वर्ष भर की प्रतीक्षा उपरांत लो आ गई त्योहारों की रानी दीपावली। प्रकाश, पवित्रता, हर्षोल्लास और स्वच्छता का पर्व दीपावली जनमानस में उत्साह और ऊर्जा का संचार करता है। यह पर्व संपूर्ण भारत वर्ष के साथ ही विश्व के दूसरे भू भागों में भी मनाया जाता है जहां भारतवंशी रहते हैं।
वैसे तो इस पर्व को मनाने के पीछे अनेकानेक कारण और कहानियां जुड़ी हुई है लेकिन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार दीपावली के दिन ही भगवान श्रीराम का लंका विजय पश्चात अयोध्या आगमन हुआ था जिनके स्वागत में अयोध्यावासियों ने पूरे नगर को दीपों से आलोकित कर दिया था। तभी से दीपावली का उद्भव हुआ।
जैन धर्मावलंबियो द्वारा भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का निर्वाण दिवस भी दीपावली को मनाया जाता है। मान्यता ये भी है कि इस दिन धन की देवी लक्ष्मी जी अपने वाहन पर सवार होकर पृथ्वी में आती है और स्वच्छ, सदाचारी लोगों के घर में ठहरती है। इसी भावना के कारण सभी लोग अपने अपने घरों को सजाते हैं।
हमारा छत्तीसगढ़ राज्य मूलतः प्राचीन संस्कृति का संवाहक है। यहां दीपावली का एक अनूठा रूप देखने को मिलता है। छत्तीसगढ़ में दीपावली मात्र माता लक्ष्मी के पूजन का पर्व नहीं है अपितु इस दिन भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती का विवाहोत्सव का आयोजन भी किया जाता है। यहां निवासरत गोंड जनजाति इसे सुरहुति पर्व के नाम से मनाते हैं।
भगवान शिव और माता पार्वती यहां ईसर गौरा-गौरी के रूप में पूजित होते हैं। सुरहुति के चार दिन पूर्व गांव के बैगा और महिला पुरुषों के द्वारा गौरा चौक पर फूल खोंचने की रस्म अदा की जाती है। पारंपरिक वाद्यों की मधुर ध्वनि में गोंड महिलाएं समवेत स्वर में ग्राम के समस्त देवी देवताओं का आवाहन कुछ इस प्रकार करती हैं….
जोहार जोहार मोर ठाकुर देवता हो
सेवा रे लागौं मॅंय तोर…
ठाकुर देवता के मड़वा छवइले हो
झुले ओ परेवना के हंसा…
इन गीतों को सुनना बहुत आनंद दायक होता है। फूल खोंचने के रस्म उपरांत ही अगले दिन से ग्राम्य बालाएं सुआ नृत्य के लिए घर-घर जाती हैं और और ईसर गौरा गौरी के विवाह का आमंत्रण देती है। पूरे सात दिन तक प्रतिदिन गौरा चौक में ग्राम्य देवी-देवताओं का पूजन अर्चन किया जाता है और अंतिम दिवस यानि दीपावली के दिन गौरा-गौरी के विवाह का आयोजन होता है।
इस दिन प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर ग्राम के बैगा और वरिष्ठ जन और महिलाएं पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ गौरी गौरा के मूर्ति निर्माण के लिए मिट्टी लाने जाते हैं। मिट्टी लाने के लिए बांस के दो नए टोकनी (झेंझरी) और नए कपड़े लेकर जाते हैं। बैगा द्वारा पूजन उपरांत अलग-अलग टोकनी में गौरी-गौरा के लिए मिट्टी लाया जाता है। इन टोकनियों में मिट्टी लेकर अविवाहित आदिवासी लड़कियां है आती है।
टोकनियों को नए कपड़े से ढंककर लाया जाता है। फिर दोनों टोकनी के मिट्टी को अलग-अलग घरों में ले जाया जाता हैं। जहां एक घर में गौरा और दूसरे घर में गौरी की मूर्ति का निर्माण किया जाता है। कहीं कहीं एक ही स्थान पर भी दोनों मूर्तियों का निर्माण किया जाता है। लेकिन वहां पर भी कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना पड़ता है। जैसे जो व्यक्ति गौरा की मूर्ति बनाता है वह गौरी की मूर्ति नहीं बनायेगा। मूर्ति निर्माण के दौरान पानी सहित सभी सामग्री अलग-अलग उपयोग की जाती है।
