30 सितंबर पंडित मुकुटधर पांडेय जी की जयंती के अवसर पर विशेष लेख
महानदी के तट पर रायगढ़-सारंगढ़ मार्ग के चंद्रपुर से 7 कि.मी. की दूरी पर जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत बालपुर ग्राम स्थित है। यह ग्राम पूर्व चंद्रपुर जमींदारी के अंतर्गत पंडित शालिगराम, पंडित चिंतामणि और पंडित पुरुषोत्तम प्रसाद पांडेय की मालगुजारी में खूब पनपा। पांडेय कुल का घर महानदी के तट पर धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों से युक्त था।
यहां का एक मात्र निजी पाठशाला पांडेय कुल की देन थी। इस पाठशाला में पांडेय कुल के बच्चों के अतिरिक्त साहित्यकार पंडित अनंतराम पांडेय ने भी शिक्षा ग्रहण की। धार्मिक ग्रंथों के पठन पाठन और महानदी के प्रकृतिजन्य तट पर इनके साहित्यिक मन को केवल जगाया ही नहीं बल्कि साहित्याकाश की ऊँचाईयों तक पहुंचाया…और आठ भाईयों और चार बहनों का भरापूरा परिवार साहित्य को समर्पित हो गया।
पंडित पुरुषोत्तम प्रसाद, पंडित लोचनप्रसाद, बंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर सभी उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। साहित्य की सभी विधाओं में इन्होंने रचना की। पंडित लोचनप्रसाद जहां इतिहास, पुरातत्व और साहित्य के ज्ञाता थे वहां पंडित मुकुटधर जी पांडेय साहित्य जगत के मुकुट थे। छायावाद के वे प्रवर्तक माने गये हैं।
वे छत्तीसगढ़ के प्रथम साहित्यकार हैं जिन्हें भारत सरकार द्वारा ‘‘पद्मश्री‘‘ अलंकरण प्रदान किया गया है। वे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ प्रांत के गौरव हैं। धीरे धीरे पांडेय कुल का घर महानदी में समाता गया और उनका परिवार रायगढ़ में बसता गया। इस प्रकार रायगढ़ नगर साहित्य कुल से जगमगाने लगा।
सन् 1982 में जब मेरी नियुक्ति रायगढ़ के किरोड़ीमल शासकीय कला और विज्ञान महाविद्यालय में हुई थी तब रायगढ़ जाने की इच्छा नहीं हुई थी। लेकिन ‘‘नौकरी करनी है तो कहीं भी जाना है‘‘ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए मैंने रायगढ़ ज्वाइन कर लिया। कुछ दिन तो भागमभाग में गुजर गये। जब मन स्थिर हुआ और सपरिवार रायगढ़ में रहने लगा तब मेरा साहित्यिक मन जागृत हआ।
दैनिक समाचार पत्रों में मेरी रचनाएं नियमित रूप से छपने लगी। नये नये विषयों पर लिखने की मेरी लाालसा ने मुझे रायगढ़ की साहित्यिक और संगीत परंपरा की पृष्ठभूमि को जानने समझने के लिए प्रेरित किया। यहां के राजा चक्रधरसिंह संगीत और साहित्य को समर्पित थे। उनके दरबार में साहित्यिक पुरूषों का आगमन होते रहता था। पंडित अनंतराम पांडेय और पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय उनके दरबार के जगमगाते नक्षत्र थे।
डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र जैसे साहित्यकार उनके दीवान और पंडित मुकुटधर पांडेय जैसे साहित्यकार दंडाधिकारी थे। ऐसे साहित्यिक पृष्ठभूमि में मेरी लेखनी फली फूली। हमारे स्टॉफ के प्रो. अम्बिका वर्मा, डॉ. जी. सी. अग्रवाल, डॉ. बिहारीलाल साहू, पं. मेदिनीप्रसाद नायक, शिखा नंदे (अब बेहरा), प्रो. दिनेशकुमार पांडेय डॉ.. मिनकेतन प्रधान से मेरा न केवल सामान्य परिचय हुआ बल्कि मैं उनके स्नेह का भागीदार बना। प्रो. दिनेशकुमार पांडेय साहित्यिक पितृ पुरूष पं. मुकुटधर पांडेय के चिरंजीव हैं। उन्होंने मुझे हमेशा प्रोत्साहित किया….और मेरी लेखनी सतत् चलने लगी।
