बस्तर सम्भाग में आदिवासियों की विभिन्न प्रकार की प्रजातियाँ निवास करती हैं जिनमें मुरिया, माड़िया, अबूझमाड़िया, दंडामी माड़िया, परजा, धुरवा इसी तरह गदबा, मुंडा, हल्बा और भतरा आदि प्रमुख जनजातियाँ प्रमुख हैं। इन जनजातियों की बोली-भाषा, रहन-सहन आदि में काफी समानता है। इन्हें केवल अध्ययन की दृष्टि से अलग किया गया है। ये सभी जनजातियाँ देव संस्कृति को मानती हैं। देव संस्कृति को गोंडी भाषा में “पेन हानाल” कहा जाता है। गोंडी शब्द पेन का अर्थ है देवता और हानाल का अर्थ जीव आत्मा होता है।
जीव आत्मा से देवता बनाना ही आदिवासियों की देव संस्कृति का आधार है। इन जनजातियों में हल्बा और भतरा लोग अधिकांश समय राजतंत्र का हिस्सा रहे हैं, इसलिये वे वैदिक संस्कृति में पूजे जाने वाले देवी-देवताओं की भी पूजा करते हैं। इसलिये इनकी लोक गाथा “तीजा जगार” “लछमी जगार” “बाली जगार” “आठे जगार” में हिन्दू देवी-देवताओं के यशोगान है। इसलिये भी वे इन देवताओं की पूजा करते हैं, परन्तु सारे संस्कार आदिवासियों की तरह ही करते हैं।
विभिन्न संस्कार
वैदिक संस्कृति में प्रमुखतः सोलह संस्कारों की व्यवस्था की गई है। वैदिक संस्कृति को मानने वाले भी लोग इन संस्कारों का पालन करते हैं। वैदिक संस्कृति में इन सोलह संस्कारों को ऋषि-मुनियों ने बनाया है। आदिवासियों के आदिपुरुषों ने भी आदिवासी समाज को बेहतर जीवन जीने की कला सिखाई है। इस तरह आदिवासी समाज भी इन सोलह संस्कारों को सामाजिक संस्कार की तरह करती है। भावना वही है, केवल उसको मनाने के तरीके में अन्तर आ जाता है। आदिवासी समाज तीन संस्कारों को प्रमुखता से मनाता है, जन्म, विवाह, और मृत्यु, बाकी संस्कार इन्हीं तीन संस्कारों में आ जाते हैं। आदिवासियों के संस्कारों को सोलह संस्कार के परिप्रेक्ष्य में देखेंगे।
हिन्दुओं में बच्चे के जन्म के पहले ही तीन संस्कार किये जाते हैं। भले ही आज के समय में इन संस्कारों को उस तरह से नहीं किया जाता, जिस तरह से वर्णित किया गया है। जैसे श्रेष्ठ संतान के लिये गर्भाधान करने का वर्णन है, पुंसवन दूसरे या तीसरे महीने के शुभ नक्षत्र में गर्भवती को सिन्दूर आदि लगाकर प्रसन्न करने के लिये करते हैं। तीसरे सीमन्तोन्नयन में गर्भवती और शिशु की रक्षा करना और प्रसन्न रखने की क्रिया की जाती है। यह सब आदिवासी समाज में नहीं किया जाता, मगर गर्भ धारण से बच्चे के जन्म तक देखें तो कुछ बाते इन संस्कारों के समान है। जैसे किसी आदिवासी विवाहिता को यह महसूस होता है कि उसने गर्भ धारण कर लिया है, तो वह बड़े गर्व से अपने घर या नाते-रिश्ते की बुजुर्ग महिला को बताती है और वह बुजुर्ग महिला अपने परिवार को बताती है कि उसके परिवार में एक सदस्य आने वाला है। यह श्रेष्ठ संतान उत्पन्न होने की खुशी है।
दूसरा संस्कार पुंसवन दूसरे तीसरे माह में किया जाने वाला गोद भराई की रस्म है। इसे आदिवासी समाज उस तरह से नहीं मनाता, जिस तरह से समारोह पूर्वक दूसरी जाति के लोग करते हैं, मगर दो-तीन माह बाद आदिवासी समाज की बुजुर्ग महिलायें भी गर्भवती का ध्यान रखना प्रारम्भ कर देती हैं। उसके खान-पान में विशेष ध्यान रखती हैं। गर्भवती को कोई वजन उठाने नहीं देती। खाने में उसकी पसन्द का ध्यान रखती हैं। उसे हर समय प्रसन्न रखने का प्रयास करती हैं। ये सब बातें तीसरे संस्कार सीमन्तोन्नन की भावनाओं के अनुरूप ही है। इन सब बातों में गर्भवती और गर्भस्थ शिशु की रक्षा करना उसे प्रसन्न रखना यह सब गर्भवती के परिवार के क्रियाकलाप से स्पश्ट होता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि बच्चे के जन्म के पहले आदिवासी समाज कोई संस्कार नहीं करता, परन्तु उसके क्रियाकलाप से लगता है कि वह इन संस्कारों को किसी न किसी रूप में कर रहा है।
