9 जुलाई 1301 से 11 जुलाई 1301 को रणथंबोर में जौहर
सवाई माधोपुर से लगभग छह मील दूर रणथम्भौर दुर्ग अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा विकट दुर्ग है। रणथम्भौर का वास्तविक नाम रन्त:पुर है, अर्थात ‘रण की घाटी में स्थित नगर’। इस दुर्ग का निर्माण राजा सज्जन वीर सिंह नागिल ने करवाया था।
उसके बाद से उनके कई उत्तराधिकारियों ने रणथम्भौर दुर्ग के निर्माण की दिशा में योगदान दिया। अबुल फजल ने इसके बारे में कहा कि अन्य सब दुर्ग नंगे है, यह बख्तरबंद किला है। राव हम्मीर देव चौहान की भूमिका इस किले के निर्माण में प्रमुख मानी जाती है। इसी रणथंबोर दुर्ग के साथ इतिहास का पहला जल जौहर जुड़ा हुआ है।
भारत पर हुये मध्यकाल के आक्रमण साधारण नहीं थे। हमलावरों का उद्देश्य धन संपत्ति के साथ स्त्री और बच्चों का हरण भी रहा। जिन्हें वे भारी अत्याचार के साथ गुलामों के बाजार में बेचते थे। इससे बचने के लिये भारत की हजारों वीरांगनाओं ने अपने बच्चों के साथ जल और अग्नि में कूदकर अपने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा की।
ऐसा ही एक जौहर रणथंबोर में 9 जुलाई 1301 से आरंभ हुआ और 11 जुलाई तक चला। इस जौहर में राणा हमीर देव की रानी रंगा देवी ने अपनी पुत्री पद्मा के साथ जौहर किया था। उनके साथ बारह हजार क्षत्राणियों ने जल और अग्नि में कूदकर अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।
रानी रंगादेवी चित्तौड़ की राजकुमारी थीं और रणथंबोर के इतिहास प्रसिद्ध राजा हमीरदेव को ब्याहीं थीं। रणथंबोर का यह राज परिवार पृथ्वीराज चौहान का वंशज माना जाता है। मोहम्मद गौरी के हमले से दिल्ली के पतन के बाद उनके एक पुत्र ने रणथंबोर में राज स्थापित कर लिया था। इसी वंश में आगे चलकर 7 जुलाई 1272 को हमीरदेव चौहान का जन्म हुआ था।
उनके पिता राजा जेत्रसिंह चौहान ने भी दिल्ली सल्तन के अनेक आक्रमण झेले थे। लेकिन रणथंबोर किले की रचना ऐसी थी कि हमलावर सफल न हो पाये। लगातार हमलों से राजपूताने की महिलाएं भी आत्मरक्षा के लिये शस्त्र संचालन सीखती थीं। हमीरदेव की की माता हीरा देवी भी युद्ध कला में प्रवीण थीं।
परिवार की पृष्ठभूमि ही कुछ ऐसी थी कि हमीर देव ने कभी स्वाभिमान से समझौता नहीं किया। उन्होंने अपने जीवन में कुल 17 युद्ध लड़े थे और 16 युद्ध जीते। जिस अंतिम युद्ध में उनकी पराजय हुई उसी में उनका बलिदान हुआ। उन्होने 16 दिसंबर 1282 को रणथंबोर की सत्ता संभाली थी। पर उनका पूरा कार्यकाल युद्ध में बीता।
दिल्ली के शासक जलालुद्दीन ने 1290 से 1296 के बीच रणथंबोर पर तीन बड़े हमले किये पर सफलता नहीं मिली। अलाउद्दीन उसका भतीजा था जो 1296 में चाचा की हत्या करके गद्दी पर बैठा। गद्दी संभालते ही अलाउद्दीन ने राजस्थान और गुजरात पर अनेक धावे बोले। पर रणथंबोर अजेय किला था। वह अपने चाचा के साथ रणथंबोर में पराजय का स्वाद चख चुका था इसलिए उसने यह किला छोड़ रखा था तभी 1299 में एक घटना घटी।
अलाउद्दीन की सेना गुजरात से लौट रही थी। उसके दो मंगोल सरदार मोहम्मद खान और केबरु खान रास्ते में रुक गये और रणथंबोर में राजा हमीर देव के पास पहुँचे। दोनों ने अलाउद्दीन के विरुद्ध शरण माँगी। हमीर देव ने विश्वास करके दोनों को न केवल शरण दी अपितु जगाना की जागीर भी दे दी थी।
इस घटना के लगभग दो वर्ष बाद अलाउद्दीन ने रणथंबोर पर धावा बोला। यह कहा जाता है कि अलाउद्दीन इन दोनों को शरण देने से नाराज था। इसलिए धावा बोला पर कुछ इतिहास कारों का मानना है कि यह अलाउद्दीन खिलजी की रणनीति थी। इन दोनों ने न केवल किले के कयी भेद दिये अपितु हमीर देव की सेना में भेद पैदा कर दिया, इससे हमीर देव के दो अति विश्वस्त सेनापति रणमत और रतिपाल अलाउद्दीन से मिल गये।
