छत्तीसगढ़ के वनांचल में शैव, वैष्णव, शाक्त पंथों के पूजा स्थल प्रत्येक गांव डोंगर में मिल जाएंगे, परन्तु शाक्त परम्परा से नवरात्रि यहाँ जोर शोर से मनाई जाती है। बस्तर का प्रसिद्ध दशहरा भी शाक्त परम्परा को समर्पित है, यहाँ मावली परघाव होता है और देवी दंतेश्वरी की रथयात्रा दशहरे को निकाली जाती है।
देवी का एक स्थान ऐसा भी है जहाँ सदियों से वर्ष में एक बार नियत तिथि को मुंह अंधेरे ही सैकड़ों ग्रामों के भक्तों के कदम स्वत: ही उस ओर चल पड़ते हैं। नियत तिथि का न किसी अखबार में विज्ञापन होता न किसी गांव के कोटवार द्वारा हाँका किया जाता।
यह दिन होता है चैत नवरात्रि के प्रथम रविवार का, जब यहाँ जातरा मनाई जाती है। इस जातरा में गरियाबंद, महासमुंद, रायपुर, धमतरी, कुरूद, मगरलोड, सिहावा, नयापारा, राजिम क्षेत्र के हजारों माता भक्तजन श्रध्दा पूर्वक स्वत: ही इस स्थान की ओर चल पड़ते हैं और देवी के दर्शन करते हैं।
यह अनोखी परम्परा छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिला मुख्यालय से 12 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर स्थित है, यहाँ निरई माता का स्थान है, देवी यहाँ प्राकृतिक स्थल में विराजमान हैं तथा इस पहाड़ी में मधुमक्खियों की भरमार है। कहते हैं कि जो व्यक्ति मन में कपट धर कर या शराब पीकर माता के स्थान पर आता है तो उस पर मधुमक्खियाँ हमला कर देती हैं।
कहते हैं कि निरई माता की उंची पहाड़ी में जातरा के एक सप्ताह पूर्व प्रकाश पुंज ज्योति के समान चमकता हैं। यह प्रकाश पुंज जातरा मनाने का सूचक होता है और चैत्र नवरात्रि के प्रथम सप्ताह रविवार को जातरा मनाया जाता हैं। यह स्थान वर्ष में सिर्फ़ पांच घंटे के लिए सुबह चार बजे से नौ बजे तक खुलता है। बाकी दिनों में यहाँ आना प्रतिबंधित होता है।
एक रहस्य यह भी है कि निरई माता मंदिर में हर साल चैत्र नवरात्र के दौरान अपने आप ही ज्योति प्रज्जवलित होती है। यह चमत्कार कैसे होता है, यह आज तक पहेली ही बना हुआ है। ग्रामीणों का कहना है कि यह निरई देवी का ही चमत्कार है कि बिना तेल के ज्योति नौ दिनों तक जलती रहती है। यहां देवी को सिर्फ़ नारियल अगरबत्ती की भेंट से प्रसन्न किया जाता है।
निरई माता मंदिर में महिलाओं को प्रवेश और पूजा-पाठ की इजाजत नहीं है। यहां सिर्फ पुरुष ही पूजा-पाठ की रीतियों को निभाते हैं। महिलाओं के लिए इस मंदिर का प्रसाद खाना भी वर्जित है। कहते हैं कि महिलाएं अगर मंदिर का प्रसाद खा लें तो उनके साथ कुछ न कुछ अनहोनी हो जाती है। इसके पीछे का कारण इस स्थान के दुर्गम होना होगा।
लोग निरई माता से मानता भी मांगते हैं एवं पूर्ण होने पर भेंट स्वरुप कुछ न कुछ अर्पण करते हैं। यहाँ लोग बकरों की बलि देते थे, परन्तु कुछ वर्षों से शासकीय प्रतिबंध होने के कारण माता के स्थान पर बलि प्रतिबंधित है। उनकी मान्यता है कि मानता पूर्ण होने पर बकरे की बलि देने से देवी प्रसन्न होती है। वैसे भी वनांचल में देव स्थलों पर बलि देने की प्राचीन परम्परा रही है।
तो अब प्रतीक्षा कीजिए चैत नवरात्रि का और नवरात्रि के प्रथम रविवार को निरई माता के स्थान पर पुन: भक्तों की भीड़ लगेगी, देवी की जातरा होगी और श्रद्धालु अपनी मानता मानेंगे, देवी को प्रसन्न करेंगे। आप भी इस स्थान पर आना चाहें तो उपरोक्त तिथि को स्मरण में रख लें।
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