चौथे संस्कार जातकर्म में हिन्दुओं के द्वारा बच्चे को पैदा होने के बाद अभिमंत्रित करके शहद और धी चटाने का विधान है। उसके बाद ही माता अपना दूध पिलाती है। इस संस्कार में बच्चे के संस्कारी होने का भाव निहित होता है, पर वहीं दूसरी ओर आदिवासी समाज में बच्चे के पैदा होते ही नाल तीर से काटा जाता है और इस नाल को अपने बाड़ी में ही किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है। इसे गोंडी भाषा में “पुलापोहना” कहते हैं। तीर से नाल काटने का आशय पुरुषार्थ से है और उसे अपने ही बाड़ी में गाड़ना माटी के प्रति उसका समर्पण है। इस तरह संस्कार वही है, केवल करने का तरीका और संस्कार के भाव में परिवर्तन है।
इसके बाद संस्कार के पाँचवें क्रम में आदिवासी समाज छट्ठी मनाता है। इसमें ही पाँचवाँ नामकरण संस्कार सम्मलित है। बच्चे के जन्म के बाद पहला आयोजन छट्ठी होता है, जिसे आदिवासी समाज वृहत रूप से मानाता है। छट्ठी मनाने का दिन निश्चित नहीं होता है। बच्चे का नाल झड़ जाने के बाद छट्ठी मनाई जाती है। चाहे इसके लिये महीना भर क्यों न लग जाये। तब तक परिवार अशुद्ध रहता है। कोई धार्मिक कार्य नहीं कर सकता है। छट्ठी मनाने के लिये वह अपने सगा-सहोदर और सारे गाँव को निमंत्रण देता है। जच्चा-बच्चा को चूनमाटी (मूलतानी मिट्टी) से नहलाकर शुद्ध करते हैं और मायके से लाये गये नये कपड़े पहनाते हैं। इसके बाद माँ और बेटे का टिकावन होता है। उन्हें सबके द्वारा भेंट दिया जाता है। इसके बाद इसी दिन नामकरण किया जाता है।
आदिवासी समाज का मानना है कि मृतक फिर उसी के कुल में जन्म लेगा और उसकी पहचान भी आदिवासी समाज कर लेगा, इसका प्रयोग नामकरण में किया जाता है। इसके लिये सियांड़ी पत्ते डन्ठल सहित लेकर चावल की पोटली बनाते है, यह गदा जैसा बन जाता है, इस गदा को बच्चे को पकड़ा देते हैं। अब बारी-बारी से उसके खानदान के मृतकों का नाम पुकारा जाता है। जब बच्चा उस गदा को अपने कन्धे तक ले जाता है, तब यह माना जाता है कि यह बच्चा उस मृतक का अवतार है और उस बच्चे को वही नाम दिया जाता है। यदि किसी नाम पर वह बच्चा गदा कन्धे तक नहीं ले जाता, तब यह प्रक्रिया दूसरे, तीसरे, चैथे नाम के साथ तब-तक दुहराई जाती है, जब तक बच्चा उस गदे को अपने कन्धे तक न ले जाये। जब वह किसी एक नाम पर गदे को कन्धे तक ले जाता है, तब इस क्रिया को तीन बार किया जाता है। यही उसका नाम है, जो पूर्व में इस खानदान के किसी व्यक्ति का था। इस नाम की थाली पीटकर घोषणा की जाती है। इस नाम की परीक्षा दूध पीने के समय भी की जाती है। बच्चे के दूध पीने के समय उस नाम से पुकारा जाता है और बच्चा दूध पीना छोड़कर देखता है, तब माना जाता है कि यह बच्चे का नाम है। इस तरह आदिवासी समाज नामकरण संस्कार करता है।