मेरे लिए एक सुखद संयोग बना और एक दिन मुझे श्रद्धेय मुकुटधर जी के चरण वंदन करने का सौभाग्य मिला। मेरे मन में इस साहित्यिक पितृ पुरूष से इस तरह से कभी भेंट होगी, इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। उन्हें जानकर आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई कि मैं शिवरीनारायण का रहने वाला हूं।
थोड़े समय के लिए वे कहीं खो गये। फिर कहने लगे-‘शिवरीनारायण तो एक साहित्यिक तीर्थ है, मैं वहां की भूमि को सादर प्रणाम करता हूँ जहां पंडित मालिकराम भोगहा और पंडित शुकलाल पांडेय जैसे प्रभृति साहित्यिक पुरूषों ने जन्म लिया और जो ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित हीराराम त्रिपाठी, नरसिंहदास वैष्णव और बटुकसिंह चैहान जैसे साहित्यिक महापुरूषों की कार्य स्थली है।
मेरे पुज्याग्रज पंडित पुरुषोत्तम प्रसाद और पंडित लोचनप्रसाद नाव से अक्सर शिवरीनारायण जाया करते थे। उस समय भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी ठाकुर जगमोहनसिंह वहां के तहसीलदार थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक सुषमा से प्रेरित होकर अनेक ग्रंथों की रचना ही नहीं की बल्कि यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर लेखन की नई दिशा प्रदान की। उन्होंने काशी के ‘‘भारतेन्दु मंडल‘‘ की तर्ज पर शिवरीनारायण में ‘‘जगमोहन मंडल‘‘ की स्थापना की थी।
उस काल के साहित्यकारों में पंडित अनंतराम पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, पं. हीराराम त्रिपाठी, पं. मालिकराम भोगहा, बटुकसिंह चैहान, आदि प्रमुख थे। मेरे अग्रज पंडित लोचनप्रसाद भी शिवरीनारायण जाने लगे थे और उन्होंने मालिकराम भोगहा जी की अलंकारिक शैली को अपनाया भी था। मैं भी उनके साथ शिवरीनारानायण गया तो भगवान जगन्नाथ के नारायणी रूप का दर्शन कर कृतार्थ हो गया। वहां के साहित्यिक परिवेश ने मुझे भी प्रेरित किया।‘
बालपुर और शिवरीनारायण सहोदर की भांति महानदी के तट पर साहित्यिक तीर्थ कहलाने का गौरव हासिल किया है। यह जानकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। शिवरीनारायण की पवित्र भूमि में जन्म लेकर मेरा जीवन कृतार्थ हो गया। महानदी का संस्कार मुझे भी मिला। जब मैं लेखन की ओर उद्यत हुआ तब मुझे महानदी का कलकल निनाद प्रफुल्लित कर देता था। महानदी का सुन्दर वर्णन पांडेय जी के शब्दों में:-
कितना सुंदर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप।
कल कलमय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप।।
इसके बाद श्रद्धेय पांडेय जी से मैं जितने बार भी मिला, मेरा मन उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा। उन्होंने भी मुझे बड़ी आत्मीयता से सामीप्य प्रदान किया। संभव है मुझमें उन्हें शिवरीनारयण के साहित्यिक पुरूषों की झलक दिखाई दी हो ? रायगढ़ में ऐसे कई अवसर आये जब मुझे उनका स्नेह भरा सानिघ्य मिला।
01 और 02 मार्च 1986 को पंडित मुकुटधर जी पांडेय के सम्मान में रायगढ़ में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा छायावाद पुनर्मूल्यांकन गोष्ठी में डॉ. विनयमोहन शर्मा, डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन, श्री शरदचंद्र बेहार आदि अन्यान्य साहित्यकारों का मुझे सानिघ्य लाभ मिला। इस अवसर पर विश्वविद्यालय द्वारा श्रद्धेय पांडेय जी को डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया। यह मेरे लिए एक प्रकार से साहित्यिक उत्सव था।
