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जीवन की साधना के उत्सव हैं दीपोत्सव के पाँच दिन

भारत का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार दीपावली है। यह पाँच दिवसीय दीपों का उत्सव है। जो कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रियोदशी से आरंभ होकर कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया तक चलता है। पहले दिन धनतेरस, दूसरे दिन रूप चतुर्दशी, तीसरे दिन दीपावली, चौथे दिन गोवर्धन पूजन और पाँचवे दिन भाई दूज से इस उत्सव का समापन होता है।

इस पाँच दिवसीय उत्सव श्रृंखला की अलग-अलग पौराणिक कथाएँ हैं। जिनकी स्मृति के रूप में आयोजन होता है। अन्य उत्सवों की भाँति इन पौराणिक संदर्भों को भी निमित्त भी जनकल्याण है। यह बहुआयामी है। व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण, राष्ट्र निर्माण और समाज समरस सशक्तिकरण।

पौराणिक संदर्भ के अनुसार यह अवधि समुद्र मंथन की भी है। कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रियोदशी को धनवंतरि जी प्रकट हुये थे। धनवंतरि जी को आरोग्य का देवता माना गया है जबकि वैद्य या चिकित्सक के रूप में अश्विनी कुमार हैं। अब यह भगवान धनवंतरि जी के नाम का अपभ्रंश हो या स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन।

इस तिथि का नाम धनतेरस हो गया। इस दिन दोनों कार्य होते हैं। आरोग्य वृद्धि का भी और धन वृद्धि कामना भी। धन गतिमान होता है। वह रुकता नहीं। जल की भाँति धन स्वयं अपनी राह निकाल लेता है। इसलिये बुद्धिमान व्यक्ति धन के स्थायित्व के लिये धन को स्थाई संपत्ति में परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं।

चल मुद्रा को ऐसी अचल या स्थाई संपत्ति में परिवर्तित करने का जो आने वाली पीढ़ियों तक सहेजी जा सके और फिर स्वास्थ्य हो या संपत्ति उसकी सार्थकता सदुपयोग में ही होती है। यदि धन का अपव्यय न हुआ और केवल तिजौरी में बंद रखा गया तब भी उसकी उपयोगिता क्या है। इसलिये धन का सकारात्मक परिचालन रहना चाहिए। वह स्थाई परिसंपत्ति में भी रहे और परिचालित भी यह चिंता भारतीय मनीषियों ने की।

इसी प्रकार स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य का संरक्षण ही जीवन को सुखद बनाता है। इसलिये धनतेरस के दिन ये दोनों काम होते हैं। प्रातः उठकर जड़ी बूटी युक्त जल से स्नान, व्यायाम, आहार संतुलन ताकि रोगों का संक्रमण न हो। वही व्यक्ति स्वस्थ रहेगा जो अपनी आंतरिक ऊर्जा से रोगाणुओं पर नियंत्रण कर सकता है।

धनतेरस पर प्रातः उठकर स्नान, ध्यान व्यायाम आदि की प्रक्रिया कुछ ऐसी है जिससे आंतरिक स्वास्थ्य सशक्त होता है। फिर दिन में धन का स्थाईकरण। प्रत्येक व्यक्ति और परिवार द्वारा कोई न कोई स्थाई वस्तु क्रय की जाती है। इस प्रकार धनतेरस के दिन इस तिथि के नाम के अनुरूप दोनों कार्य होते हैं। स्वास्थ्य धन की सुरक्षा और मुद्रा धन के प्रति भी सतर्कता।

अगला दिन रूप चतुर्दशी का है। इसे नरक चतुर्दशी भी कहते हैं। यह तिथि स्वयं की साधना का मूल्यांकन है। इस दिन जिस प्रकार प्रातः उठकर स्नान, व्यायाम, योग साधना का विधान है यह एक प्रकार से स्वयं के शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य की साधना और दिनचर्या संकल्प का है।

