भारतीय इतिहास में जीजाबाई एक ऐसी आदर्श माता हैं जिन्होंने अपने पुत्र जन्म से पहले एक ऐसे संकल्पवान पुत्र की कामना की थी जो भारत में स्वत्व आधारित स्वराज्य की स्थापना करे। माता की इसी कल्पना को शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य के रूप में आकार दिया और माता अपने पुत्र को हिन्दवी स्वराज्य के सिहासनारूढ देखकर मात्र बारह दिन बाद ही संसार से विदा हो गईं ।
भारतीय चिंतन में माता को सर्वोच्च स्थान है। यह माना जाता है कि संतान श्रेष्ठ है या नेष्ठ है इसमें माता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इस संकल्पना के उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं कि कैसे विषम और विपरीत परिस्थतियों में माता ने अपनी संतान को श्रेष्ठ बनाया और यही उदाहरण जीजाबाई के व्यक्तित्व में मिलता है।
जीजाबाई का जन्म महाराष्ट्र के सिन्दखेड़ नामक ग्राम में 12 जनवरी 1602 को हुआ था । उस दिन भारतीय तिथि पौष शुक्ल पूर्णिमा थी । उनके पिता लखूजी जाधव अन्य मराठा सरदारों की तरह निजामशाही की सेवा में थे। इसके बदले उन्हें निजाम से जमींदारी तथा सरदार की उपाधि प्राप्त थी।
निजाम की सेना में वे अकेले मराठा सरदार नहीं थे अन्य भी थे । पर यह निजाम की रणनीति थी सभी मराठा सरदारों में परस्पर झगड़े बने रहते थे । कई बार तो इनके बीच परस्पर युद्ध की नौबत भी आ जाती थी । इसका लाभ निजाम उठाता था ।
लखूजी भले निजामशाही के मातहत थे पर घर में भारतीय परंपराओं का पालन करने का वातावरण था और वे मराठा सरदारों के परस्पर संघर्ष से दुखी भी रहते थे । यह स्थिति जीजाबाई ने बचपन से देखी थी । वे एक चिंतक स्वभाव की थीं । वे इन विषयों पर अपने पिता से बातें भी करतीं थीं ।
समय गुजरा, समय के साथ वे बड़ीं हुईं । एक बार घर में रंगपंचमी उत्सव मनाया जा रहा था। अनेक सरदार सपरिवार आये थे। रंगपंचमी में सभी बड़े, युवा और बच्चे रंग खेल रहे थे। सबकी नजर होली खेलते जीजाबाई और शाहजी पर पड़ी। पिता लखूजी को जोड़ी अच्छी लगी। उत्सव में शाहजी के पिता मालोजी भी उपस्थित थे। दोनों के विवाह की बात तो चली पर संबंध निर्धारित न हो सका। बात आई गई हो गई।
मालो जी उन दिनों लखूजी के आधीन के कार्य करते थे। किन्तु आगे चलकर निजाम ने उनका पद और जागीर दोनों बढ़ा दी और मालोजी मनसबदार हो गये। अंततः जीजाबाई का विवाह शाहजी से हो गया। कुछ समय पश्चात मालोजी का निधन हो गया और उनके स्थान पर शाहजी को दरबार में स्थान मिल गया।
जीजाबाई बचपन से एक बात देख रहीं थीं। वह यह कि दक्षिण भारत में निजाम की सेनाएँ सनातनी परंपरा के प्रतीकों और मानविन्दुओं को नष्ट कर रहीं थीं और मंदिरों में लूट होती। इसमें मराठा सरदार भी सहभागी होते। चूँकि उनके पिता और पति दोनों निजामशाही की सेवा में थे।
विवाह के बाद वे पति के साथ शिवनेरी के किले में रहने आ गई। इस विषय पर उनकी कयी बार अपने पति से चर्चा हुई। वे कहतीं कि मराठों की शक्ति स्वत्व के दमन में जा रही है। यदि सब एकजुट होकर अपने लिये संघर्ष करें तो स्वराज्य की स्थापना हो सकती है। पर मराठा सरदारों में एकत्व नहीं था। इसलिए परिस्थिति न बदली। किन्तु उनके मन में स्वराज्य का सपना यथावत रहा।
जब वह गर्भवती हुई, तो उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने पुत्र को ऐसे संस्कार देंगी जो पिता और पति की भाँति स्वराष्ट्र के दमन को आँख मूंदकर न देखे। वह इस परिस्थिति को बदले और समाज में स्वत्व केलिये संघर्ष करे।
अपनी गर्भावस्था में जीजाबाई शिवनेरी के दुर्ग में थीं। उन्होंने रामायण और महाभारत के युद्धों की कथाएँ सुनना आरंभ कीं। ताकि गर्भस्थ बालक पर वीरता के संस्कार पड़े। जीजाबाई ने महाभारत युद्ध के उन प्रसंगों को अधिक सुना जिनमें योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की रणनीति से अर्जुन को सफलता मिली।
अपनी पूरी गर्भावस्था के दौरान जीजाबाई रामायण और महाभारत युद्ध की घटनाओं के श्रवण, चिंतन और, मनन पर केंद्रित रही। समय के साथ 19 फरवरी 1630 को शिवाजी महाराज का जन्म हुआ। और उनके जीवन में यदि श्रीराम का आदर्श था तो युद्ध शैली योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण सी रणनीति भी। यही कारण था कि निजामशाही आदिलशाही और मुगलों के भारी दबाव और आतंक से घिरे होने के बाबजूद 6 जून 1674 को शिवाजी महाराज हिन्दू पद पादशाही की स्थापना कर सके।
जीजाबाई मानो इसी दिन के लिए जीवित थीं। शिवाजी को सिंहासन पर विराजमान देखकर बारहवें दिन 17 जून 1674 उन्होंने संसार से विदा ले ली ।
यह एक माँ का संकल्प था जिसने पुत्र शिवाजी महाराज को स्वत्व आधारित स्वराज्य के लिये प्रेरित किया। पति शाहजी तो अंत तक दूसरों की सेवा में ही रहे। आरंभिक काल में जब जीजाबाई को लगा कि वे शिवनेरी के किले में रहकर अपने पुत्र को स्वाभिमान संघर्ष का मार्ग नहीं दिखा सकेंगी तो वे अपने पुत्र को लेकर पुणे आ गईं।
पुणे यद्यपि शाहजी की जागीर में तो था पर एकदम निर्जन। जिसे जीजाबाई ने ही विकास का आयाम दिया । कोई कल्पना कर सकता है एक ऐसी माँ का, माँ के संकल्प का जो विषम और विपरीत परिस्थितियों में ऐसी संतान को आकार देती जो संतान परिवार समाज और राष्ट्र में स्वत्व और स्वाभिमान जागरण का प्रतीक बने।
जीजाबाई ऐसी ही माता हैं। जिनका शरीर भले किसी तिथि पर पंचतत्व में विलीन हो गया । पर वे आज सजीव हैं प्रत्येक उस स्वाभिमानी भारतीय मन में जो भारत राष्ट्र में स्वत्व आधारित स्वशासन की कल्पना करता है।
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