पांडेय जी के सुपुत्र प्रो. दिनेशप्रसाद पांडेय के परिवार का मैं एक सदस्य हो गया। उनके घर अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकारों के पत्र पं. मुकुटधर पांडेय के नाम देखने को मिला जिसमें साहित्य के अनेक बिंदुओं पर चर्चा की गई थी। डॉ. बल्देवसाव, डॉ. बिहारीलाल, ठाकुर जीवनसिंह, प्रो. जी.सी. अग्रवाल आदि के पास श्रद्धेय पांडेय जी की रचनाओं को पढ़ने का सुअवसर मिला। पांडेय जी की श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह ‘‘विश्वबोध‘‘ और ‘‘छायावाद एवं श्रेष्ठ निबंध‘‘ का संपादन डाॅ. बल्देव साव ने किया है और श्री शारदा साहित्य सदन रायगढ़ ने इसे प्रकाशित किया है।
इसी प्रकार उनकी कालिदास कृत मेघदूत का छत्तीसगढ़ी अनुवाद छत्तीसगढ़ लेखक संघ रायगढ़ द्वारा प्रकाशित की गई है। पांडेय जी की ‘‘छायावाद एवं अन्य निबंध‘‘ शीर्षक से म. प्र. हिन्दी साहित्य समेलन भोपाल द्वारा श्री सतीश चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित कर स्तुत्य कार्य किया है। इसी कड़ी में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा श्रद्धेय पांडेय जी के जन्म शताब्दी वर्ष 1995 के अवसर पर प्रभृति साहित्यकारों की रचनाओं का संग्रह प्रकाशित कर एक अच्छी परम्परा की शुरूवात की है।
मुझे हाई स्कूल में मधुसंचय में पं. मुकुटधर पांडेय जी की कविता ‘‘विश्वबोध‘‘ पढ़ने को मिली थी। इस कविता में ईश्वर का दर्शन और शास्त्रों के अध्ययन का बहुत अच्छा चित्रण मिलता है:-
खोज में हुआ वृथा हैरान।
यहां भी था तू हे भगवान।।
गीता ने गुरू ज्ञान बखाना।
वेद पुराण जनम भर छाना।।
दर्शन पढ़े, हुआ दीवाना।
मिटा न पर अज्ञान ।।
जोगी बन सिर जटा बढ़ाया।
द्वार द्वार जा अलख जगाया।।
जंगल में बहु काल बिताया।
हुआ न तो भी ज्ञान ।।
ईश्वर को कहां नहीं ढूंढ़ा, मिला तो वे कृषकों और श्रमिकों के श्रम में, दीन दुखियों के श्रम में, परोपकारियों के सात्विक जीवन में और सच्चे हृदय की आराधना में..। कवि की एक बानगी पेश है:-
दीन-हीन के अश्रु नीर में।
पतितो की परिताप पीर में।।
संध्या की चंचल समीर में।
करता था तू गान।।
सरल स्वभाव कृषक के हल में।
पतिव्रता रमणी के बल में।।
श्रम सीकर से सिंचित धन में।
विषय मुक्त हरिजन के मन में।।
कवि के सत्य पवित्र वचन में।
तेरा मिला प्रणाम ।।
ईश्वर दर्शन पाकर कवि का मन प्रफुल्लित हो उठता है। तब उनके मुख से अनायास निकल पड़ता हैः-
देखा मैंने यही मुक्ति थी।
यही भोग था, यही भुक्ति थी।।
घर में ही सब योग युक्ति थी।
घर ही था निर्वाण ।।
शिवरीनारायण की पावन धरा पर जन्म लेकर मेरा जीवन धन्य हो गया। मेरा यह भी सौभाग्य है कि मैं स्व. गोविंदसाव जैसे साहित्यकार का छोटा पौध हूँ। महानदी का स्नेह संस्कार, महेश्वर महादेव की कुलछाया और भगवान नारायण की प्रेरणा से ही मेरी लेखनी आज तक प्रवाहित है। मुझे ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी और पं. शुकलाल पांडेय का साहित्य अगर पढ़ने को नहीं मिला होता तो शायद मैं लेखन की ओर प्रवृत्त नहीं हो पाता। पंडित शुकलाल पांडेय ने ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव‘‘ में मेरे पितृ पुरूष गोविंदसाव का उल्लेख किया है:-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन ।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट छवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।।