इतना करने के बाद 1301 में अलाउद्दीन ने रणथंबोर पर धावा बोला तब हमीर देव एक धार्मिक आयोजन में व्यस्त थे और उन्होंने अपने इन्ही दोनों सेनापतियों को युद्ध में भेजा। लेकिन दोनों के मन में विश्वासघात आ गया था। इनके अलाउद्दीन से मिल जाने से रणथंबोर की सेना कमजोर हुई। तब किले के दरबाजे बंद कर लिये गये।
पर किले के भीतर गद्दार थे रसद सामग्री में विष मिला दिया गया। किले के भीतर भोजन की विकराल समस्या उत्पन्न हो गई। इस विष मिलाने के संदर्भ में अलग-अलग इतिहासकारों के मत अलग हैं। कुछ का मानना है कि मोहम्मद खान और कुबलू खान की कारस्तानी थी जबकि कुछ रणमत और रतिपाल का विश्वासघात मानते हैं।
विवश होकर हमीरदेव ने केशरिया बाना पहन कर साका करने का निर्णय लिया। और किले के भीतर सभी महिलाओं ने रानी रंगा देवी के नेतृत्व जौहर करने का निर्णय हुआ। यह जौहर 9 जुलाई से आरंभ हुआ जो तीन दिन चला। यह जौहर दोनों प्रकार का हुआ अग्नि जौहर भी और जल जौहर भी।
तीसरे दिन 11 जुलाई 1301 को रानी रंगादेवी ने अपनी बेटी पद्मला के साथ जल समाधि ली। राजा हमीर देव 11 जुलाई को केशरिया बाना पहनकर निकले और बलिदान हुये। इस जौहर में कुल बारह हजार वीरांगनाओं ने अपने स्वत्व रक्षा के लिये प्राण न्यौछावर कर दिये। यह राजस्थान का पहला बड़ा जौहर माना जाता है।
इतिहास के विवरण के अनुसार रणमत और रतिपाल अलाउद्दीन खिलजी के हाथों मारे गए जबकि मोहम्मद खान और कुबलू खान का विवरण नहीं मिलता। इसी से यह अनुमान लगाया जाता है की इन दोनों सरदारों को हमीर देव के पास भेजने की रणनीति अलाउद्दीन की ही रही होगी ताकि किले के गुप्त भेद पता लगें और भीतर से विश्वासघाती पैदा किये जा सकें।
चूँकि युद्ध के पहले का घटनाक्रम साधारण नहीं है। अलाउद्दीन की धमकियों के बीच युद्ध की तैयारी करने की बजाय एक विशाल पूजन यज्ञ की तैयारी करना आश्चर्यजनक है। किसने युद्ध के घिरते बादलों से ध्यान हटाकर यज्ञ में लगाया? अब सत्य जो हो पर रंगादेवी के जौहर का वर्णन सभी इतिहासकारों के लेखन में है। जो तीन दिन चला।
इतिहास के जिन ग्रंथों में इस जौहर का विवरण है उनमें “हम्मीर ऑफ रणथंभोर” लेखक हरविलास सारस्वत, जोधराकृत हम्मीररासो संपादक-श्यामसुंदर दास, जिला गजेटियर सवाई माधोपुर तथा सवाईमाधोपुर दिग्दर्शन संपादक गजानंद डेरोलिया में है।
इधर हम्मीर रासो में लिखा है कि जौहर के वक्त रणथम्भौर में रानियों ने शीश फूल, दामिनी, आड़, तांटक, हार, बाजूबंद, जोसन पौंची, पायजेब आदि आभूषण धारण किए थे। हम्मीर विषयक काव्य ग्रंथों में सुल्तान अलाउद्दीन द्वारा हम्मीर की पुत्री देवलदेह, नर्तकियों तथा सेविकाओं की मांग करने पर देवलदेह के उत्सर्ग की गाथा मिलती है। किन्तु इसका ऐतिहासिक संदर्भ नहीं मिलता।
एक अन्य विवरण मिलता है कि सुल्तान अलाउद्दीन ने हमीरदेव की पुत्री देवलदेह सहित रनिवास की सभी महिलाओं के साथ समर्पण करने की शर्त रखी थी। इसलिए हमीरदेव ने साका करने का निर्णय लिया और रनिवास ने जौहर करने का।
“हठी हम्मीर” के रचयिता राजस्थान के विद्वान कवि इतिहासकार ताऊ शोखावटी ने बताया कि उम्मीरदेव की पत्नी रंगादेवी उनकी सेविकाओं और अन्य रानियों के साथ जौहर किया था। इतिहासकारों के अनुसार यह राजस्थान का पहला जौहर था।
इतिहास प्रभाशंकर उपाध्याय ने बताया कि जौहर यमग्रह ने बना हुआ शब्द है, यह यमग्रह से अपभ्रंश होकर जमग्रह बना फिर जौहर हुआ। इस तरह जौहर के माध्यम से क्षत्राणियों ने स्वत्व की रक्षा के लिए आत्म बलिदान किया और इतिहास में अमर हो गई।
आलेख
बहुत सारगर्भित