सनातन काल से भारत राजे-रजवाड़ों की भूमि रही है, राजा भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते थे तथा उनसे संबंधित देवी-देवताओं के उपासक हुआ करते थे। देश आजाद हुआ, लोकतंत्र की स्थापना हुई, परन्तु देवी-देवताओं की मान्यता आज भी उतनी बनी हुई है, जितनी पूर्व में थी। कुल देवी-देवता के रुप में स्थापित इनकी आराधना सतत जारी है।
मध्यकाल में अधिकतर रजवाड़े शक्ति के उपासक रहे, शक्ति के रुप में दुर्गों की रक्षा करने वाली देवी दुर्गा वर्तमान में भी जन सामान्य द्वारा पूजित हैं एवं उनकी आराधना सतत जारी है। राजाओं को शक्ति किसी न किसी रुप में अपना परिचय देती थी तथा शासक उनका मंदिर या उनके बताए गए स्थान पर उनकी पूजा एवं आराधना करते थे।
छत्तीसगढ़ अंचल में शासक शक्ति के उपासक रहे है। आदिशक्ति जगदम्बा भिन्न भिन्न नाम रूप में छत्तीसगढ़ के कोने-कोने में विराजित हैं। रतनपुरहिन महामाया माता, डोंगरगढिन बमलेश्वरी मां, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी, खल्लारी की देवी, कुदूरगढिन दाई, सरगुजा की महामाया, जशपुर की खुड़िया रानी, चंद्रपुर की चंद्रहासिनी देवी जैसे देवी तीर्थों की ख्याति देश विदेश तक फैली है।
ऐसा ही एक देवी तीर्थ है टेंगनाही माता का। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 100 किमी, पद्मावती नगरी राजिम से 45 किमी की दूरी पर स्थित है गरियाबंद जिलांतर्गत छुरा विकासखण्ड। विकासखण्ड मुख्यालय छुरा से लगभग-लगभग 6 किमी की दूरी पर कोसमी-चुरकीदादर रोड के किनारे उंची पहाड़ी पर टेंगनाही माता विराजमान है। माता टेंगनही की क्षेत्र में विशेष मान्यता है।
माता के स्थापना और नामकरण के संबंध में जनश्रुति है कि माता इस पहाड़ी पर विराजमान थीं और एक बार उन्होंने बिन्द्रानवागढ़ के राजा को स्वप्न में आकर अपने पहाड़ी पर विराजित होने की बात कही और दर्शन देने के लिए उनको तीन सिंगवाले बकरे की बलि देने की शर्त रखी।
माता की आज्ञा शिरोधार्य करके राजा ने तीन सिंग वाले बकरे की खोज आरंभ की, परन्तु बहुत यत्न करने पर भी राजा को तीन सिंग वाला बकरा नहीं मिला। थक हारकर माता के द्वारा बताए हुए स्थान पर राजा पहुंचा और माता से विनती किया कि वे उनकी शर्त पूरी करने में असमर्थ हैं।
तब माता ने पुन: उनको स्वप्न में आकर बताया कि मेरे निवास से कुछ ही दूरी पर एक सरोवर स्थित है। उस सरार(सरोवर) में मिलने वाली तीन सिंग की टेंगना मछली को लाकर बलि दोगे तब भी वह स्वीकार है। तब माता की आज्ञानुसार राजा ने बलि टेंगना मछली की बलि देकर माता को प्रसन्न किया तथा माता ने उनको दर्शन देकर कृतार्थ किया।
तब से प्रतिकात्मक रूप से माता टेंगनाही को टेंगना मछली की स्वर्ण या चांदी प्रतिकृति मनौती पूर्ण होने पर भक्तों द्वारा चढ़ाई जाती है। टेंगनहीं माता का नामकरण भी टेंगना मछली की बलि स्वीकार करने के कारण हुआ। जिस सरार का इस कहानी में प्रसंग आया वह आज भी स्थित है और माता टेंगनाही के नाम से ही टेंगनाबासा गांव का नाम पड़ा।
लोक मान्यता है कि कि यह सरार फिंगेश्वर में स्थित सरार से जुड़ा है। फिंगेश्वर स्थित सरार अब गंदगी से अटा पड़ा है लेकिन टेंगना बासा गांव के सरार में आज भी स्वच्छ निर्मल जल भरा रहता है और उसमें रहने वाली टेंगना मछलियों को तैरते देखा जा सकता है।
माता टेंगनही पहाड़ी में प्राकृतिक सुंदरता की भरमार है। पहाड़ी से नीचे देखने पर अद्भुत दृश्य दिखाई देता है। इस पहाड़ी में कई दुर्लभ वनौषधियां सहज रूप में उपलब्ध है। टेंगनाही माता आज भी प्राकृतिक रुप से दो विशाल शिलाखंडों के बीच की गुफ़ा में विराजमान हैं।
ये दो विशाल शिलाखंड, पता नहीं किस प्रकार से पहाडी पर बिना किसी जोड़ के टिके हैं, समझ में नहीं आता। वाकई ये कुदरत का चमत्कार है। पहले पहाड़ी के ऊपर बिजली की सुविधा नहीं थी लेकिन अब नवरात्र पर्व आदि पर बिजली की सुविधा पहाड़ी के ऊपर तक उपलब्ध हो जाती है।
पहाड़ी के नीचे भाग में हनुमानजी जी सहित अन्य देवी-देवताओं के मंदिर भक्त गणों द्वारा बनवाए गए है। स्थानीय 12 पंचायत समिति के द्वारा मंदिर की देखरेख की जाती है। पहले चैत्र पूर्णिमा के दिन चइतरई जात्रा मनाने का ही प्रचलन था। उस दिन माता के भक्तों के द्वारा यहां मनौतीस्वरूप बकरे आदि की बलि दी जाती थी।
कालांतर में शारदीय नवरात्र में ज्योतिकलश स्थापित किया जाने लगा जो आज भी निरंतर जारी है। ज्योति कक्षों का निर्माण स्थानीय जनप्रतिनिधियों के सहयोग द्वारा किया गया है। अगर आप प्राकृतिक सौंदर्य के प्रेमी हैं और माता टेंगनहीं के दर्शन के अभिलाषी हैं तो टेंगनाबासा आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।