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श्रावण मास का आध्यात्मिक एवं पौराणिक महत्व

हिन्दू पंचांग में काल गणना एवं बारह मासों की पृष्ठभूमि वैज्ञानिकता पर आधारित है। जिसमें श्रावण या सावन मास पांचवे स्थान पर है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार जुलाई-अगस्त माह का समय श्रावण मास या सावन का होता है। यह मास जल के लिए जाना जाता है. साथ ही यह सृष्टि का सृजन काल भी होता है।

ग्रीष्म की प्रचंडता से धरती और समस्त जीव-जगत, पेड़-पौधे जलने लगते हैं तब वर्षा का जल इन्हें पुनर्जीवित करता है। प्रकृति पनपने लगती है। जल वृष्टि होने से धरती के गर्भ से अंकुरण होने लगता है। सभी जीव-जंतु, जड़-चेतन हर्षित हो उठते हैं। शीतल वायु से संपूर्ण जीव-जगत शीतलता, आनंद एवं उल्लास का अनुभव करने लगता है। धरती हरियाली का धानी वस्त्र धारण कर लेती है।

श्रावण मास शिव अर्थात कल्याणकारी है। शिव जी कैलास में रमते हैं। कैलास का अर्थ है शांति प्रदान करने वाला। जो आनन्द और उत्सव का प्रतीक है।

कालिदास ने अष्टमूर्ति शिव से कल्याण की कामना करते हुए कहा है-‘या सृष्टि:स्त्रष्टुराद्या’अर्थात जो विधाता की प्रथम सृष्टि अर्थात जलमीय मूर्ति है। हमारा सम्पूर्ण पर्यावरण शिवमय है। पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु,आकाश इन पंचमहाभूतों के साथ सूर्य, चंद्र एवं यज्ञकर्ता ये आठ शिव के रूप हैं। सृष्टि की अभिलाषा से विधाता ने जल की रचना कर उसमें बीज का निक्षेप किया जिससे चराचर जगत की सृष्टि का आविर्भाव हुआ। मनुस्मृति के अनुसार—’अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यभवासृजत ।। श्लोक1.8अर्थात विधाता ने सर्वप्रथम जल का निर्माण किया।

जल समस्त जगत का आधार है। शिव के आठ रूप ही समस्त पर्यावरण का प्रतीक है। इन्ही तत्वों की अंतः क्रिया से समस्त सृष्टि या पर्यावरण का प्रसार हुआ। अतः सभी शिवमय अर्थात मंगलमय हैं। शिव का अर्थ है कल्याण। ‘शि’का अर्थ है पापों का नाश करने वाला एवं ‘व’ का अर्थ है देने वाला। इस प्रकार श्रावण मास में सम्पूर्ण वातावरण शिव तत्त्व का चरम होता है। जो सहजता से उपलब्ध होता है। यह मास भगवान शिव के पूजन के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

अखिल ब्रम्हांड ईश्वर का स्वरूप है। श्रावण मास में बरस रही जलधारा, प्रकृति धरती का अभिषेक करती प्रतीत होती है। प्रकृति की इस क्रिया का अनुसरण मानव भी अपने आराध्य शिवलिंग पर जल चढ़ाकर करते हैं। श्रावण का अर्थ श्रवण से संबंधित है। चूंकि सभी शिवभक्त इस पवित्र मास में भजन, कीर्तन एवं कथाओं को सुनते एवं गुणगान करते हैं जिससे उन्हें अध्यात्म ज्ञान की एवं अभिषेक से शांति व शीतलता की प्राप्ति होती है।

श्रावण मास भगवान शिव एवं माता पार्वती को अत्यंत प्रिय होने के कारण इन्हें समर्पित है। इस मास में भोलेनाथ का पूजन-अर्चन,जप-तप, भजन-कीर्तन, जलाभिषेक, रुद्राभिषेक करने, रामचरित मानस, एवं राम नाम संकीर्तन का विशेष महत्व एवं फल है।

देवों के देव महादेव मार्ग की समस्त बाधाओं एवं कष्टों को दूर करने वाले हैं। पुरातन को नष्ट कर नूतनता का मार्ग प्रशस्त करते हैं इसलिए कल्याणकारी हैं। पौराणिक कथा अनुसार देवी पार्वती ने सावन मास में निराहार, निर्जला रह कठिन व्रत एवं तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न कर पति रूप में प्राप्त किया। इसलिए उन्हें अत्यंत प्रिय है।

