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अमर लोक से हम चले आए

ज्येष्ठ पूर्णिमा, सद्गुरु कबीर साहब प्रगट दिवस पर विशेष

कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।

‘सद्गुरु कबीर साहब’ की उक्त साखी को भला आज कौन नहीं जानता! ऐसे अनगिनत सखियां और पद हैं जो जनमानस के हृदयों को भावविभोर कर देती हैं। उन्हें जगाती हैं, उन्हें झकझोरती हैं। सद्गुरु कबीर साहब से सारी दुनिया परिचित है। कबीरपंथी उन्हें ‘सदगुरु’ कहते हैं, साहित्यकार उन्हें ‘भक्तकवि’ कहते हैं और समाजसेवी उन्हें ‘समाज सुधारक’ के रूप में याद करते हैं।

इस लेख में भी उनके लिए ‘सदगुरु’ ही लेखन अधिक युक्तिसंगत और उपयुक्त है क्योंकि सद्गुरु कबीर की वाणियों को अपने जीवन का अभिन्न अंग माननेवाला हमारा सामान्य भारतीय समाज अपने पथदर्शक को ‘सदगुरु, गुरु अथवा संत’ के रूप में स्मरण करता है। परन्तु हमारे ही देश के कुछ तथाकथित विद्वानों ने सद्गुरु कबीर साहब को ‘कबीरदास’ कहकर उनकी वाणियों को महज एक समाज सुधारक कवि के रूप में मंडित करना शुरू कर दिया, जो अबतक शुरू है। इतना ही नहीं तो कबीर पंथ के नाम पर अनेकों की दुकानें भी चल रहीं हैं।

आज समाज में जिस तरह पाखंडिओं की पोल खुल रही है, ऐसे में कबीर पंथ के उस महान परम्परा पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है जो विगत 500 वर्षों से लगातार सद्गुरु की वाणी-वचनों को देश और दुनिया तक पहुंचा रहा है। भारतीय दर्शन को सहज, सुगम, सटीक और सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करनेवाले सद्गुरु कबीर साहब के साहित्यों का उल्लेख करना भी आवश्यक है।

हिन्दी साहित्य ग्रंथों में साहित्यकारों ने सद्गुरु कबीर साहब इस धरा पर आगमन के विषय में अनेक बातें कही गई हैं। कई स्थानों पर लिखा गया है कि संत कबीर का जन्म विधवा ब्राम्हणी के गर्भ से हुआ तथा लोक-लाज के डर से उन्होंने उसे एक तालाब के किनारे छोड़ दिया जिसे नीरू-नीमा नामक मुस्लिम जुलाहे अपने घर ले गए। ज

जबकि कबीर पंथ के साहित्यों में वर्णन मिलता है, उसके अनुसार, “विक्रम संवत् 1455 ज्येष्ठ पूर्णिमा, दिन सोमवार को काशी नगरी के लहरतारा क्षेत्र में लहर तालाब के किनारे स्वामी रामानन्द के शिष्य अष्टानन्द ध्यान-साधना में निमग्न थे। तभी एक दिव्य प्रकाश के रूप में आकाश मार्ग से होता हुआ एक तेज पुंज लहर तालाब के एक पूर्ण विकसित श्वेत कमल पर आकर स्थिर हो गया।

तब चारों दिशाओं में एक अद्भुत प्रकाश छा गया। इस प्रकाश की ओर स्वामी अष्टानन्द का ध्यान खींच जाता है। देखते ही देखते यह प्रकाश पुंज एक बालक की आकृति में रूपांतरित हो जाता है। यह देखकर स्वामी अष्टानन्द को बड़ा आश्चर्य होता है और वह अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए दौड़कर अपने गुरु रामानन्द स्वामी के पास जाते हैं।

उसी समय नीरू बाबा अपनी पत्नी नीमा का गौना कराकर इसी रास्ते से गुजरते हैं। माता नीमा अपनी प्यास बुझाने लहर तालाब के किनारे पहुंचती है, सहसा उनकी दृष्टि कमल पुष्प पर अटखेलियां करते बालक पर जा टिकती है और अविलम्ब तालाब में उतरकर बालक को अपने हाथों में उठा लेती है, गले से लगा लेती है।

