इतिहास साक्ष्य सापेक्ष होता है। इतिहासकार पुरावशेषों से ज्ञात तथ्यों के आधार पर ही इतिहास का निर्माण करता है। प्राचीन मुद्राओं का इतिहास लेखन में विशिष्ट स्थान है। प्राचीन भारतीय इतिहास के अनेक तथ्यों के विषय में मुद्राएं ही साधन के रूप में प्रस्तुत होते हैं, जिससे इतिहास के अज्ञात तथ्य उद्घाटित होते हैं। पुरातत्व विषयक प्रमाणों द्वारा इतिहास लेखन में मुद्राओं व उत्कीर्ण लेखों का योगदान सर्वोपरि व उल्लेखनीय रहा है। मुद्राओं के सूक्ष्म व गहन विश्लेषण से अनेक अनसुलझे पहलुओं को भी प्राथमिकता के साथ सुलझाया गया है, जिसमें उत्कीर्ण प्रतीक चिन्हों की भूमिका मुख्य है।
कला- सृजन की प्रक्रिया में प्रतीक को एक तथ्यपूर्ण और मौलिक प्रेरणा के रूप में ग्रहण किया जाता है। जे. एन. बैनर्जी ने अपनी पुस्तक ’डेव्हलपमेन्ट ऑफ हिन्दू आइक्नोग्राफी’ में यह बताने का प्रयास किया है कि भारतीय देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के रूप-स्वरूप के ऐतिहासिक विकासक्रम में मुद्राओं का भी योगदान रहा है। प्राचीन भारत की कला में मुद्राओं पर प्रतीक चिन्हों की प्राप्ति विभिन्न धर्म से संबंधित एक उल्लेखनीय स्रोत माने गये है। जिनसे समकालीन समाज में प्रचलित धर्म पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
भारतीय संस्कृति में धर्म एक व्यापक शब्द है, जो भारतीय जीवन की भूमिका प्रस्तुत करने में समर्थ है। प्राचीन भारतीय शासन व्यवस्था में धर्म सर्वोपरि भूमिका का निर्वहन करता था, जिसका प्रतीकात्मक अंकन कला के विभिन्न आयामों में जैसे – राजकीय पत्रों, मुहरों, मुद्राओं तथा अभिलेखों में दृष्टिगोचर होता है। शासक की धार्मिक आस्था एवं मान्यताओं में परिवर्तन के साथ तत्कालीन समाज में धार्मिक विश्वासों में बदलाव भी परिलक्षित होने लगते हैं, जिसका प्रकटीकरण पुरातात्विक अवशेषों से भी होता है। भारत में धर्म के स्वरूप तथा उसकी परिवर्तनशीलता ने विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदायों को प्रस्फुटित होने का अवसर दिया, जिसमें शैव धर्म प्रमुख था।
वर्तमान काल में शैव धर्म के जिस स्वरूप के दिग्दर्शन होते हैं, वह पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित हुए मान्यताओं एवं सिद्धांतों का स्वरूप है। शैव धर्म वैश्विक परिप्रेक्ष्य में प्राचीन धर्मो में एक माना जाता है। प्राचीन भारतीय इतिहास में शैव धर्म का विकासक्रम मुद्राओं के माध्यम से भी दृष्टवत होता है। मुद्राओं पर शिव के प्रतीक चिन्ह के रूप में त्रिशूल, वृषभ, लिंग, नंदी आदि का अंकन प्राप्त होता है।
भारतीय संदर्भ में पुरातात्त्विक स्रोतों में शैव धर्म से संबंधित उपासना का सर्वप्रथम संकेत लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व हड़प्पा सभ्यता के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों द्वारा होता है। शैव धर्म से संबंधित पर्याप्त मात्रा में मिले हुए लिंगाकार पाषाण प्राप्त हुए है, जिनका संबंध लिंग पूजा से किया गया है। इसी तरह एक मुहर पर बनी हुई त्रिसिर मानव की आसनस्थ मूर्ति, जिसके मस्तक पर सिंगदार मुकुट बना है, बनर्जी ने उसे कुर्मासान मुद्रा में बैठे हुए बताया है। इस मानव के चारों ओर वृषभ, गैण्डा, हाथी, बाघ, हिरन तथा एक मनुष्य खड़ा है। मार्शल महोदय ने इसे शिव पशुपति का प्रारंभिक रूप माना है।