इसी प्रकार उन्होंने पंडित मुकुटधर पांडेय जी के बारे में भी छत्तीसगढ़ गौरव में उल्लेख किया है –
जगन्नाथ है भानु चंद्र बल्देव यशोधर।
प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर।
पदुमलाल स्वर्गीय सुधा सुरसरी प्रवाहक।
परमकृति शिवदास आशुकवि बुध उर शासक।
ज्वालाप्रसाद सत्काव्यमणी तम मोचन लोचन सुघर।
श्री सुन्दरलाल महाकृति कविता कान्ता वर।।
आज जब मैं पंडित मुकुटधर जी पांडेय के बारे में लिखने बैठा हूँ तो अनेक विचार-संस्मरण मेरे मन मस्तिष्क में उभर रहे हैं।…फिर वह दिन भी आया जब जीवन के शाश्वत सत्य के सामने सबको हार माननी पड़ती है। 06 नवंबर 1989 को प्रातः 6.20 बजे 95 वर्ष की आयु में उन्होंने महाप्रयाण किया।
यह मानते हुये भी कि जीवन नश्वर है, मन अतीव वेदना से भर उठा। विगत अनेक वर्षो से रूग्णता और वृद्धावस्था ने उनकी अविराम लेखनी को यद्यपि विराम दे दिया था। फिर भी उनकी सकाय उपस्थिति से साहित्य जगत अपनी सार्थकता देखता था। एक काया के नहीं रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता, परन्तु साहित्य मनीषी पंडित मुकुटधर पांडेय किसी भी मायने में एक सामान्य व्यक्ति नहीं थे।
पुराना दरख्त किसी को कुछ नहीं देता परन्तु उनकी उपस्थिति मात्र का एहसास मन को सांत्वना का बोध अवश्य करा देता है। साहित्य जगत में श्रद्धेय पांडेय जी की मौजूदगी प्रेरणा का अलख जगाने जैसी निःशब्द सेवा का विधान किया था। कोई भी यहां अमरत्व का वरदान लेकर नहीं आया है लेकिन केवल देह त्याग ही अमरत्व का अवसान नहीं होता।
श्रद्धेय पांडेय जी के महाप्रयाण के संदर्भ में तो बिल्कुल नहीं होता। शोकातुर करती है तो यह बात कि हिन्दी काव्य में इस मायने मंे समस्त भारतीय भाषाओं के काव्य में छायावाद की ओजस्वी धारा को सर्जक जनक के नाते पांडेय जी के चिर मौन होने के साथ ही हमारे बीच से छायावाद का अंतिम प्रकाश सदैव के लिए बुझ गया। उन्हीं के शब्दों में:-
जीवन की संध्या में अब तो है केवल इतना मन काम
अपनी ममतामयी गोद में, दे मुझको अंतिम विश्राम
चित्रोत्पले बता तू मुझको वह दिन सचमुच कितना दूर
प्राण प्रतीक्षारत् लूटेंगे, मृत्यु पर्व को सुख भरपूर।
मैं सोचने लगा –
जिसे हो गया आत्म तत्व का ज्ञान
जीवन मरण उसे है एक समान।
पांडेय जी ने तो एक एक को जीया है, भोगा है। देखिये उनकी कुछ मुक्तक:-
जीवन के पल पल का रखे ख्याल,
कोई पल कर सकता हमें निहाल।
चलने वाली सांसे है अनमोल,
काश समझ सकते हम इनके बोल।
माना नश्वर है सारा संसार,
पर अविनश्वर का ही यह विस्तार।
इसी प्रकार उनसे पूर्व छायावाद की अप्रतिम कवियत्री महादेवी वर्मा हमसे छिन जाने वाली इस कड़ी की अंतिम से पहले की कड़ी थी। पहले होने का गौरव तो केवल पांडेय जी का ही था। लेकिन वही अंतिम कड़ी होंगे किसने सोचा और जाना था ? निश्चय ही पांडेय जी ने भी कभी इसकी कल्पना तक नहीं की होगी। छत्तीसगढ़ की माटी से उन्हें अगाध प्रेम था। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य नदी-पहाड़, पशु-पक्षी सबसे लगाव था। देखिये छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी महानदी की एक बानगी:-
कितना सुंदर और मनोहर महानदी यह तेरा रूप
कलकल मय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप
तुझे देखकर शैशव की है स्मृतियां उर में उठती जाग
