Home / संस्कृति / लोक संस्कृति / दक्षिण कोसल का पारम्परिक भित्ति चित्र सुलो कुठी

दक्षिण कोसल का पारम्परिक भित्ति चित्र सुलो कुठी

मानव मन की अभिव्यक्ति का एक प्राचीन माध्यम भित्ति चित्र हैं, जो आदि मानव की गुफ़ा कंदराओं से लेकर वर्तमान में गांव की भित्तियों में पाये जाते हैं। इन भित्ति चित्रों में तत्कालीन मानव की दैनिक चर्या एवं सामाजिक अवस्था का चित्रण दिखाई देता है। वर्तमान में भित्ति में देवी-देवताओं को स्थान दिया जाता है। ऐसी ही एक भित्ति चित्र कला दक्षिण कोसल की सीमान्तर्गत पश्चिम ओड़िशा में दिखाई देती है।

पश्चिम ओड़िशा की विलुप्त हो रही दीवार चित्रकला ‘सुलो कुठी’ याने कि ‘ सोलह कोठियों ‘ को बचाने में लगे हैं लोक चित्रकार रमेश गुरला । वह बरगढ़ जिले के पदमपुर कस्बे में रहते हैं । उन्होंने अपने साधारण से मकान की परछी की दीवार पर भी यह चित्रांकन किया है। संक्षिप्त बातचीत में उनकी कला प्रतिभा और इस लोक शिल्प के अनेक पहलुओं की जानकारी मिली ।

उन्होंने बताया – अश्विन शुक्ल अष्टमी के दिन ओड़िशा की बहनें सुबह तालाब में स्नान करने के बाद निर्जला उपवास रखकर भाइयों की मंगलकामना करते हुए सुलो कुठी में अंकित सोलह देवी – देवताओं की पूजा करती हैं । गाँव के बीचों – बीच किसी भी एक घर की बाहरी दीवार पर लोक चित्रकार सुलो कुठी का अंकन करते हैं ।

अंकन लिए पहले ताजे दातौन के एक सिरे को कुचलकर ब्रश बनाया जाता था और चावल के आटे से चित्रांकन करते थे । आजकल इसके केलिए वार्निश और रेडीमेड ब्रश का इस्तेमाल किया जाता है। बहरहाल दीवार पर सोलह वर्गाकार कोठियों का रेखांकन कर उनमें गणेश , नारद , सरस्वती , दुर्गा ,कार्तिक , राम , लक्ष्मी , हनुमान ,ब्रम्हा आदि के रेखा चित्र बनाए जाते हैं । एक कोठी में रावण का भी चित्र होता है ।

रमेश जी ने बताया कि सुलो कुठी बनाने वाले चित्रकार को भी उस दिन निर्जला उपवास रखना होता है । बहनें उस दिन देवी -देवताओं की स्तुति के साथ अपने भाइयों की मंगलकामना करती हैं। इस विशेष अवसर पर बहनें ‘सुलो कुठी’ के सामने डाल खाई नृत्य भी करती हैं । चित्रकार को प्रसाद और कुछ पारितोषिक देकर बिदा किया जाता है ।

रमेश गुरला इस विलुप्तप्राय भित्ति चित्रकला के गिने-चुने शिल्पकारों में से हैं । उन्होंने पश्चिम ओड़िशा की लोक संस्कृति को बचाने के लिए आंचलिक कलाकारों को लेकर पदमपुर संगीत समिति का भी गठन किया है । ओड़िशा संगीत नाटक अकादमी द्वारा वर्ष 2014 में राऊरकेला में रंगोबति उत्सव का आयोजन किया गया था।

वहाँ रमेश जी ने अपनी टीम के साथ सुलो कुठी भित्ति चित्रकला को भी समूह नृत्य के जरिए प्रदर्शित किया । तीन बुजुर्ग महिलाओं और तीन युवतियों के डाल खाई नृत्य में सुलो कुठी का प्रदर्शन करके वो जनता को यह सन्देश देना चाहते थे कि पुरानी पीढ़ी इस लोक शिल्प को जीवित रखना चाहती है और अपनी नयी पीढ़ी से कहना चाहती हैं की वह इस कला परम्परा को कायम रखे।

रमेश जी अपनी टीम के साथ 28 नवम्बर 2017 को देवगढ़ में ओड़िशा के राज्य स्तरीय युवा उत्सव में अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुति दी । बरगढ़ में आयोजित जिला स्तरीय युवा उत्सव में राज्य स्तरीय उत्सव के लिए उनकी टीम का चयन हुआ था ।

वह इसके पहले दिसम्बर 2016 में रोहतक ( हरियाणा ) में आयोजित राष्ट्रीय युवा उत्सव में भी अपनी संगीत समिति के साथ शामिल हो चुके हैं। रमेश जी अनुसूचित जाति से हैं ,जबकि उनकी टीम के अधिकांश कलाकार आदिवासी हैं । वह विभिन्न आयोजनों में उन्हें लेकर करम सैनी (कर्मा) नृत्य का भी प्रदर्शन करते हैं।

आलेख एवं चित्र

स्वराज करुण, रायपुर

About nohukum123

Check Also

“सनातन में नागों की उपासना का वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और जनजातीय वृतांत”

शुक्ल पक्ष, पंचमी विक्रम संवत् 2081 तद्नुसार 9 अगस्त 2024 को नागपंचमी पर सादर समर्पित …

One comment

  1. नमन अद्भुत शिल्पकार को !
    इस पारम्परिक शिल्प कला को जीवित रखने के लिए इनका प्रयास सराहनीय है . साझा करने के लिए हार्दिक आभार …