ऐतिहासिक काल में वृषभ शिव का निकटतम प्रतीक बना। महाभारत में शिव को वृष, वृषावत्र्त, वृषनाभ, वृषध्वज, वृषदर्प तथा वृषपति कहा गया है। प्राचीन भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शैव धर्म के मतानुयायी रहते थे। सामान्य जन के साथ-साथ शासक वर्गो में भी इस धर्म की लोकप्रियता थी, जिसके कारण इस धर्म में आस्था प्रकट करने के लिए अपने क्षेत्र में प्रचलित मुद्राओं पर शैव धर्म से संबधित प्रतीकों का अंकन कराया गया। प्राचीन भारत के गण राज्यों जैसे – यौधेय, अर्जुनायन, औदुम्बर, कुणीन्द तथा मालव के सिक्कों पर वृषभ (नंदी) का अंकन पाया गया है। ईसा पूर्व दूसरी सदी में अयोध्या, अवन्ती, कौशाम्बी आदि जनपदों के सिक्कों पर नंदी की प्रतिमा उत्कीर्ण हुई मिली है। पांचाल (रामनगर, उत्तर प्रदेश) के सिक्कों पर भी शिवलिंग का अंकन प्राप्त हुआ है जिससे ऐसा लगता है कि इस काल में उत्तर प्रदेश के मध्य भाग तथा मालवा के क्षेत्र में शैव मत के अनुयायियों की संख्या अधिक थी। गणराज्यों जैसे – यौधेय, अर्जुनायन, औदुम्बर, कुणिन्द इत्यादि ने भी शैव धर्म तथा अन्य धर्मो से जुड़े हुए प्रतीक चिन्हों का अंकन अपनी मुद्राओं पर किया।
भारतवर्ष में शासन करने वाले यूनानी राजा अपलदतस तथा मिलिन्द के सिक्कों पर नंदी का अंकन मिलता है। शक – पहलव के कालों में गोण्डोफर्नीज तथा कुषाण शासक विमकडफिस़ेस की मुद्राओं पर शैव धर्म से संबंधित उपाधि और मुद्राओं पर प्राप्त त्रिशुल, शिव व नंदी के अंकन से उस काल में लोगों द्वारा शैव धर्म को धारण करने का प्रमाण ज्ञात होता है। विमकडफ़िसेस के अलावा कुषाण शासक कनिष्क, हुविष्क एवं वासुदेव की मुद्राओं पर प्रतीक एवं मानव दोनों रूपों में शिव का अंकन दिखाई देता है। भण्डारकर महोदय का मानना है कि पतंजलि के काल तक लिंग पूजा का प्रचलन नहीं हुआ था, क्योंकि पाणिनी के सूत्र 5/3/99 में पतंजलि ने उदाहरण देते हुए शिव की प्रतिकृति या प्रतिमा को पूजा का विषय बतलाया है न कि किसी प्रतीक को। विमकदफिसेस के काल में भी सम्भवतः लिंग पूजा अज्ञात थी, क्योंकि उसके सिक्कों के पृष्ठ भाग में नंदी के साथ त्रिशूलधारी शिव की प्रतिमा का अंकन है।
विदिशा पद्मावती के शैव धर्मावलम्बी नागवंशी शासकों की मुद्राओं पर शैवधर्म के प्रतीक के रूप में त्रिशूल और नंदी के आकृतियों का अंकन दिखाई देता है। भारत पर शासन करने वाले हूणों ने भी शैव मत को स्वीकार किया, जिसकी पुष्टि उनकी मुद्राओं से होती है। हूण नरेश मिहिरकुल की मुद्राओं पर शिव के वाहन नंदी का अंकन प्राप्त होता है। गुप्तकाल से पूर्व का कोई भी प्रतिमा शास्त्रीय ग्रंथ प्राप्त नहीं है, जिससे गुप्त काल के पूर्व शिव की मानव मूर्तन किए जाने का अनुमान, अनेक मुद्राओं पर अंकित आकृतियों के आधार पर ही किया जा सकता है। गुप्तोत्तर काल में गौड़ शासक शशांक की मुद्रा पर भी शिव और नंदी का अंकन प्राप्त होता है। इसी तरह वर्धन वंश के शासक हर्ष शिलादित्य की स्वर्ण मुद्रा के पृष्ठभाग पर नंदी पर आसीन प्रभामंडल युक्त चतुर्भुज शिव एवं पार्वती का अंकन दृष्टव्य होता है।