लेता है कैशोर काल का, अंगड़ाई अल्हड़ अनुराग
सिकता मय आंचल में तेरे बाल सखाओं सहित समोद
मुक्तहास परिहास युक्त कलक्रीडा कौतुक विविध विनोद।
इसीलिए अपना ऋण उन्होंने काव्य साधना की दिव्य विधा का संस्थापक बनकर उतारा था। इस धरती ने उन्हें जो कुछ भी दिया उसे उन्होंने साहित्य जगत को लौटाया है। प्रणय की यही संवेदना उनकी कविता का सम्पुट वरदान बनी थी, जिसने भी उसे पढ़ा-सुना उसने दिल से सराहा और स्वीकार किया।
‘‘कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः‘‘ कवि का स्थान बहुत ऊँचा है, ऐसा स्वीकारने वाले इस साहित्य वाचस्पति का कहना है-‘‘ कविता तो हृदय का सहज उद्गार है। वाद तो बदलते रहते हैं पर कविता में एक हृदयवाद होता है जो कभी नहीं बदलता।‘‘ मानव मन में जो भावानुभूति होती है, वही सार्वजनीन है, सर्वकालिक है।
ऐसे मानने वाले इस साहित्यानुरागी का जन्म नवगठित जांजगीर-चांपा जिले के अंतिम छोर चंद्रपुर से मात्र 07 कि.मी. दूर बालपुर में 30 सितंबर 1895 ईसवीं को पंडित चिंतामणी पांडेय के आठवें पुत्र के रूप में हुआ। अन्य भाईयों में क्रमशः पुरुषोत्तम प्रसाद, पद्मलोेेेेचन, चंद्रशेखर, लोचनप्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा बहनों में चंदनकुमारी, यज्ञकुमारी, सूर्यकुमारी और आनंद कुमारी थी। सुसंस्कृत, धार्मिक और परम्परावादी घर में वे सबसे छोटे थे।
अतः माता-पिता के अलावा सभी भाई-बहनों का स्नेहानुराग उन्हें स्वाभाविक रूप से मिला। पिता चिंतामणी और पितामह सालिगराम पांडेय जहां साहित्यिक अभिरूचि वाले थे वहीं माता देवहुति देवी धर्म और ममता की प्रतिमूर्ति थी। धार्मिक अनुष्ठान उनके जीवन का एक अंग था। अपने अग्रजों के स्नेह सानिघ्य में 12 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने लिखना शुरू किया। तब कौन जानता था कि यही मुकुट छायावाद का ताज बनेगा…?
पांडेय जी की पहनी कविता ‘‘प्रार्थना पंचक‘‘ 14 वर्ष की आयु में स्वदेश बांधव नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। फिर ढेर सारी कविताओं का सृजन हुआ। यहीं से उनकी काव्य यात्रा निर्बाध गति से चलने लगी और उनकी कविताएं हितकारणी, इंदु, स्वदेश बांधव, आर्य महिला, विशाल भारत और सरस्वती जैसे श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुई। सन् 1909 से 1915 तक की उनकी कविताएं ‘‘मुरली-मुकुटधर पांडेय‘‘ के नाम से प्रकाशित होती थी।
उनका पहला कविता संग्रह ‘‘पूजाफूल‘‘ सन् 1916 में इटावा के ब्रह्यप्रेस से प्रकाशित हुआ। तत्कालीन साहित्य मनीषियों-आचार्य महाबीर प्रसादद्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और माखनलाल चतुर्वेदी की प्रशंसा से उन्हें संबल मिला और उनकी काव्यधारा बहने लगी। इसी वर्ष पांडेय जी प्रयाग विश्वविद्यालय की प्रवेशिका में उत्तीर्ण होकर इलाहाबाद चले गये। कवि का किशोर मन बाल्यकाल के छूट जाने से अधीर हो उठता है:-
बाल्यकाल तू मुझसे ऐसी आज विदा क्यों लेता है,
मेरे इस सुखमय जीवन को दुखमय से भर देता है।
तीन माह के अल्प प्रवास के बाद पांडेय जी अस्वस्थ होकर बालपुर लौट आते हैं और यहीं स्वाध्याय से अंग्रेजी, बंगला और उड़िया भाषा पढ़ना और लिखना सीखा। गांव में रहकर उन्होंने सादगी भरा जीवन अपनाया
छोड़ जन संकुल नगर निवास किया क्यों विजन ग्राम गेह,
नहीं प्रसादों की कुछ चाह, कुटीरों से क्यों इतना नेह।
