23 जनवरी पराक्रम दिवस : यानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्मदिवस
केंद्र शासन ने नेताजी के जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी सुभाष चंद्र बोस एकमात्र नेता हैं जिनके जन्म दिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जा सकता है। इसका सबसे बड़ा आधार यह है कि उन्होंने उन अंग्रेजों के विरुद्ध सरकार और सेना के गठन का कठिन पराक्रम पूर्ण किया था जिनके राज्य में सूरज नहीं डूबता था। ब्रिटिश साम्राज्य इतना विस्तृत था कि एक हिस्से में सूरज डूब रहा होता था तो दूसरे हिस्से में सूरज उग रहा होता था। इस उक्ति का प्रयोग इस आशय से किया जाता है कि ब्रिटिश साम्राज्य अत्यंत ही विशाल था। यह सिर्फ विशाल और शक्तिशाली ही नहीं था बल्कि पीड़ादाई भी था।
अट्ठारह सौ नब्बे के दशक में ब्रिटिश शासकीय अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 2 करोड लोग अकाल से मरे थे। ब्रिटिश शासन के लंबे काल में चार बार तो अकाल आयोग बनाए गए थे। सरकार हर प्रकार से भारतीय सामग्री का शोषण ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के लिए करती आ रही थी। 1897 में क्वीन विक्टोरिया के शासन का डायमंड जुबली भव्यता के साथ मनाया जा रहा था।
महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित होने का 20 वर्ष भी पूरा हो रहा था। हीरक जयंती समारोह के इतने महत्वपूर्ण समय में जब साम्राज्य अपने शीर्ष पर था तब उसके विरुद्ध लड़ने वाले अनन्य पराक्रमी योद्धा का जन्म हुआ 23 जनवरी 1897 को। पिता जानकीनाथ बोस ने अपनी डायरी में लिखा कि प्रभा को सुबह से ही प्रसव वेदना हो रही थी और अंततः भगवान को धन्यवाद कि बच्चे का जन्म सरलता से सामान्य तौर पर हो गया। जाहिर है उस समय किसी को भी अंदाजा नहीं था कि जानकी नाथ और प्रभावती जी का छठा पुत्र और नवम संतान के कार्य का प्रभाव एवं क्षेत्र वैश्विक स्तर वाला है।
भारतीय मानस की पौराणिक परंपरा जैन बौद्ध धर्म की चेतना एवं गांधीवादी हार्दिक विश्वास के अनुसार अहिंसा… परमो धर्म… की शीर्ष स्थिति में थी। इस सर्वांगीण चेतना के विरुद्ध सुभाष अपने व्यक्तिगत विचारधारा के कारण सेना एवं सरकार निर्माण का कार्य पूर्ण कर पाए थे क्योंकि उनकी समझ में ब्रिटिश सरकार को भारत से निकालने के लिए सैनिक बल की आवश्यकता अनिवार्य रूप से थी।
सुभाष चंद्र बोस का परिवार जाति से कायस्थ था। इस जाति की कोई फौजी परंपरा नहीं रही है। पिता उनके शिव संप्रदाय के थे। परिवार के कुछ सदस्य वैष्णवी परंपरा के थे। माता काली की भक्त थी। इस तरह के परिवेश से समझना मुश्किल है कि उन्हें सैन्य परंपरा के बिना भी सेना गठन करने की प्रेरणा कहां से मिलती।
मध्य भारत में कायस्थ जाति का जुड़ाव नौकरी और कलम से जुड़े काम से रहा है। इस तरह की नागरिक एवं असैन्य परंपरा से निकला आदमी अचानक से सैन्य परंपरा का उत्कृष्ट कार्य कर पाया। यह पूरी तरह से उनकी व्यक्तिगत विचारधारा के आधार पर चुना गया काम था। परिस्थिति और परिवेश में इसकी जड़ें नहीं खोजी जा सकती।