वर्षा और शरद ऋतुओं के अनुरूप जीवनचर्या बनाई थी तो आरोग्य का सशक्तिकरण एवं आंतरिक ऊर्जा का संचार होता है। तब चेहरे की काँति बढ़ती है। इस काँति के कारण ही व्यक्ति को रूपवान कहा जाता है। यह तिथि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की समृद्धि की परीक्षा का दिन है। इसलिये तिथि का नाम रूप चतुर्दशी है।

धन और सामर्थ्य के अभाव में व्यक्ति का जीवन नरक के समान है। इसलिए इस तिथि को नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। इस तिथि के लिये पुराणों एक कथा का भी वर्णन है। इस दिन नरकासुर का वध हुआ था। उसके अत्याचार से मानवता मुक्त हुई थी। नरकासुर के वध के कारण नरक चतुर्दशी और उसके तनाव से मुक्ति के कारण तिथि का नाम नरक चतुर्दशी और नरकासुर के अंत से मानवता के जो चेहरे खिले इससे नाम रूप चतुर्दशी मिला।

तीसरा दिन दीपावली का है। इसी दिन भगवान राम चौदह वर्ष वनवास के बाद अयौध्या लौटे थे। उनके आगमन के आनंद में दीपोत्सव हुआ। इस परंपरा के पालन में इस तिथि को दीपावली मनाई जाती है। दीपोत्सव के लिये इस तिथि का निर्धारण भी समाज को एक संदेश भी है। दुष्टों का अंत करके रामजी के लौटने का आनंद तो है ही। साथ ही एक वैज्ञानिक दर्शन भी है। वर्ष में कुल बारह अमावस होतीं हैं। सभी बारह अमावस में कार्तिक की यह अमावस अपेक्षाकृत अधिक अंधकार मय होती है।

चंद्रमा स्वयं प्रकाशमान ग्रह नहीं है। वह सूर्य के प्रकाश का परावर्तन करता है। चूंकि दोनों गृह स्थिर नहीं हैं। दोनों सतत गतिमान हैं इसलिये हमें दिन और रात दोनों में प्रति क्षण प्रकाश की प्रदीप्ता में अंतर दिखाई देता है। प्रकाश स्तर का स्थायित्व कभी क्षण भर भी नहीं रहता। इसलिये प्रत्येक पूर्णिमा या प्रत्येक अमावस पर प्रकाश और अंधकार दोनों का स्तर अलग होता है, प्रदीप्ता और अंधकार के अनुपात में अंतर होता है।

कार्तिक अमावस पर दोनों ग्रहों की स्थिति कुछ ऐसी बनती है, या ऐसे कोण पर स्थित होते हैं कि इस रात के अंधकार में सबसे गहरापन होता है। अंधकार की यह गहनता प्राणी केलिये एक चुनौती होती है। अंधकार की इस गहनता को परास्त करने का संकल्प है दीप मालिका। इससे जगत अमावस की इस घनघोर रात्रि में भी प्रकाशमान हो उठता है।

दीपोत्सव यह संदेश भी देता है कि परिस्थिति कितनी भी विषम हों, अंधकार कितना ही गहन हो, यदि उचित दिशा में उचित परिश्रम और पुरुषार्थ किया जाय तो अनुकूल आनंद हो सकता है। अंधकार भी प्रकाश में परिवर्तित हो सकता है। पुरुषार्थ से अंधकार सदैव परास्त होता है। दीप जलाने का भी एक क्रम है। जो पुरुषार्थ की दिशा निर्धारित करने का संदेश देता है।

दीपावली की रात पहले लक्ष्मी पूजन होता है। फिर घर के भीतर और बाहर दीप जलाये जाते हैं। लक्ष्मी पूजन के लिये पहले केवल एक दिया आरती के लिये जलाया जाता हैं और अन्य सभी दीपक पूजन के बाद जलाये जाते हैं और घर के भीतर हर कोने में और घर के बाहर द्वार पर और आँगन में दिये रखे जाते हैं पड़ौस में भी दीप प्रसाद भेजे जाते हैं। यह संदेश गृहलक्ष्मी से जुड़ा है।