इस काल के साहित्य हर्षचरित में भी हर्ष के पूर्वजों को शिव का उपासक बताया गया है और स्वयं हर्ष द्वारा गौड़ शासक शशांक पर आक्रमण करने से पूर्व शिव की पूजा करने का विवरण प्राप्त होता है। भारतवर्ष में मुद्राओं के माध्यम से शैव धर्म का जो विकास दिखाई देता है, उसका प्रभाव छत्तीसगढ़ से प्राप्त होने वाली मुद्राओं पर भी पड़ा। उपरोक्त संदर्भ में जब हम इस क्षेत्र से प्राप्त होने वाले मौद्रिक साक्ष्यों का धार्मिक इतिहास के संदर्भ में अध्ययन करते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में मौद्रिक साक्ष्यों का प्रारम्भ ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी से प्राप्त होने लगता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के अनेक पुरास्थलों से रजत एवं ताम्र धातुओं से निर्मित आहत मुद्राएं प्राप्त हुई है। जिसमें बालपुर, तारापुर, गुजरा, उडेला, ठठारी, अकलतरा आदि स्थान प्रमुख है।
इस क्षेत्र से प्राप्त मुद्राओं में द्वितीय श्रेणी आयातित मुद्राओं की है। प्राचीन छत्तीसगढ़ का समय – समय पर शक्तिशाली राजवंशो के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष अधिकार क्षेत्र में आने के कारण, उनके साथ होने वाले व्यापार एवं विनिमय के फलस्वरूप प्रथम शताब्दी ईसवी से पांचवी शताब्दी ईसवी तक के कालक्रम में इस क्षेत्र के अनेक स्थानों से सातवाहन, रोमन, शक-क्षत्रप, कुषाण, नाग, गुप्त, चीनी, ससानी, गंगवंश आदि शासकों की मुद्राएं प्राप्त हुई हैं। इन मुद्राओं में उत्कीर्ण चिन्हों के आधार पर इस क्षेत्र में प्रचलित धर्मों का आंशिक स्वरूप ही प्रकट हो पाता है।
छत्तीसगढ़ पूर्व के काल में बड़े साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में रहा है। इस क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से स्थानीय शासकों का उद्भव गुप्तो के परवर्ती कालों में परिलक्षित होता है। पूर्व मध्यकाल में क्रमशः अनेक ऐसे स्थानीय शासक हुए, जिन्होने स्वतंत्र रूप से मुद्रा का परिचालन कर अपने शक्ति एवं धार्मिक विश्वासों से परिचय करवाया। तृतीय चरण में स्थानीय शासकों की मुद्राएं आती है।
चौथी शती के मध्य में प्रथम स्थानीय राजवंश के रूप मे छत्तीसगढ़ के दक्षिण भाग में नलवंश का उद्भव हुआ। इस राजवंश के बारे में जानकारी उनके द्वारा जारी किए गए अभिलेखों एवं मुद्राओं से प्राप्त होती है। छत्तीसगढ़ में सर्वप्रथम मुद्रा प्रचलित करने का श्रेय नलवंशीय शासकों को जाता है। नलवंशीय शासकों में वराहराज ही ऐसा प्रथम शासक हुआ जिसने स्वर्ण मुद्रा जारी कराया। वराहराज के पूर्ववर्ती शासकों की मुद्राएं अब तक ज्ञात नहीं हुई है। छत्तीसगढ़ के बस्तर रियासत के कोण्डागांव जिला के अतंगर्त आने वाले एडेंगा नामक स्थल से सन् 1939 में वराहराज की मुद्राएं सर्वप्रथम प्रकाश में आई थी। एडेंगा निधि से प्राप्त मुद्राओं में 29 मुद्राएं वराहराज की प्राप्त हुई है। इनकी मुद्राएं दो प्रकार की हैं – 1. बड़ी आकार की मुद्रा 2. छोटी आकार की मुद्रा। बड़ी आकार की अब तक 7 मुद्राएं प्राप्त हुई है। इन मुद्राओं का व्यास 21 मि.मी. तथा वजन 19.7 ग्रेन है। इन मुद्राओं के अग्रभाग पर बिन्दुओं के मध्य बाएं मुख किए हुए नंदी का अंकन दिखाई देता है, जो घुटना मोड़कर बैठा हुआ है, मध्य में क्षैतिज रेखा खींची गई है और उसके नीचे पेटिका शीर्षक लिपि में ‘श्रीवराह राज’ लेख उत्कीर्ण है तथा इसका पृष्ठ भाग सादा है।