बंगाल का इतिहास वैसे भी ग़ैर सैनिक परंपरा वाला रहा है। मुर्शिद कुली खां अलीवर्दी खान सिराजुद्दौला मीर जाफर मीर कासिम कोई भी उत्कृष्ट सेनानायक नहीं रहा है। वहां के सैनिक भी उत्कृष्ट योद्धा नहीं रहे। बंगाल की उपलब्धि मूलता व्यापार तथा भक्ति गीतों के संदर्भ में रही है।
ग़ैर सैनिक परंपरा वाले क्षेत्र एवं परिवेश से निकलने के बाद जितना महत्व नेता जी ने सेना और सरकार के गठन को दिया वह उन्हें वास्तविक राजनीति की आवश्यकताओं का अद्वितीय विचारक एवं अवलोकन करता के रूप में निश्चित तौर पर स्थापित कर देता है।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में अगर सुभाष चंद्र बोस की विचारधारा को सही ढंग से लागू किया जाता तो 1962 की पराजय का सामना हमें नहीं करना पड़ता। यह भी हो सकता है कि भारत की सैनिक क्षमता को देखते हुए चीन ने जो सामरिक तौर पर सीमित आक्रमण किया था वह भी नहीं करता। सेना की आवश्यकता को नेता जी ने सही तौर पर समझा था और कार्य रूप में परिणत किया था।
आजाद हिंद फौज के सारे सैनिकों और अधिकारियों का कोर्ट मार्शल करना संभव नहीं था इसलिए ब्रिटिश सरकार ने तीन प्रमुख- ढिल्लों, सहगल, शाहनवाज को युद्ध अपराधी के रूप में चुना था। दक्षिण पूर्व एशिया के अपने भाषणों में नेताजी ने बार-बार कहा था कि हमें लाल किले के सामने आजाद हिंद फौज को अपना विक्ट्री परेड करना है।
उसी लाल किले में इन तीनों अधिकारियों की सुनवाई शुरू हुई। बड़े-बड़े नेताओं और वकीलों ने आजाद हिंद फौज का पक्ष रखा। भूला भाई देसाई ने नेताजी की वैचारिक क्षमता को प्रदर्शित करते हुए कहा कि इन सैनिकों अधिकारियों का कोई दोष नहीं है क्योंकि इन्होंने आजाद हिंद सरकार के आदेश पर अपने शत्रु के विरुद्ध युद्ध किया था। वह सरकार विश्व के प्रमुख देशों के एक घड़े द्वारा मान्यता प्राप्त थी। सरकार गठन की सारी औपचारिकताएं पूरी की गई थी और इसलिए ऐसी सरकार द्वारा घोषित युद्ध के पालन में इन अधिकारियों ने इंग्लैंड के विरुद्ध युद्ध किया था।
यह तर्क पूरी तरह सुसंगत है लेकिन न्यायाधीश को तार्किक नहीं लगा। उन्होंने युद्ध अपराधी के रूप में तीनों को दंडित करने का फैसला किया लेकिन 4 दिनों के अंदर ही भारत के कमांडर इन चीफ औचीनलेक ने इन तीनों को सजा से मुक्ति दे दी। सजा की मुक्ति उन्होंने कोई दया भावना से नहीं दी थी। भारत में रहने वाले शीर्ष ब्रिटिश अधिकारियों को पता था कि भारतीय सेना में आजाद हिंद फौज के लिए गहरी सहानुभूति है और अगर इन्हें दंडित किया जाएगा तो सेना और जनता विद्रोह कर देगी।
उस स्थिति की कल्पना की जा सकती है जब 1857 का विद्रोह फिर से वापस आ जाता। इसके तुरंत बाद नौसैनिक विद्रोह शुरू हुआ तो समझने में कोई चूक नहीं है कि आजाद हिंद फौज सीधे तौर पर भारत को आजाद कराने में सफलता नहीं प्राप्त कर सकी लेकिन नौसैनिक विद्रोह को INA से जोड़कर देखने पर समझ में आ जाता है कि आजाद हिंद फौज ने भारत की आजादी को सिर्फ अनिवार्य नहीं किया वरन शीघ्रतम रूप में प्राप्त करता। अन्यथा की स्थिति में आजादी आगे के लिए टाली जा सकती थी।