उनकी कविताओं में प्रकृति प्रेम सहज रूप में दर्शनीय है। ‘‘किंशुक कुसुम‘‘ में प्रकृति से उनके अंतरंग लगाव की पद्यबद्धता ने कविता में एक अनोखे भावलोक की सर्जना की है। किंशुक कुसुम से उनकी बातचीत ने प्रकृति का जैसे मानवीकरण ही कर दिया। पांडेय जी महानदी से सीधे बात करते लगते हैं:-
शीतल स्वच्छ नीर ले सुंदर बता कहां से आती है,
इस जल में महानदी तू कहां घूमने जाती है।
‘‘कुररी के प्रति‘‘ में एक विदेशी पक्षी से अपनत्व भाव जगाने उनसे वार्तालाप करने लगते हैं। देखिये उनकी एक कविता:-
अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप
ऐसी दारूण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप
बता तुझे कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप।
सामाजिक मूल्यों के उत्थान पतन को भी उन्होंने निकट से देखा और जाना है। ग्रामीण जीवन की झांकी उनकी कविताओं में दृष्टव्य है। उनके मुथ्तकों में दार्शनिकता का बोध होता है। त्योहारों को सामान्य लोगों के बीच आकर्षक बनाने का भी उन्होंने प्रयास किया है:-
कपट द्वेष का घट फोड़ेंगे, होली के संग आज
बड़े प्रेम से नित्य रहेंगे हिन्द हिन्द समाज
फूट को लूट भगावेंगे, ऐता का सुख पावेंगे..।
इस प्रकार मुकुटधर जी का समूचा लेखन जनभावना और काव्य धारा से जुड़ा है। छायावादी कवि होने के साथ साथ उन्होंने छायावादी काव्यधारा से जुड़कर अपनी लेखनी में नयापन लाने की साधना जारी रखी और सतत् लेखन के लिए संकल्पित रहे। यही कारण है कि मृत्युपर्यन्त वे चुके नहीं। उन्होंने सात दशक से भी अधिक समय तक मां सरस्वती की साधना की है।
इस अंतराल में पांडेय जी ने जीवन की गति को काफी नजदीक से देखा और भोगा है। उनकी रचनाओं में पूजाफूल (1916), शैलबाला (1916), लच्छमा (अनुदित उपन्यास, 1917), परिश्रम (निबंध, 1917), हृदयदान (1918), मामा (1918), छायावाद और अन्य निबंध (1983), स्मृतिपुंज (1983), विश्वबोध (1984), छायावाद और श्रेष्ठ निबंध (1984), मेघदूत (छत्तीसगढ़ी अनुवाद, 1984) आदि प्रमुख है।
अनेक दृष्टांत हैं जो मुकुटधर जी को बेहतर साहित्यकार और कवि के साथ साथ मनुष्य के रूप में स्थापित करते हैं। उनका समग्र जीवन उपलब्धियों की बहुमूल्य धरोहर है जिससे नवागंतुक पीढ़ी नवोन्मेष प्राप्त करती रही है। उनकी प्रदीर्घ साधना ने उन्हें ‘‘पद्म श्री‘‘ से ‘‘भवभूति अलंकरण‘‘ तक अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया है। सन् 1956-57 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा ‘‘साहित्य वाचस्पति‘‘ से विभूषित किया गया।
सन् 1974 में पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर और सन् 1986 में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया है। 26 जनवरी सन् 1976 को भारत सरकार द्वारा ‘‘पद्म श्री‘‘ का अलंकरण प्रदान किया गया। सन् 1986 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘‘भवभूति अलंकरण‘‘ प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त अंचल के अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया गया है। वास्तव में ये पुरस्कार और सम्मान उनके साहित्य के प्रति अवदान को है, छत्तीसगढ़ की माटी को है जिन्होंने हमें मुकुटधर जी जैसे माटी पुत्र को जन्म दिया है। उन्हें हमारा शत् शत् नमन….
काव्य सृजन कर कोई हो कवि मन्य,
जीवन जिसका एक काव्य, वह धन्य।
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