नीरू बाबा भी पहली दृष्टि में आकृष्ट होते हैं लेकिन लोक-लाज के भय से बालक को वहीं छोड़ देने की बात नीमा से कहते हैं। तब आकाशवाणी होती है कि हे नीरू बाबा मुझे अपने साथ घर ले चलो, मैं आपके और जगत के उद्धार के लिए प्रगट हुआ हूं। इस प्रकार निर्भय होकर नीरू बाबा और नीमा माता उन्हें अपने साथ प्रसन्नतापूर्वक घर लेकर जाते हैं।” इस सम्बन्ध में यह साखी प्रसिद्ध है :-

गगन मंडल से उतरे, सद्गुरु पुरुष कबीर।
जलज मांहि पौढ़न कियो, दोऊ दिनन के पीर।।
तथा
चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी तिथि प्रगट भए।।

इसलिए सद्गुरु के भारतवर्ष में आगमन के विषय पर कुछ कहने या मानने से पूर्व हमें सद्गुरु कबीर साहब की वाणियों पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। सद्गुरु ने अपने धरा पर आगमन का वृत्तान्त अपने प्रधान शिष्य धर्मदास साहब से इस प्रकार किया है :-

अब हम अविगत से चलि आये, मेरो भेद मरम न पाये।
ना हम जन्मे गर्भ बसेरा, बालक होय दिखलाये।
काशी शहर जलहि बीच डेरा, तहां जुलाहा पाये।
हते विदेह देह धरि आये, काया कबीर कहाये।
बंश हेत हंसन के कारन, रामानन्द सामुझाये।
ना मोरे गगन धाम कछु नाही, दीसत अगम अपारा।
शब्द स्वरूपी नाम साहब का, सोई नाम हमारा।
ना हमरे घर मात पिता है, नाहि हमरे घर दासी।
जात जोलाहा नाम धराये, जगत कराये हांसी।
ना मोरे हाड़ चाम ना लोहू, हौं सतनाम उपासी।
तारन तरन अभय पद दाता, कहैं कबीर अविनाशी।।

सद्गुरु कबीर साहब ने अपने प्रगट होने का कारण भी बताया है। उन्होंने कहा है :-

अमर लोक से हम चले आये, आये जगत मंझारा हो।
सही छाप परवाना लाये समरथ के , कड़िहारा हो।
जीव दुखित देखत भवसागर, ता कारण पगु धारा हो।
वंश ब्यालिस थाना रोपे, जम्बू दीप मंझारा हो।।

इससे स्पष्ट होता है कि सद्गुरु कबीर साहब भवसागर में जीव को दुखी देखकर उनके उद्धार के लिए इस धरा पर आए थे। हम जानते हैं कि सद्गुरु के कालखंड में भारत में मुगलों का शासन था और हिन्दुओं पर भारी अत्याचार हो रहा था। वहीं हिन्दू जीवन-पद्धति में कर्मकांड चरम पर था तथा धर्म के नाम पर पाखंड फ़ैला हुआ था। साथ ही विभिन्न-स्तरों पर हिन्दू-मुस्लिमों के बीच भारी कटुता थी।

सद्गुरु कबीर साहब ने एक ओर हिन्दू तथा मुस्लिम समुदाय को आपसी कटुता को समाप्त करने के लिए भारी प्रयत्न किये, वहीं दूसरी ओर उन्होंने भक्तिभाव की ऐसी धारा प्रवाहित की कि जिसमें आज भी भक्त-प्रेमी डुबकी लगा रहे हैं। सद्गुरु की भावाभिव्यक्ति अद्भुत है। वे कहते हैं :-
साजन नैनन में बसो, पलक ढांक तोहे लूं।
ना मैं देखूं और को, ना तोहे देखन दूं।।