गौरी-गौरा मूर्ति निर्माण के बाद उसे चमकीली पन्नियों से सजाया जाता है। पारंपरिक रूप से गौरा को सुनहरी पन्नी और गौरी को चांदी रंग की पन्नियों से सजाया जाता है। आजकल आधुनिक रुप में कहीं कहीं पर गौरी गौरा को पूरी तरह से पेंटिंग करके भी तैयार किया जाने लगा है।
गौरी-गौरा के लिए लकड़ी से तैयार विशेष पीढ़ा में मंडप भी बनाया जाता है। जिसके चारों ओर खंभे होते हैं और उसमें दीप प्रज्जवलित होता है। आजकल सुविधा के दृष्टिकोण से लकड़ी के मंदिरनुमा पीढ़ा का चलन बढ़ गया है। जबकि पहले लकड़ी के सादे पीढ़े पर मिट्टी के ही खंभे बनाए जाते थे और उस पर धान को खोंचकर सुंदर कलाकारी की जाती थी।
रात में गांव के समस्त ग्रामवासी गौरा चौक पर इकट्ठा होते हैं और घर-घर से मंगल कलश (करसा) निकालने के लिए जाते हैं। जिसे करसा परघाना कहा जाता है। करसा को धान की बालियों और रंग बिरंगी रंगो से सजाया जाता है। करसा को सजाते हुए महिलाओं के कंठ से सहज ही लोकगीत फूट पड़ता है-
करसा सिंगारंव भइया रिगबिग-सिगबिग…
बहिनी सिंगारंव भइया गोमची बरन के…
करसा सिंगारत भइया एक दिन लागथे…
बहिनी सिंगारत भइया महिना भर लागथे…
करसा परघाने के बाद गौरा का बारात निकाला जाता हो। जो गौरी के घर में जाता है। इस दौरान का दृश्य बहुत ही मनमोहक होता है। तत्पश्चात दोनों मूर्तियों को गौरा चौक में स्थापित किया जाता है। विवाह की रस्में शुरू होती हैं। इस दौरान गौरा गीत का गायन होता है-
एक पतरी रैनी भैनी
रायरतन हो….दुर्गा देवी
तोरे शीतल छांव, चौकी चंदन
पीढ़ुली…गौरी के होथे मान…
इस प्रकार सात बार चांउर चढ़ाने की प्रक्रिया की जाती है। चूंकि विवाह के अवसर पर नोंक-झोंक होती है इसलिए गौरी और गौरा पक्ष से एक प्रकार के भडौनी गीत (विवाह गीत) भी गाया जाता है। वधु पक्ष की महिलाएं गाती हैं-
धन धन हो ईसर अक्कल तुम्हारे
घोड़वा ला छोड़के बइला मा चले आय…
प्रतिउत्तर में वर पक्ष से जवाब आता है
धन धन हो गौरी अक्कल तुम्हारे
पालकी ला छोड़के केछवा मा चले आय…
गौरी गौरा के पूजन का क्रम रात भर चलता है और रात्रि जागरण होता है। भक्ति में लीन महिला पुरुष झूपने लगते हैं। विवाहोत्सव के थकान से चूर वर-वधू को विश्राम देने के लिए लोक स्वर गुंजित हो उठता है
गौरा सुते मोर गौरी सुते ओ
सुते ओ शहर के लोग
चंदा सुते ओ चंदैनी सुते ओ
सुते ओ शहर के लोग…
प्रातः ग्राम के स्त्री पुरुष गौरी गौरा के दर्शन कर उनका आशीर्वाद पाने आते हैं। नन्हें बच्चों को कर्रा काडी़ (तिनके) से आंका जाता है ताकि उनपर बुरी शक्तियों का प्रकोप न हों। फिर पुनः पूजन अर्चन पश्चात गौरी-गौरा का विसर्जन कर दिया जाता है।
पुराणों के अनुसार शिव-पार्वती विवाह के संबंध में वर्णित है-
विवाहसमयं तस्य निश्चत्योचुर्महेश्वरम्।
वैशाखे मासि या शुक्लपंचमी सा गुरोर्दिने।।
अर्थात शिव पार्वती के विवाह के लिए ऋषियों ने वैशाख शुक्ल पंचमी के तिथि का निर्धारण किया था। लेकिन लोकमान्यता अनुसार शिव-पार्वती का गौरा-गौरी के रूप में विवाहोत्सव का आयोजन छत्तीसगढ़ में अद्भुत है।
गौरी के मूर्ति में एक और अद्भुत बात नजर आती है। हमारे क्षेत्र में गौरी की मूर्ति को एक हाथ में बच्चे को पकडे हुए बनाते हैं। बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि वो गणेश जी हैं। छत्तीसगढ़ की संस्कृति अद्भुत है। सुरहुति का पर्व मंगलकारी हो। सबका जीवन मंगलमय हो। सबके जीवन में खुशियों का प्रकाश फैले।
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