सोलह संस्कार का छठवाँ संस्कार निष्क्रमण जिसमें हिन्दू संस्कृति के लोग नवजात बच्चे को घर से बाहर निकालते हैं और सूर्य, चन्द्रमा की ज्योति के दर्शन कराते हैं। यह उस बच्चे के चौथे महीने मे किया जाता है। ठीक इसी प्रकार आदिवासी समाज भी अपने नवजात बच्चे को घर से बाहर निकालता है। इसे वह नौवें या दसवें महीने में करता है। इसे गोंडी में “हाटुम दायना” कहा जाता है। इसका अर्थ बाजार घुमाने ले जाना होता है। इस संस्कार में घर की बुजुर्ग महिला उस बच्चे को “बागा पाकर” बाजार लेकर जाती है। बागा पाने का अर्थ है कि साड़ी के छोर से कमर के पास बच्चे को टाँग कर ले जाना। इस तरह बच्चे को उठाने में बच्चा के हाथ भी बाहर रहते हैं और महिला भी दोनों हाथ से कुछ भी कर सकती है। यह संस्कार बच्चे के लिये होता है, मगर वह बुजुर्ग महिला उस दिन बहुत खुश रहती है। सबको बताती फिरती है कि वह अपने पोते या पोती को बजार घूमाने लाई है। इस संस्कार करने के पीछे आदिवासी समाज का आशय है कि इसी बाजार से तुम्हारी सारी जरूरतें पूरी होंगी।
इसके बाद सोलह संस्कार में होने वाले 7 वाँ अन्नप्रासन संस्कार, 8 वाँ चूड़ाक्रम संस्कार (मुंडन) 9 वाँ विद्यारम्भ संस्कार, यज्ञोपवित संस्कार जैसा कोई भी संस्कार आदिवासी समाज में नहीं होता है। आदिवासी समाज में लड़का हो या लड़की जैसे ही 10-12 वर्ष के हो जाते हैं, तो वे स्वमेव घोटुल के सदस्य हो जाते हैं। घोटुल आदिवासी समाज की सांस्कृतिक पाठशाला है, जहाँ गाँव के अविवाहित बच्चे सामुदायिक जीवन जीने की कला सीखते हैं। आदिवासी जीवन के हर पहलू का यहाँ साक्षात्कार होता है। घोटुल में आने वाला बच्चा सामुदायिक जीवन के तौर-तरीके, आचार-विचार, रहन-सहन, नाच, गाना आदि सीखता है। घोटुल को वैदिक संस्कृति का गुरुकुल माना जा सकता है और आदिवासी बच्चे के घोटुल प्रवेश को वेदारम्भ संस्कार माना जा सकता है।
घोटुल प्रवेश
घोटुल प्रवेश के साथ ही उस बच्चे को नया नाम, नई पहचान मिलती है। यह भी केशान्तक संस्कार की ही तरह है। समावर्तन संस्कार गुरुकुल से समाज में लौटने का संस्कार है। आदिवासी समाज इसे मनाता है। इसे वह “जोड़ विड़चना” कहता है। जिसका अर्थ होता है, संग छूटना। लड़का या लड़की की जब माहला (सगाई) हो जाती है और शादी की तिथि पास आ जाती है। तब घोटुल के सभी लोग उस सदस्य को सिखानी गीत गाते हुये उसके घर तक छोड़ने जाते हैं, जहाँ घर के लोग संग छुटावनी नेग देते हैं।
घोटुल में रहते ही इनकी सगाई हो जाती है। ऐसी भ्रान्ति है कि घोटुल में ही लड़का-लड़की का प्यार हो जाता है और सगाई कर दी जाती है, पर ऐसा नहीं है। लड़के पक्ष के बुजुर्ग लोग विवाह की व्यवस्था कर लेने के बाद अपने लड़के के लिये लड़की तलाशने जाते हैं। इसका कारण है कि दोनों पक्ष का खर्च लड़के पक्ष को वहन करना पड़ता है। यहाँ एक बात और विवाह करने की गरज लड़के वालों की होती है। लड़की का पिता बात तय होने के बाद विवाह को टालने का भरसक प्रयास करता है। इस तरह पहले कई-कई बार माहला (सगाई) जाया जाता था, पर अब समाज ने इसे तीन बार जाने का नियम बना दिया है। आदिवासी समाज में कुछ विशेष गोत्र में ही विवाह होता है। जिसे सगा गोत्र कहते हैं बन्धु गोत्र में विवाह पूर्णतः वर्जित है। गोत्र मिलान के बाद बिना पूर्व सूचना के माहला जाते हैं और तीसरे माहला में शादी की तारीख तय की जाती है।
