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वाल्मीकि आश्रम तुरतुरिया की मान्यता एवं प्रतिमाएं

प्राचीन दंडकवन ॠषि मुनियों की तप स्थली रहा है, रामायण में दण्डकारण्य के बहुत सारे ॠषि मुनियों का जिक्र आता है। दंडकारण्य की तत्कालीन भौगौलिक स्थिति के विषय में विद्वानों की भिन्न भिन्न राय है, परन्तु यह तो तय है कि प्राचीन दक्षिण कोसल दंडकारण्य का ही हिस्सा रहा है। वर्तमान में अनेक स्थानों पर ॠषि मुनियों का आश्रम होने की मान्यता प्रचलित है, जिसमें हम महर्षि वाल्मीकि के आश्रम की चर्चा करते हैं।

वाल्मीकि आश्रम तुरतुरिया का दृश्य

रायपुर से पटेवा-रवान-रायतुम होते हुए लगभग 118 किमी है। रायतुम के बाद बार नवापारा होते हुए यहाँ तक कच्ची सड़क है। अभयारण्य में पक्की सड़क बनाने की अनुमति नहीं है। सड़क के दांई तरफ़ वाल्मीकि आश्रम है और दांई तरफ़ नाले के किनारे मैदान में कुछ दुकाने सजी हुई थी। आश्रम में कुछ नवीन भवन बने हुए हैं, समीप ही निर्मित कुंड में श्रद्धालु स्नान कर रहे थे।

पहाड़ी की तलहटी में यह मनोरम स्थान है, जनश्रुति है कि त्रेतायुग में वाल्मीकि यहां पर वैदेही सीता को लेकर आए थे और यहीं पर लवकुश का जन्म हुआ था। पहाड़ी से एक तुर्रा निकलता है जिसमें पुष्कल जल का प्रवाह बारहो महीने रहता है। तुर्रे से प्रवाहित होता जल “तुर-तुर” की ध्वनि के साथ भूमि पर गिरता है इसलिए इस स्थान का नाम तुरतुरिया रुढ़ हो गया।

प्राचीन नंदी एवं शिवलिंग

तुर्रे के मुंह पर अब गोमुख बना दिया गया है तथा इसके दोनो तरफ़ प्रस्तर प्रतिमाएं रखी हुई हैं। विष्णु की एक स्थानक प्रतिमा है तथा दूसरी प्रतिमा भी पद्मासन में बैठे कीरिटधारी विष्णु की योगमुद्रा में है। इसे देख कर लोगों को बुद्ध का भान होता है।

सन 1914 में तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर एच.एम्.लारी ने इस स्थल का महत्त्व समझने पर यहाँ खुदाई करवाई थी, जिसमे अनेक मंदिर और प्राचीन प्रतिमाएं प्राप्त हुयी थी। एच एम लारी के नाम का शिलालेख गोमुख के ऊपर लगा हुआ है। मेला लगा होने के कारण जलस्रोत में स्नान करने वालों का तांता लगा हुआ था। महिलाओं एवं पुरुषों के लिए पृथक-पृथक स्नान कुंड की व्यवस्था बनाई हुई है।

वत्सासुर एवं केशीवध की कृष्ण प्रतिमाएं

प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष यहां पर चारों तरफ़ बिखरे पड़े हैं। जिन्हें इस आश्रम में एक तरफ़ समेट दिया गया है और नवनिर्मित मंदिरों में स्थापित कर दिया गया है। द्वार पाल, दंडधर, गणेश, शिवलिंग, नंदी, केशीवध इत्यादि की प्रतिमाएं यहाँ रखी हुई हैं।

योनीपीठ में स्थापित शिवलिंग किसी मंदिर के प्रस्तर कलश सा दिखाई देता है। जिसके शीर्ष पर नारियल एवं नीचे पद्म बना हुआ है। जब कहीं पर कोई पुरातन प्रतिमा प्राप्त होती है तो लोग स्वयं ही उसकी पहचान के विषय में अनुमान लगा लेते हैं, जैसे अंधो का हाथी। सब स्वविवेक से नामकरण कर लेते हैं।

योनी पीठ एवं मंदिर कलश शिवलिंग

लव कुश की जन्मभूमि मानने का कारण यहाँ प्राप्त हुई दो प्रतिमाएं है, इन प्रतिमाओं में एक खड्गधारी की कोहनी को अश्व ने अपने मुंह में दबा रखा है और वह अश्व के साथ युद्धरत है, दूसरी प्रतिमा एक व्यक्ति वृषभ के साथ युद्धरत है। इन्ही प्रतिमाओं से अनुमान लगाया गया कि लवकुश ने अश्वमेघ के घोड़े को रोक रखा है और यह स्थान लवकुश की जन्मभूमि कहलाने लगा।

इन दोनो प्रतिमाओं में पहली प्रतिमा कृष्ण द्वारा केशीवध की है तथा दूसरी प्रतिमा वत्सासुर वध की है। यह दोनो प्रतिमाएं कृष्ण लीला से संबंध रखती है। अब इन दोनों प्रतिमाओं के कारण इस स्थान की मान्यता लवकुश की जन्मभूमि की पहचान के रुप में स्थापित हो गई। पर आंचलिक लोगों की जो श्रद्धा इस आस्था पर बनी हुई है, वह आगे सदियों तक चलने वाली है।

प्राचीन बुद्ध प्रतिमा

इस स्थान पर प्राप्त भग्नावशेषों से मेरे अनुमान के अनुसार यहां आस पास सातवीं आठवी शताब्दी में निर्मित कोई भव्य मंदिर रहा होगा। जिसके भग्नावशेषों को इस स्थान पर एकत्रित कर दिया गया है। मंदिर के प्रस्तर स्तंभों का अलंकरण देख कर लगता है कि इसे उड़ीसा के शिल्पकारों ने निर्मित किया होगा। क्योंकि स्तंभों का अलंकरण उसी शैली में दिखाई देता है।

आश्रम के आस-पास बहुत सारी खंडित प्रतिमाएं पड़ी हैं, धम्म प्रवर्तन मुद्रा में एक बुद्ध प्रतिमा भी दिखाई दी, इन्हें सहेज कर रखने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर यह स्थान रमणीय है, जहाँ जल की व्यवस्था हो ऐसे वनक्षेत्र में कई दिनों तक ठहरा जा सकता है। आश्रम के ऊपर स्थित पहाड़ी पर भालुओं एवं चीतलों का उन्मुक्त विचरण प्राकृतिक वातावरण को भव्यता प्रदान करता है।

आलेख

ललित शर्मा इण्डोलॉजिस्ट रायपुर, छत्तीसगढ़

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