वराहराज की छोटे आकार की अब तक 22 मुद्राएं प्राप्त हुई हैं। इसका व्यास 15 मि.मी. तथा वजन 7.7 ग्रेन है। इन मुद्राओं के अग्रभाग पर बड़े आकार की मुद्राओं के सदृश्य ही नंदी का अंकन है तथा मध्य में एक रेखा है जिसके नीचे पेटिका शीर्षक लिपि में ‘श्रीवराह‘ लेख अंकित है, ये मुद्राएं पांचवी शती ईसवी में छत्तीसगढ़ में प्रचलित ‘उत्पीडितांक मुद्रा‘ शैली में निर्मित हुई है। इसे त्मचवनेम ब्वपद भी कहते हैं। नलराजवंश के पांचवी शती के चतुर्थ दशक के लगभग वराहराज का उत्तराधिकारी उसका पुत्र भवदत्त वर्मा हुआ। भवदत्त वर्मा की एक स्वर्ण मुद्र्रा दुर्ग जिले के कुलिया निधि से प्राप्त हुई है तथा दो स्वर्ण मुद्राएं एडेंगा निधि से प्रकाश में आई है। इन मुद्राओं का आकार गोल और व्यास 21 मि.मी. है तथा वजन लगभग 24 ग्रेन है। इनके मुद्राओं की बनावट भी वराहराज की मुद्राओं के समान ही है। मुद्रा के ऊपरी भाग पर दाहिने ओर मुख किए हुए नंदी का अंकन है बीच में क्षैतिज रेखा खींची गई है तथा नीचे पेटिका शीर्षक लिपि में ‘श्रीभवदत्त राजस्य‘ लेख अंकित है। महाराज भवदत्त वर्मा के पश्चात् उसका उत्तराधिकारी महाराज अर्थपति भट्टारक हुआ।
अर्थपति की एक मुद्रा कुलिया निधि से तथा दो स्वर्ण मुद्राएं एडेंगा निधि से प्राप्त हुई है। इन प्राप्त मुद्राओं को दो भागों में विभक्त किया गया है। प्रथम प्रकार की एक स्वर्ण मुद्रा में, उसका व्यास 21 मि.मी. तथा वजन 23.2 ग्रेन है। इस मुद्रा के अग्रभाग पर नंदी का अंकन है जो दाएं ओर मुख किए हुए है। मध्य में दो क्षैतिज रेखाएं खींची हुई है, जिसके नीचे ’अर्थपति’ लेख उत्कीर्ण है, इस मुद्रा का पृष्ठ भाग सादा है। इसकी दूसरी प्रकार की मुद्रा का व्यास 21 मि.मी. है तथा वजन 22.3 ग्रेन है। इसके भी अग्रभाग पर बैैठे हुए नंदी का अंकन है, मध्य में क्षैतिज रेखा खींची हुई है परन्तु लिपि में कुछ शब्द लुप्त है। इस शासक के पश्चात् अर्थपति का उत्तराधिकारी स्कन्द वर्मन हुआ, जिसकी मुद्राएं अप्राप्त हैं। इसके पश्चात् स्कन्द वर्मन का उत्तराधिकारी स्तम्भ हुआ।
स्तम्भ की एक स्वर्ण मुद्रा कुलिया निधि से महाराज भवदत्त वर्मा और महाराज अर्थपति की मुद्राओें के साथ ही प्राप्त हुई है। स्तम्भ की मुद्राएं वराहराज की एडेंगा निधि से प्राप्त हुए छोटे आकार की मुद्राओें के सदृश्य ही हैं। इसके किनारे बिंदुओं से सुसज्जित हैं तथा क्षैतिज रेखा में ऊपर की ओर नंदी का अंकन है जिसके सामने एक प्रतीक चिन्ह है एवं रेखा के नीचे पेटिका शीर्षक लिपि में ‘श्री स्तम्भ‘ लेख उत्कीर्ण है।
स्तम्भ के बाद नलवंश का शासक संभवतः नंदराज हुआ। यह कुलिया निधि से मिले नंदराज के स्वर्ण सिक्कों से ज्ञात होता है किन्तु स्तम्भ और नंदराज के बीच क्या संबंध था यह स्पष्ट नही होता है। पटेल ने मुद्राशास्त्र और पुरालिपि के आधार पर नंदराज का काल स्तम्भ के बाद माना है।
