एक गीत याद आता है, अंधेरी रातो मे सुनसान राहों पर, हर ज़ुल्म मिटाने को एक मसीहा निकलता है…… कुछ ऐसी कहानी बस्तर के लोकदेवता राजाराव की है।
खडग एवं खेटक घारण कर, घोड़े पर सवार होकर राजाराव गाँव की सरहद पर तैनात होते हैं और सभी तरह की व्याधियों से गाँव के नागरिकों एवं फ़सल की रक्षा करते हैं।
बस्तर अंचल में राजाराव एक प्रमुख देवता माने जाते हैं, इनकी पूजा गाँव गाँव में होती है। ग्रामवासी लोकदेवता राजाराव को होम धूप देकर प्रसन्न करते हैं और उससे रक्षा की कामना करते हैं। ग्रामदेवताओं में इनका महत्वपूर्ण स्थान है।
बस्तर मार्ग पर चारामा घाट से राजाराव के विषय में जानकारी मिलनी शुरु हो जाती है। चारामा घाट के पहले तिनसिया पर राजाराव पठार भी है। जहाँ ये स्थापित हैं और यहाँ मेला भी लगता है।
बस्तर के काष्ट शिल्प, मृदा शिल्प, लौह शिल्प, तथा बेल मेटल इत्यादि में इन्हें स्थान दिया जाता है। कोण्डागाँव के कुम्हारपारा निवासी मृदा शिल्प सहदेव राणा बताते हैं कि वे राजाराव के लिए घोड़ा तैयार करते हैं।
लोकदेवता राजाराव को घोड़ा अर्पित करने की परम्परा है। वे घोड़े पर ही सवार होते हैं और ग्राम वासियों की रक्षा करने निकलते हैं। इसलिए ग्रामवासी उन्हें अपनी आर्थिक स्थिति के हिसाब से घोड़ा बनाने को कहते हैं और वे उनके लिए इसका निर्माण करते हैं।
फ़सल कटने के बाद राजाराव देव की धूम धाम से पूजा की जाती है। इस पूजा में पूरा गाँव सम्मिलित होता है और श्रद्धानुसार होम धूप देकर राजाराव को प्रसन्न किया जाता है।
घड़वा शिल्पी सोनाधर बघेल कहते हैं कि राजाराव, टेमाराव, बगड़ीराव, करियाराव, पंडराराव, संदयाराव, झूलनाराव, ढोंढराराव, बूढाराव, गर्भराव आदि बारह भाई हैं।
रात में टेमाराव घोड़े पर सवार होकर खेतों के चक्कर लगाता है, यदि उसे किसी खेत की फ़सल कीड़ों की महामारी से खराब होने या सूखती हुई दिखाई देती है तो वह इसकी सूचना राजाराव को देता है।
राजाराव कीड़ों को खेतों से भगा कर फ़सल की रक्षा करते हैं। छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र में फ़सल की बालियों में दूध भरने के समय गर्भ पूजा त्यौहार मनाया जाता है और गर्भ देवता की पूजा कर फ़सल रक्षा की कामना की जाती है।,
इसी तरह बस्तर में भी गर्भराव की पूजा कर फ़सल की गर्भ रक्षा की कामना की जाती है, जिससे बालियों में बालियों में दूध भर सके और फ़सल अच्छी हो।
खार (खेतों) में सभी देवताओं का स्थान निश्चित होता है, उसके निश्चित स्थान पर ही जाकर पूजा की जाती है। पीपल के नौ पत्तों पर चावल एवं उड़द रख कर संबंधित देवता को भेंट किया जाता है और होम धूप दिया जाता है।
बैगा के माध्यम से देवता तक अपनी बात पहुंचाई जाती है, देवता भी अपनी बात बैगा के माध्यम से ही जन तक पहुंचाते हैं, अगर देवता की कोई मांग होती है तो वह बैगा बता देता है। देवता की मांग पूर्ण कर उसे प्रसन्न किया जाता है जिससे उसकी कृपा हमेशा बनी रहे।
प्रत्येक देवता का निवास स्थान भी तय होता है, जैसे कोई गांव की सीमा में रहते हैं तो गाँव के मध्य में, कोई गांव के गोठान में, कोई पीपल में तो कोई बड़ में, कोई श्मशान में।
बस्तर के साहित्यकार एवं संस्कृति के जानकार श्री हरिहर वैष्णव बताते हैं कि इसी तरह राजाराव का निवास स्थान साजा के वृक्ष में माना जाता है। मान्यतानुसार इस वृक्ष को काटा नहीं जाता और इसकी पूजा की जाती है।
राजाराव की उत्पत्ति के विषय में जानकारी लेने पर पता चलता है कि प्राचीन काल में राजाओं के सैनिक आदि यहाँ आए थे, उनके लोक कल्याणकारी कार्यों के कारण उन्हें लोक देवताओं में सम्मिलित कर लिया गया।
मेरा मानना है कि लोक देवताओं का क्षेत्र भले ही सीमित हो परन्तु मानित क्षेत्र में इनका प्रभामंडल भव्य होता है। लोक में बिना इनके आदेश के कोई भी कार्य सम्पन्न होना कठिन होता है।
किसी मांगलिक या अमांगलिक (तांत्रिक) कार्य के लिए इनसे अनुमति लेना अनिवार्य है। जब इनकी अनुमति मिलती है तभी कार्य सिद्ध होता है।
ये प्रजा की फ़रियाद भी सुनते हैं और न्याय भी करते हैं, परन्तु लोकदेवता और जनता के बीच संवाद का माध्यम बैगा होता है। लोक देवताओं की संख्या असीमित है, मांग के अनुरुप ये लोक का कष्ट हरने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। इन्हीं के सहारे समाज का ताना-बाना गुंथा हुआ है तथा संस्कृति संरक्षित है।
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