शिवपुराण के अनुसार शिव स्वयं ही जल हैं। अतः जल से अभिषेक कर आराधना करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है। सावन मास में सूर्य दक्षिणायन हो जाते हैं। कर्क राशि का सूर्य ही सावन मास है। इस मास में भगवान विष्णु जल का आश्रय लेकर क्षीरसागर में शयन करने चले जाते हैं।अतः इन चार महीनों में सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शंकर ग्रहण करते हैं, इसलिए श्रावण मास के प्रधान देवता होते हैं।

मान्यता है कि मार्कंडेय ऋषि की आयु कम थी लेकिन उनके पिता मरकंडु ऋषि ने उन्हें अकालमृत्यु से दूर कर दीर्घायु करने हेतु शिवजी की विशेष पूजा एवं कठिन तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया जिससे मृत्यु के देवता यमराज भी नतमस्तक हो गए इसलिए शिव जी को महाकाल भी कहा जाता है।

पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन में सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला जिसकी ज्वाला से देवता,असुर जलने लगे। उनकी कांति फीकी पड़ने लगी। सभी ने भगवान शिव से प्रार्थना की तब उस विष को हथेली पर रखकर पी गए किंतु उसे कंठ से नीचे नही उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कंठ नीला हो गया इसलिए शिव जी को नीलकण्ठ कहते हैं। उनकी हथेली से थोड़ा विष धरती पर गिर गया जिसे नाग ,बिच्छू एवं अन्य जंतुओं ने ग्रहण किया जिसका अंश आज भी हम देखते हैं।

विष के ताप से व्याकुल होकर शिव जी ने तीनो लोको में भ्रमण किया किंतु उन्हें शान्ति नही मिली। वे अंत में पृथ्वी पर आए और पीपल के वृक्ष के पत्तो को हिलता देख उसके नीचे बैठ गये जहां उन्हें शांति मिली। शिव जी के साथ सभी देवी-देवताओ ने अपनी शक्ति पीपल वृक्ष में समाहित कर दी, जिससे पीपल भोलेनाथ को शीतल छाया और जीवनदायिनी वायु प्रदान करने लगा।

चन्द्र देव ने पूर्ण शक्ति से शीतलता दी, शेषनाग शिव के कंठ में लिपटकर उस कालकूट विष के दाह को कम करने लगे, इंद्र देव और गंगाजी निरंतर उनके शीश पर जलवर्षा करने लगी। विष ही विष के प्रभाव को कम कर सकता है अतः सभी देवता भांग, धतूरा, बेलपत्र शिव जी को खिलाकर कर उनके विष के ताप को कम करने का प्रयास करने लगे। जिससे शिव जी को शांति मिली और शिव जी श्रावण मास भर पृथ्वी पर ही रहे।

शिव जी ने प्रसन्न हो चन्द्रमा, पीपल, शेषनाग, सभी को वरदान दिया कि जो भी प्राणी मुझे जल, गंगाजल, बेलपत्र, पुष्प, भांग धतुरा, दूध अर्पित करेगा उसे संसार के दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलेगी एवं शिवलोक की प्राप्ति होगी।

श्रावण मास में कांवड़ यात्रा कर शिव की आराधना की जाती है। सोमवार को शिवलिंग में जलाभिषेक एवं दूधाभिषेक के साथ पूजन-अर्चन करने से सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। शिव जी को कमल, बेलपत्र, मदार, धतूरा, हरसिंगार, कनेर, बेला, चमेली, शमी, दुर्वा इत्यादि चढ़ाने से शिव की कृपा प्राप्त होती है।

श्रावण मास में बारह ज्योतिर्लिंगों का दर्शन एवं जलाभिषेक करने से अश्वमेध यज्ञ के समान फल की प्राप्ति होती है। इस तरह श्रावण मास आध्यात्म की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। व्रत उपवास करने से शारीरिक मलों की शुद्धि भी होती है, जिससे आगामी ॠतुओं में कार्य करने के लिए शरीर ऊर्जा ग्रहण करता है।

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास।।19।। रामचरित मानस बालकाण्ड

संदर्भ —
Bhaskar. com
Raja express
Amar ujala
Dainik bhshkar. com
Shri prabhu .blogspot. com
Www jagran. com
समुद्र मंथन वेबदुनिया,

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