नंदराज की छः ताम्र मुद्राएं पलाईनिधि से मिली है, यह बालासोर जिले के अतंर्गत अवस्थित है, तथा 147 मुद्राएं गाण्डीबेधा निधि से प्राप्त हुई है जो कि बालासोर जिले के अंतर्गत स्थित हैं। इसकी एक मुद्रा कुलियां निधि से भी मिली है। नंदराज की मुद्राएं गोल आकार की है, जिसका व्यास 20 मि.मी. तथा वजन 1.310 ग्राम है। इस मुद्रा के पृष्ठ भाग के किनारों पर बिन्दुओं से निर्मित वृत्त दिखाई देता है तथा क्षैतिज रेखा द्वारा यह दो भागों में विभक्त है। ऊपरी भाग पर नलवंशीय शासकों के अन्य मुद्राओं के समान ही घुटने मोड़ कर बैठे नंदी का अंकन है जो कि बाएं ओर मुख किए हुए हैं। इसके पीछे छः बिंदियों का अंकन हैं एवं नंदी के सामने अर्द्धचन्द्र है। क्षैतिज रेखा के नीचे ‘श्रीनंदराज‘ लेख खुदा हुआ है। इस प्रकार नल शासकों की मुद्राओं में प्राप्त होने वाले नंदी का अंकन इन शासको के शैवधर्मावलम्बि होने के प्रमाण स्थापित करते हैं। इस राजवंश के और भी शासक हुए पर उनकी मुद्राएं अप्राप्त है।
इसके साथ ही भवदत्त वर्मा के ग्यारहवें राजयवर्ष में नंदीवर्धन से जारी ऋद्धिपुर ताम्रपत्र में ‘महेश्वर महासेना तिसृष्टराज्यविभवः नलवंश प्रसूतः त्रिपताकाध्वज श्री महाराज भवदत्त वर्मा‘ का उल्लेख मिलता है, इससे स्पष्ट होता है कि भवदत्तवर्मा नलवंशीय शासक था जो महेश्वर महासेन ’शिव तथा स्कन्द’ कार्तिकेय का भक्त था। जिसने अपना राज्य और वैभव महेश्वर महासेन की कृपा से प्राप्त किया गया था।
इसी तरह अर्थपति के केसरीबेड़ा ताम्रपत्र से भी ‘महेश्वर महासेना त्रिसृष्टराज्य विभवः त्रिपताका ध्वज‘ उपाधि का वर्णन मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि अर्थपति भी अपने पिता के समान शैव धर्मानुयायी था, तथा उसका भी यही मत था कि राज्यवैभव, शिव, स्कन्ध और कार्तिकेय के प्रसाद पर्यन्त ही प्राप्त हुआ है।
नलवंशीयों के पश्चात् लगभग पांचवी शताब्दी ईस्वी के अंत में इस क्षेत्र में एक नए राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश के संस्थापक का नाम शरभ ज्ञात होता है जिसने अपने नाम पर ही ‘शरभपुर‘ नामक राजधानी बनायी थी। इस वंश के शासक परमवैष्णव थे। शैवधर्म से संबंधित अंकन इनके द्वारा जारी किये गये मुद्राओं में दृष्टव्य नहीं होता है।
शरभपुरीय शासकों के पश्चात् प्राचीन छत्तीसगढ़ में पाण्डुवंशीय शासकों का राज्य हुआ। इस वंश के शासकों की राजधानी श्रीपुर (सिरपुर) थी। इस वंश के प्रारंभिक शासक वैष्णवधर्मावलंबी थे तथा वे अपने को परमभागवत कहते थे। परवर्ती कालों में इस वंश का प्रख्यात् शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन हुआ। इस वंश के शासकों की एक भी मुद्राएं अब तक प्राप्त नहीं हुई हैं परन्तु इनके द्वारा जारी किए गए ताम्रपत्रों तथा उसमें संलग्न राजमुद्राओं के द्वारा इस राजवंश के शासकों की धार्मिक मान्यता के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। ताम्रपत्र के साथ संलग्न राजमुद्रा में शैवधर्म के प्रतीक चिन्ह् नंदी, त्रिशूल तथा कमण्डल का अंकन हुआ है। इसका आकार गोल है तथा व्यास लगभग 9 से.मी. है। यह राजमुद्रा तीन भागों में विभाजित है। ऊपर के भाग में नंदी का अंकन है जो पैर मोड़कर बैठा हुआ है। उसकी बायीं ओर त्रिशूल और दायीं ओर पूर्ण घट का अंकन है। मध्य में दो पेटिका शीर्षक लिपि में लेख है तथा नीचे दो पत्रों के साथ खिले हुए कमल का अंकन दिखाई देता है।