वे अपनी बातें दो टूक कहते हैं, एकदम स्पष्ट, सीधे हृदय में उतरता है।
भक्ति भाव भादो नदी, सबे चले उतराय।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय।
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोई सूरमा, जात बरन कुल खोय।।
चार दाग से सतगुरु न्यारा

जो सद्गुरु होते हैं वे चार दाग से मुक्त होते हैं। संत मलूक दास ने सद्गुरु कबीर साहब का वर्णन करते हुए अपने पद में कहा है,
“चार दाग से सतगुरु न्यारा, अजरो अमर शरीर।
दास मलुक सलूक कहत हैं, खोजो खसम कबीर।।”

दाग का अर्थ धब्बा नहीं है, वरन दाग का अर्थ है अग्नि। ये चार दाग हैं – गर्भाग्नि, कामाग्नि, जठराग्नि तथा चिताग्नि। सद्गुरु कबीर साहब इन चारों अग्नि से मुक्त थे, वे किसी के गर्भ से नहीं जन्में थे, वे काम-वासना से पुर्णतः मुक्त थे, उन्हें भूख नहीं सताता था और जब वे इस संसार से गए तब भी उनका पार्थिव देह नहीं मिला।

भक्तों ने देखा कि श्वेत चादर के नीचे पुष्प ही रखे हैं। आधे पुष्प हिन्दू उठा ले गए और उन्होंने उसे स्थापित कर वहां उनकी समाधि बना दी। जबकि आधे पुष्प मुस्लिम ले गए और उसे दफनाकर मकबरा बना दिया। संसार में सद्गुरु कबीर साहब एकमात्र ऐसे महापुरुष हैं जो एक ही हैं, तथापि उनकी समाधि और मजार एक ही स्थान मगहर (उत्तर प्रदेश) में अलग-अलग बना है।

कबीर साहित्य

सद्गुरु कबीर साहब ने अपने जीवनकाल में अनगिनत बातें कहीं, जो श्रुति रूप में आज भी देश के अनेक बोली-भाषाओं में प्रचलित है। पर वाणियों की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के तौर पर कबीरपंथ में अनेक ग्रंथ संगृहित है। साहित्य जगत में ‘बीजक’ को ही प्रामाणिक माना गया, तब हिंदी साहित्य के प्रखर विद्वान् आचार्य पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी रचना ‘कबीर’ में अनेक ग्रंथों का आधार लेकर यह बताने का सार्थक प्रयत्न किया कि महज कुछ पृष्ठों में संकलित ‘बीजक’ एकमात्र प्रामाणिक ग्रंथ नहीं हो सकता।

इसपर यह तर्क दिया जा सकता है कि साधारण लेखक भी अपने जीवन काल में 20 से अधिक किताबों की रचना कर सकता है, तो सद्गुरु कबीर जैसे प्रखर और क्रांतिकारी व्यक्तित्व का धनी अपने 119 वर्ष की आयु में केवल एक छोटी सी पुस्तिका में समा जाए, क्या इतनी ही वाणी कही होगी? भोर से संध्या तक समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने तथा समाज में नीति मूल्यों को स्थापित करने के लिए सार्थक प्रयत्न करनेवाले सद्गुरु कबीर साहब ने निश्चय ही अनगिनत वाणियां कहीं हैं। आज जब हम उन वाणियों को पढ़ते-समझते और उससे प्रेरणा लेते हैं, तो उसके स्रोत को समझना बेहद जरुरी है।

सद्गुरु कबीर साहब के वाणियों के लेखक और संकलनकर्ता धनी धर्मदास

यूं तो धर्मदास साहब का नाम जुड़ावनदास था, परन्तु सद्गुरु कबीर साहब के प्रति अनन्य भक्ति और समर्पण के चलते उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति समाजहित के लिए अर्पित कर दी। और तब सद्गुरु ने उन्हें ‘नाम दान’ देकर धनी बना दिया और वे धनी धर्मदास कहलाए। इस सन्दर्भ में धर्मदास साहब ने लिखा है :-
संतों! हम तो सत्यनाम व्यापारी।
कोई कोई लादे कांसा पीतल, कोई कोई लौंग सुपारी।
हम तो लादे नाम धनी को, पूरन खेप हमारी।
पूंजी न घटी नफा चौगना, बनिज किया हम भारी।
नाम पदारथ लाद चला है, धर्मदास व्यापारी।।