ध्यान देने की बात यह है कि समुद्र मंथन से देवी लक्ष्मी तो अष्ठमी को प्रकट हुईं थीं। उस तिथि को महालक्ष्मी पूजन हो भी गया है। फिर कार्तिक अमावस को लक्ष्मी पूजन होता है  वस्तुतः कार्तिक अमावस की इस पूजन में देवी लक्ष्मी तो एक प्रतीक रूप में हैं। वास्तव में यह दिन तो गृहलक्ष्मी के लिये समर्पित है। गृहलक्ष्मी अर्थात गृह स्वामिनी।

भारतीय चिंतन में घर गृहस्थी का स्वामी पुरूष या पति नहीं होता। पत्नि होती है, नारी होती है। नारी को ही गृहलक्ष्मी, गृह स्वामिनी या घरवाली कहा गया है। पुरुष को गृहविष्णु या गृहदेवता नहीं कहा जाता। नारी के नाम के आगे “देवी” उपाधि स्वाभाविक रूप से लगती है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि नारी विवाहित है, अविवाहित है, परित्यक्ता है, विधवा है, बालिका है या वृद्ध है। वह किसी भी स्थिति या आयु में हो सकती है। उसके नाम के आगे “देवी” सदैव लगाया जाता है।

नारी की संतुष्टि या आवश्यकता पूर्ति की बात ही दीपावली की तैयारी में है। दीपावली पर सदैव घर गृहस्थी की वस्तुएँ ही क्रय की जातीं हैं। वस्त्र, आभूषण, श्रृंगार सामग्री सब का संबंध नारी से होता है। नारी की पसंद या आवश्यकता से ही धनतेरस या दीपावली के आसपास वस्तुएँ क्रय की जातीं हैं।

एक और बात महत्वपूर्ण है। दीपावली से पहले गुरु पूर्णिमा, रक्षाबंधन, पितृपक्ष आदि तिथियाँ निकल चुकीं होतीं हैं। इन तिथियों पर गुरु केलिये बहन के लिये, वरिष्ठ जनों के लिये यहाँ तक कि पितृपक्ष में पुरोहित जी के लिये भी वस्त्र या अन्य प्रकार की भेंट भोजन का दायित्व पूरा हो जाता है इसलिये कार्तिक मास की अमावस की तिथि गृहस्वामिनी या गृह लक्ष्मी के लिये निर्धारित है।

इसमें जहाँ परिवार जनों में गृह स्वामिनी के माध्यम से परिवार समाज की समृद्धि के उपाय का संदेश है वहीं गृह स्वामिनी को यह संदेश भी है कि वह पहले परिवार समाज के हित की चिंता करे फिर अपनी इच्छा पूर्ति का प्रयास करे। ऋग्वेद से लेकर अनेक पुराण कथाओं तक समाज को यह स्पष्ट संदेश है कि वही घर प्रकाशमान होगा जहाँ नारी संतुष्ट और प्रसन्न है। उसी घर में देवता रमण करते हैं जहाँ नारी का सम्मान जनक स्थान होता है।

घर की देवी यदि अपनी पसंद और आवश्यकता पूर्ति से संतुष्ट है तभी घर प्रकाशमान होता है। यह सामर्थ्य नारी में ही है कि वह सबसे अंधेरी अमावस की रात्रि को भी प्रकाशमान बना सकती है। दीपावली के दिन वही दीपों से पूरे घर को प्रकाशमान करती है इसलिये यह त्यौहार देवी लक्ष्मी के पूजन प्रतीक रूप में गृहलक्ष्मी को ही समर्पित है।

दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजन होता है। इस दिन गोबर से  पर्वत का प्रतीक बनाकर पूजन की जाती है और पशुओं का श्रृंगार करने की परंपरा है। पुराण कथा के अनुसार यह तिथि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाने से जुड़ी हुई है। भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर प्रकृति के कोप से मानवता की रक्षा की थी। उसी स्मृति में गोवर्धन पूजन होती है।