जिससे ज्ञात होता है कि यह शिवगुप्त बालार्जुन शैवधर्म का अनुयायी था। उसके अभिलेख नमः शिवाय से प्रारंभ होते है। महाशिवगुप्त के मल्लार ताम्रपत्र में उसे परममाहेश्वर कहा गया है। महाशिवगुप्त के काल के सेनकपाट शिलालेख में शिव मंदिर के निर्माण का उल्लेख हुआ है। यह लेख भव एवं पार्वती की स्तुति से प्रारंभ होता है। उसने अपने राज्य काल में अनेक धर्मों को आश्रय प्रदान किया। उसकी छत्रछाया में श्रीपुर तथा साम्राज्य के अन्य स्थानों में न केवल शैव धर्म, अपितु वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्म से संबंधित मंदिरों एवं विहारों का निर्माण हुआ।
पाण्डुवंशीयों के पश्चात् दसवी शताब्दी ईसवी के लगभग छत्तीसगढ़ में कलचुरि राजवंश का आर्विभाव हुआ। भारतीय इतिहास में कलचुरि राजवंश का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। छत्तीसगढ़ के कलचुरियों के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इस वंश के शासकों के प्रत्यक्ष अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत इस क्षेत्र का बहुत बड़ा भू-भाग लगभग पांच सौ वर्षों तक रहा। इस क्षेत्र के कलचुरि शासक शैव धर्म को मानने वाले थे। उनके द्वारा जारी ताम्रपत्रों में वे परममाहेश्वर की उपाधि से विभुषित थे। रतनपुर के कलचुरि शाखा के संस्थापक कलिंगराज ने भगवान बंकेश्वर की अराधना से तुम्माणराज प्राप्त किया था। कलचुरि राजवंश की अब तक अनेक मुद्राएं प्रकाश में आई है परन्तु उन मुद्राओं में शैवधर्म से संबंधित प्रतीक चिन्हों का अभाव दिखाई देता है तथा अभी तक इस राजवंश की ऐसी कोई मुद्रा प्राप्त नहीं हुई है, जिसे शैव धर्म से संबंधित किया जा सके।
कलचुरि राजवंश के पश्चात् इस क्षेत्र में कवर्धा के फणिनागवंशी शासकों का काल आता है। इस राजवंश का एक अभिलेख मड़ुवामहल मंदिर के निकट ही प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख में अहिराज को इस वंश का संस्थापक बताया गया है। फणिनागवंशी शासक रतनपुर के कलचुरिवंश का प्रभुत्व स्वीकार्य करते थे। इस वंश के कुछ शासकों द्वारा उत्कीर्ण कराएं लेखों में कलचुरि संवत् का प्रयोग दिखाई देता है। फणिनागवंशी शासकों की मुद्राएं प्रथम बार पचराही उत्खनन से प्राप्त हुई है। जिनमें से एक स्वर्ण मुद्रा इस राजवंश के शासक नक्कड़ देव कि हैं। जिसमें राजा विरासनमुद्रा में दण्ड लिए खड़ा है तथा इस मुद्रा में वृषभ का अंकन किया गया है। इसके पृष्ठ भाग में ’श्रीनक्कड़देव’ लेख अंकित है। जिससे यह शासक शैवानुयायी ज्ञात होता है।
इस प्रकार छत्तीसगढ़ के धार्मिक इतिहास के स्रोत के रूप में मुद्राओं का महत्वपूर्ण योगदान है, जिसे विस्मृत नहीं किया जा सकता। यद्यपि मुद्राओं से इतिहास लेखन की एक सीमा है, परन्तु इसके बावजूद इतिहास के पुनर्निमाण में इसकी अपनी विशिष्टता है। धार्मिक इतिहास के साथ-साथ इन मुद्राओं के माध्यम से तत्कालीन समय की अर्थव्यवस्था तथा राजनैतिक परिस्थितियों की झलक भी दृष्टिगोचर होती है। इस क्षेत्र से प्राप्त होने वाले समग्र मौद्रिक साक्ष्यों के क्रमिक विकास से इस क्षेत्र में शैव धर्म की जो स्थिति दिखाई पड़ती है, वह यहाँ के धार्मिक इतिहास लेखन के लिए महत्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में सहायक है।
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