विवाह में बहुत से नेग किये जाते पर उनमें तीन प्रमुख हैं। लड़का-लड़की को एक साथ बैठाकर पानी डालना या शुद्ध करना। दूसरा लगीड़ अर्थात दूल्हा-दुल्हन के नाम से चावल मिलाना। तीसरा टीकावना लड़की पक्ष के लोग दुल्हन को भेंट देते हैं। यह भेट बहुत ही साधारण होता है। यह लड़के पक्ष में भी किया जाता है। आदिवासी समाज में हस्तलग्न, भांवर नहीं होता है। चावल मिलाने की क्रिया ही प्रमुख विवाह संस्कार है।
मृत्यु संस्कार
आदिवासी समाज देव संस्कृति को मानने वाला है। आदिम संस्कृति का आधार जीव आत्मा का देवता से मिलन है। आदिवासी समाज भी मानता है कि आत्मा अमर है और केवल शरीर का नास होता है। आदिवासी समाज का मानना है कि मनुष्य की मृत्यु होती है। वह फिर उसके कुल में जन्म लेगा, जिसकी पहचान भी आदिवासी समाज कर लेगा। इसी मान्यता के आधार पर आदिवासी समाज का सारा मृत्यु संस्कार आधारित है। आदिवासी समाज में मृत्यु होने पर जलाया नहीं जाता दफनाया जाता है। आदिवासी समाज मानता है कि मनुष्य का शरीर मिट्टी से बना होता है और उसे मिट्टी में मिल जाना है। आदिवासी समाज मानता है कि जीव आत्मा को पुनः उसके कुल में जन्म लेना है। तब उसका स्वरूप सुरक्षित होना चाहिये, इसलिये मिट्टी के अन्दर उसके स्वरूप को सुरक्षित रखने के लिये दफनाया जाता है, जब-तक की उसका पुनर्जन्म न हो जाये।
मृतक को अपनी बाड़ी में या अपने स्वमित्व की जमीन पर दफनाया जाता है और मृत्यु स्तम्भ बनाया जाता है, ताकि शरीर सुरक्षित रहे और आँख के सामने रहे, जिससे आते-जाते उसकी देख-भाल हो सके। मृत्यु स्तम्भ खंडित होने से उसमे स्थित आत्मा ने उसके कुल में कहीं जन्म ले लिया है, ऐसा माना जाता है। व्यक्ति में कोई विशेष गण होने पर उसे डुमा देव बनाया जाता है। आदिवासी समाज मानता है कि जिस तरह वह अपने विशेष गुण के चलते अपने जीवन काल में सेवा की है, उसी प्रकार उसकी आत्मा मरने के उपरान्त समाज की सेवा करेगा।
आदिवासी समाज शव को दफनाता ही नहीं, विशेष परिस्थितियों में जलाता भी है। किसी लम्बी बीमारी से या असाध्य रोग से हुई मृत्यु पर जलाने की परम्परा है। इसी प्रकार दुर्घटना में हुई मृत्यु पर भी जलाने की क्रिया की जाती है। आदिवासी समाज का ऐसा मानना है कि गम्भीर बीमारी से हुई मृत्यु के बाद यदि मृतक उसके कुल में पुनः जन्म लेगा तो वह बीमारी उसके साथ पुनः आ जायेगी। इसी प्रकार दुर्घटना में हुई मृत्यु वाला मृतक जब जन्म लेगा तो वह कुरूप पैदा होगा। इसलिये ऐसी मृत्यु पर शव को जलाने की प्रथा है।
गांयता पखना
आदिवासी समाज मृतक की याद को चिरस्थाई रखने के लिये मृत्यु स्तम्भ बनाता है। मृतक की सामाजिक प्रतिश्ठा और रुचि के अनुरूप उसमें तरह तरह की चित्रकारी करता है। यदि मृतक पटेल या गांयता होता है, तो उसके मठ पर प्रतीक स्वरूप मूर्ति बनाई जाती है। सिरहा होने पर देवता की सवारी आने के समय पहनने वाले कपड़े से मृत्यु स्तम्भ को सजाया जाता है। 10-15 वर्षों में सभी मृतको के नाम एक पत्थर गाड़ा जाता है। इसे गांयता पखना कहा जाता है। एक खानदान में मृत सभी सदस्यों के नाम का एक पत्थर गाड़ते हैं। यह आदिवासी समाज का अन्तिम संस्कार है।
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