पर्वत के प्रतीक का पूजन पर्वतों के संरक्षण से जुड़ा है। यह तिथि पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती है। यदि समाज द्वारा पर्वत संरक्षित है, सुरक्षित है तो पूरी प्रकृति ही नहीं मानवता भी सुरक्षित है। पर्वतों की सुरक्षा से नदी तालाब तथा अन्य जल स्रोत सुरक्षित रहते हैं,  पर्वतीय सुरक्षा ही वनों को सुरक्षा देती है। पर्वत पर ही पनपती है औषधीय वनस्पति जो मनुष्य को आरोग्य देती है। इसलिए यह तिथि गोवर्धन पूजन के माध्यम से पूरी प्रकृति को सुरक्षित रखने का संकल्प और प्रतीक है।

जीवन प्रकृति के संतुलन से चलता है। यदि पर्वत सुरक्षित रहेंगे तो वनस्पति की विविधता रहेगी, मौसम संतुलित रहेगा। वर्षा संतुलित होगी। पर्वत ही तो बादलों को रोककर वर्षा के लिये विवश करते हैं। सबसे बड़ी बात पर्वतीय घास औषधि युक्त होती है। उसे खाकर पशु गाय, बैल, ऊंट आदि पालतू पशु स्वस्थ्य रहते हैं। विशेषकर गाय का दूध, गौ मूत्र गौबर आदि में औषधीय गुण आते हैं।

पशु आधारित कृषि के लिये  ये पशु जितने उपयोगी थे उससे अधिक इनकी उपयोगिता आज भी अनुभव की जा रही है। आज के विज्ञान तो अब इनके गौबर एवं अन्य अपविष्ट आदि से सोलर ऊर्जा आदि बनाना जान पाया है। पर भारतीय चिंतन में यह तथ्य अनादि काल से हैं।  समाज इनसे दूर न हो पर्वत और पशुओं का महत्व समझे इसी प्रतीक रूप से गोवर्धन पूजा है।

दीपावली का समापन भाई दूज से होता है। इस दिन भाई अपनी बहन के घर जाकर भोजन करता है और भेंट देता है। रक्षाबंधन पर भाई अपनी बहन को अपने घर आमंत्रित करता है। पर भाईदूज के दिन भाई स्वयं अपनी बहन के घर जाता है।

पुराणों में इस तिथि को यम द्वितिया भी कहा गया। यम और यमुना भाई बहन हैं।  इनके पिता सूर्यदेव हैं। दोनों भाई बहन बचपन में बिछुड़ गये थे। अंत में भाई यम ने अपनी बहन यमुना को खोज लिया, बहन के घर जाकर भोजन किया और घोषणा की कि इस दिन जो भाई अपनी बहन के घर जाकर भोजन करेगा उसे यमपुरी में कोई कष्ट नहीं होगा।

इस तिथि भाइयों को संदेश है कि भले बहन का विवाह हो गया। वह दूसरे घर चली गई पर उसकी चिंता करना है, उसके घर जाकर उसकी कुशल क्षेम का पता लगाना है। भाई अपनी समृद्धि में खो न जायें अपनी बहन की भी चिंता करें।

दीपोत्सव का त्यौहार तभी सार्थक है जब उत्सव आयोजन में बहन का स्मरण आये और पूजा उपासना मिलन आदि करके तुरन्त बहन के घर जायें। यह दोनों परिवारों के बीच समरसता का संदेश है। इस प्रकार दीपोत्सव के ये इन पाँच दिनों में समाज का ऐसा कौनसा वर्ग है जिससे संपर्क नहीं बनता। जिसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। समाज के हर वर्ग और प्रकृति के साथ एकाकार होने का त्यौहार है दीपावली।

आलेख

श्री रमेश शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल, मध्य प्रदेश

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