिशा में गोलरडीह और दल्ली नामक गाँव है । जहाँ अधिकतर बैगा जनजाति के लोग निवास करते हैं । इन गाँवों से धांस जल प्राप्त की दूरी तीन-चार किलोमीटर होगी । हमने धांस जलप्रपात के नामकरण के संबंध मे पूछा इसे धांस क्यों कहते है ? तब बोधन ने बताया कि देखो-“यहाँ पर धांस के वृक्ष अधिक हैं । इसलिए इस स्थान को धांस कहते हैं । उन्होंने यह भी बताया कि धांस पेड़ के छिलके से सांस,अस्थमा की दवाई बनाई जाती है । यह औषधीय गुणों से युक्त पेड़ है ।
धांस जलधारा को पहली बार देख कर हम सभी साथी मुग्ध थे । और अपने-अपने ढंग से यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता को मोबाइल में कैद करने में मशगुल थे । सुरही नदी का यह एक मात्र जलप्रपात है,जो लगभग तीस-पैंतीस फुट की ऊँचाई से गिरता है । सुरही नदी लगभग 110 कि.मी. की यात्रा तय कर कुम्ही-गुड़ा नामक स्थान पर शिवनाथ नदी में मिल जाती है ।
आपको यह भी बता दें कि साल्हेवारा क्षेत्र में कोपरो के पास एक और जलप्रपात है जिसका नाम “कुआँ धांस” है । इस जल प्रपात का जल पश्चिम दिशा में मध्यप्रदेश बालाघाट जिला में प्रवाहित होता है । धांस व कुआँ धांस दोनों जलप्रपात की स्थिति बिलकुल विपरीत है । नाम की समानता के कारण लोग इसे एक समझते हैं । जबकि ऐसा नही है ।
धांस जलधारा निश्चित रूप से प्राकृतिक सुन्दरता से परिपूर्ण मनोरम स्थल है । झूमते पेंड़ और गीत गाते पंछी,चारों ओर ऊँचे पहाड़ और ऊपर नीला आसमान । मन को मुग्ध कर देता है । पहुँच मार्ग जरुर कुछ कठिन है । शायद इसलिए यह स्थान लोगों की जानकारी में नही है । पर इतना अवश्य है कि यह स्थान प्रकृति प्रेमियों के लिए आनंद दायक है ।
समय कह रहा था कि दुर्गम रास्ते के कारण यहाँ से जल्दी निकाल चलो । अतः हम साथ लाए नमकीन व बिस्किट का स्वाद लिया और उसी रास्ते से वापस चल पड़े । आगे-आगे बोधन सिंह, उसके पीछे मैं और मसखरे जी के साथ पटेल जी व वर्मा जी । आज की यह यात्रा बड़ी मनोरंजक और ज्ञानवर्धक रही ।
धांस से पैदल वापस आकर हम कुसुम नाला पहुँचे,जहाँ हमारी मोटर सायकलें रखी थी । वापसी बोधन सिंह ने हमें ‘घाँघरा कछार’ भी दिखाया । जहाँ पर छोटी सी मढिया (मंदिर) बनी हुई है । जिसमें बैल की मूर्ति है व ऊपर दो घाँघरा लटके हुए हैं । उन्होंने बताया की कभी यहाँ पर बाघ ने किसी गाड़ीवान व उसके दोनों बैलों का शिकार किया था । ग्रामीणों ने उन्हीं की स्मृति में छोटा मंदिर बनाया है ।
बोधन सिंह जंगल का बड़ा जानकार है । अबकी बार वे हमें ‘दूधरा’ दिखाने ले आए । दूधरा दो नदियों का संगम है कुआँनार और सुरही का । ग्राम मोहगाँव के किनारे बहती सुरही नदी मानपुर पहाड़ी के पास गाड़ाघाट नदी कहलाती है । आगे पैलीमेटा में और सोलह धारों के संगम वाली सुरही नदी पर सुरही जलाशय बना है ।
‘दूधरा’से आगे बढ़ते हुए हम सभी साथी मोहगाँव की ओर लौट रहे थे आँखों में प्रकृति के असीम सौन्दर्य का चित्र और मन में संतुष्टि का भाव लिए । हमारे पीछे सूरज भी अस्ताचल की ओर जा रहा था । धरसा के दोनों किनारे खेतों में धान की सुनहली फसलें लहलहा रही थी ।
सुनहली बालियों पर पड़ने वाली सुनहली किरणें जीवन का सन्देश दे रही थी । जंगल को हम न छोड़ें,जंगल को हम न छेड़ें । जंगल से हम खुद को जोडें । जंगल है तो हरियाली है,हरियाली है तो खुशहाली है । बच्चों के साथ स्कूल से शुरू हुई आज की यात्रा जंगल जाकर अविस्मरणीय बन गई ।
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