आजादी प्राप्त करने के बाद भी नेता जी के सैनिक विचारों की उपयोगिता बनी रही। जूनागढ़ के विलयन में बाधा आ रही थी। जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान भाग गया और उसकी कोशिश थी कि जूनागढ़ की रियासत को पाकिस्तान में शामिल कर दिया जाए।
आजाद हिंद फौज के मॉडल को अपनाते हुए लोक सेना का गठन किया गया जिसमें आठ हजार युवा भर्ती हुए थे और आजाद हिंद सरकार की तर्ज पर सरकार का भी गठन किया गया। इसमें कोषाध्यक्ष या वित्त मंत्री का कार्य महात्मा गांधी के भतीजे श्यामल दास गांधी कर रहे थे।
इस सेना के साथ भारत की सेना ने भी सहयोग किया और इस तरह जूनागढ़ रियासत को भारत में मिलाया जा सका। इसके उपरांत हुए लोकमत संग्रह में जूनागढ़ के विलयन को प्रचंड बहुमत प्राप्त हुआ। इसी तरह हैदराबाद के विलियन में भारतीय फौज का उपयोग किया गया। बिना फौज का प्रयोग किए हैदराबाद को भारत में मिलाना संभव नहीं हो पाता।
नेताजी की इस पराक्रमी विचारधारा का महत्व बहुत हद तक गांधीजी समझते थे। भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी ‘करो या मरो ‘ वाली भावना के पीछे सुभाष वादी समझ को स्वीकार किया जा सकता है। उन दिनों ऐसा भरोसा किया जाता था कि अगर सुभाष चंद्र बोस भारत में होते तो भारत छोड़ो आंदोलन बेहतर ढंग से संगठित किया गया होता।
ऐसा कहा गया बताते हैं कि गांधी जी ने स्वयं कहा था कि यदि आज सुभाष भारत में होता तो मुझे किसी की जरूरत नहीं होती। इस धारणा के आधार पर ही सही ढंग से समझा जा सकता है कि उन्होंने नेताजी को ‘देशभक्तों का राज कुमार’ कहा था। नेता जी भी इस हार्दिक भावना में पीछे नहीं थे और उन्होंने आजाद हिंद फौज के अपने संबोधन में गांधी जी को राष्ट्रपिता बताते हुए आशीर्वाद मांगा था।
1938/ 39 में सरदार पटेल के बड़े भाई की संपत्ति के लिए नेताजी के साथ मुकदमा चला था। यूरोप में विट्ठलभाई पटेल या कहें कि बड़े पटेल जब बीमार हुए थे तो नेता जी ने उनकी अच्छी तरह देखभाल की। इससे प्रसन्न होकर बड़े पटेल ने नेताजी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था और अपनी संपत्ति उनके नाम कर दी थी ताकि राष्ट्र के हित में उसका उपयोग किया जा सके।
छोटे पटेल या सरदार पटेल इस वसीयत से सहमत नहीं थे। इस कारण पटेल और नेताजी के बीच में संपत्ति के लिए मुकदमें बाजी हुई। इस मुकदमे के कारण नेताजी और पटेल दोनों के बीच में शायद थोड़ी कड़वाहट रही हो, लेकिन जब आजाद हिंद फौज का मुकदमा प्रारंभ किया गया तो सरदार पटेल ने कांग्रेसी हलकों में सबसे अधिक जोर दिया कि कोर्ट में इनकी रक्षा के लिए टीम बनाई जाए।
सरदार पटेल सुभाष चंद्र बोस की पराक्रमी सैन्य वादी परंपरा से सिर्फ प्रेरित नहीं थे प्रभावित भी थे और वही कुछ वह हैदराबाद में भी करने वाले थे। जमीन से जुड़े राजनेता सरदार पटेल ने पराक्रमी नेता सुभाष चंद्र बोस के महत्व को स्वीकार किया और आजाद हिंद फौज के लोगों को कानूनी संरक्षण देने के लिए सफल प्रयास भी किया।
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