धर्मदास साहब का जन्म मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ में विक्रम संवत् 1452 की कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। विक्रम संवत् 1519 में व्यापार और तीर्थाटन के दौरान मथुरा में सद्गुरु कबीर साहब से उनका सम्पर्क हुआ। उनकी दूसरी भेंट वि.सं. 1520 में हुई, जिसके बाद सदा के लिए सद्गुरु ने उन्हें अपना बना लिया। धर्मदास साहब के निवेदन पर सद्गुरु उनके गृहग्राम बांधवगढ़ आए।

सद्गुरु ने धर्मदास साहब, उनकी धर्मपत्नी आमीनमाता साहिबा और उनके द्वितीय पुत्र चुरामणिनाम साहब को ‘आरती चौका’ कर दीक्षा प्रदान की। उल्लेखनीय है कि सद्गुरु कबीर साहब ने धर्मदास साहब को नाम दान के साथ ही अटल ब्यालीस वंश का आशीर्वाद दिया, जिसके फलस्वरूप वि.सं.1538 में चुरामणि नाम साहब का प्रागट्य हुआ।

धनी धर्मदास साहब ने अनथक परिश्रम कर सद्गुरु कबीर की अनगिनत वाणियों में से बहुत सी वाणियों को लिपिबद्ध किया, जिससे कुछ ग्रंथों की निर्मिती हो पाई, – बीजक, शब्दावली, साखीग्रंथ, कबीर सागर, सागर में ज्ञान सागर, अनुराग सागर, अम्बु सागर, विवेक सागर, सर्वज्ञ सागर, बोध सागर, ज्ञान प्रकाश, आत्मबोध, स्वसमवेद बोध, धर्म बोध, ज्ञान बोध, भवतारण बोध, मुक्ति बोध, चौका स्वरोदय, कबीर बानी, कर्म बोध, अमर मूल, ज्ञान स्थिति बोध, संतोष बोध, काया पांजी, पंच मुद्रा, श्वांस गुंजार, आगम-निगम बोध, सुमिरन बोध, गुरु महात्म्य, जीव धर्म बोध, स्वतंत्र ग्रंथ पूनो महात्म्य, ज्ञान स्वरोदय, गुरु गीता, आगम सन्देश, हंस मुक्तावली आदि।

यह ज्ञान रूपी धन समाज जीवन में अविरल प्रवाहित होती रहे, इसके लिए सद्गुरु कबीर साहब ने पंथ की स्थापना की और इसका दायित्व धनी धर्मदास और उनके ब्यालीस वंशों को दी। विगत पांच शताब्दी से ‘श्री सद्गुरु कबीर धर्मदास साहब वंशावली’ सद्गुरु की वाणी का प्रचार-प्रसार निरंतर करता आ रहा है।

वर्तमान में ‘कबीर पंथ’ का यह मुख्यालय राजधानी रायपुर के निकट धर्मनगर दामाखेड़ा में स्थित है, जो सद्गुरु कबीर साहब के संदेशों को समाज जीवन में स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है। सद्गुरु कबीर की साखियों और पदों के माध्यम से मानवीय जीवन मूल्यों को समाज में आचरणीय बनाना जिसका लक्ष्य है। यह सर्वविदित है कि सद्गुरु कबीर की वाणी भारतीय विचारधारा की अक्षय निधि है। आइये, हम सद्गुरु कबीर के अनगिनत वचनों का अध्ययन करें, उसे जानें, समझें और उसे अपने आचरण में लाएं। सप्रेम साहेब बंदगी साहेब…

आलेख


डॉ लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’ पत्रकार एवं वरिष्ठ अध्येता, नागपुर, महाराष्ट्र

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