बहुत पुरानी बात है जब बालाघाट लांजीगढ़ रियासत के राजा सिंहलसाय ध्रुव थे। राजा राजा की रानी गागिन अपूर्व सुंदरी थी। लांजीगढ़ पहाड़ी और दुर्गम जंगलों से घिरा था। यहां गेहूं ज्वार और बाजरा की खेती होती थी, भरपूर फसल होने के कारण लांजीगढ़ एक मजबूत रियासत मानी जाती थी। एक समय ऐसा आया कि लांजीगढ़ में अकाल की छाया पड़ी वर्षा नहीं हुई और सारी प्रजा दाने दाने के लिए मोहताज हो उठी। राजा सिंहलसाय असहाय से हो गए। इसी दौरान लांजीगढ़ में कब्जा करने के लिए एक मुस्लिम राजा ने आक्रमण कर दिया। ऐसे नाजुक समय में राजा को अपना राज्य छोड़ना पड़ा और भी कुछ सैनिकों के साथ अपनी ससुराल पर पंडरापथरा में जा पहुंचे।
कुछ समय बाद सिंहलसाय ने अपनी बची- खुची शक्ति बटोरी और अपनी रियासत को संभालने लगे। सिहलसाय बुढ़ा देव भगवान शंकर के परम भक्त थे। एक बार शिकार की तलाश में सिंहलसाय नवागढ़ के घनघोर जंगल में जा पहुंचे। एक हिरण का पीछा करते हुए वे अपने सैनिको से बिछड़ गए और फिर उन्होंने देखा कि जिस हिरण का पीछा कर रहे थे वह साक्षात बूढ़ादेव के रूप में प्रकट हो गया। बूढ़ादेव ने राजा से कहा, ” मैं तुमसे प्रसन्न हूं ,मांगो! क्या मांगते हो?” इस पर सिंहलसाय ने अपने राज्य का विस्तार करने की इच्छा व्यक्त की। बूढा़देव ने राजा को एक छुरा देकर कहा, “मेरी इस छुरी को पूरी ताकत से फेंको, जहां तक यह छुरी जाएगी उतना क्षेत्र तुम्हारे तुम्हारे राज्य में समाहित हो जाएगा।”
बूढ़ा देव की छुरी के प्रभाव से छुरा को अपने राज्य से जोड़ा। राजा सिंहल साय इसी के साथ अपने शौर्य और पराक्रम से काफी ख्याति अर्जित की। तब का छुरा आज गरियाबंद जिला में है।
सिंहलसाय के बढ़ते प्रभाव को देखकर बिन्द्रानवागढ़ का राजा चिंडा भुंजिया उससे जलने लगा। वह ऊपरी तौर पर सिंहलसाय से दोस्ती का दम भरता था लेकिन वह एन केन प्रकारेण उसके राज्य को हड़प कर रानी गागिन को अपना बनाना चाहता था।
एक बार बिन्द्रानवागढ़ में जवांरा के निमंत्रण पर राजा सिंहलसाय अपनी रानी गागि के साथ वहां गया। जवांरा में बैगा के ऊपर सिरहा चढ़ा तो लोग-बाग़ अपने दुख दर्द को बता कर उसका हल पूछने लगे और फिर हां सब का जवाब डाटा गया। राजा सिंहलसाय ने भी सिरहा से पूछा। सिरहा ने कहा, “सिंहलसाय! कभी किसी की संगत में पड़कर शराब और मांस का भक्षण नहीं करना ऐसी संगति में तुम्हारे साथ धोखा हो सकता है।”
कुछ समय बाद चिंडा भूंजिया ने सिंहलसाय को एक बार फिर आमंत्रित कर अफने महल में शराब और मांस परोसा। सिहलसाय को सिरहा की कही बात याद आ गई, फिर उसने सोचा की चिंडा भुंजिया तो मेरा मितानी रिश्तेदार है, वह ऐसा क्यों करेगा ! यह सोचकर उसने जमकर शराब पी और नशे में मदहोश हो गया। चिंडा ऐसे ही मौके की तलाश में था और उसने अवसर पाते ही सिंहलसाय की हत्या कर दी। रानी गागिन को यह समाचार मिला तो वह कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ अपने मायके पंडरापथरा की ओर निकल गई। राजा की हत्या के साथ चिंडा भुंजिया ने छुरा राज्य को अपने अधीन कर लिया।
रानी गागिन गर्भ से थी और वह ज्यादा चल नहीं सकती थी। रास्ते में कालाहांडी का जंगल मिला जहां एक झोपड़ी में ब्राह्मण दंपत्ति रहते थे। रानी गागिन ने उन्हें अपनी व्यथा बता और शरण मांगी। सैनिक रानी को छोड़ कर चल दिए और रानी वहीं पर रहने लगी। एक दिन गागिन कचरा फेंकने घुरुआ तक गई और उसने वही एक पुत्र को जन्म दिया। धूल मिट्टी में जन्म लेने के कारण बच्चे का नामकरण ब्राम्हण दंपत्ति ने धुरवा कर दिया।
समय बीतता गया और धुरवा 15 साल का हो गया तब ब्राह्मण दंपत्ति ने उसे बताया कि तू छुरा राज्य के राजा सिंहलसाय का राजकुमार है और तेरी मां रानी गागिन है। अपनी असलियत जानकर धुरवा ने अपने खोए राज्य को हासिल करने के लिए जुट गया। धुरवा शक्ति अर्जित करने के लिए माता जगदंबा की उपासना करने लगा।
धुरवा के तप से प्रसन्न होकर माता ने उसे वरदान दिया, “धुरवा !तुझे ना कोई जल में मार सकेगा ना ही थल में ,अर्थात तेरा सिर थल में होगा और धड़ पानी में होगा तभी तुझे कोई मार सकता है। तू महान पराक्रमी देव पुरुष होगा, लेकिन एक बात का ध्यान रखना कभी शराब और मांस का सेवन नहीं करना ।”
इसी समय पटना उड़ीसा राज्य में एक शेर ने आतंक मचा रखा था। वहां के राजा ने घोषणा की कि जो इस नरभक्षी शेर को मारेगा उसे मुंह मांगा पुरस्कार दिया जाएगा। धुरवा ने राजा की घोषणा सुनी और शेर को मार कर एक कुम्हार के घर रख दिया और शेर की पूंछ और कान काट कर अपने पास रख लिया। दूसरे दिन कुम्हार ने राजा के समक्ष पेश होकर कहा कि मैंने शेर को मारा है ,उसी समय धुरवा वहां आ पहुंचा और कहा, “इस शेर की पूंछ और कान कहां है?” धुरवा के पूछने पर कुम्हार की मनगढ़ंत कहानी की असलियत सामने आ गई ।राजा को धुरवा ने सारी बातें कह सुनाई। राजा ने धुरवा को अपने अधीन कुछ राज्यों के साथ सेना भी दे दी।
एक राज्य आते ही धुरवा ने धीरे-धीरे अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत कर एक अपना वर्चस्व बना दिया। उसे अपने पिता की मृत्यु और राज्य खोने की घटना बार-बार खुद उद्वेलित कर रही थी, उसके मन में केवल चिंण्डा भुंजिया से बदला लेने की आग सुलग रही थी। एक दिन धुरवा ने अपने सैनिकों के साथ बिंद्रानवागढ़ पर चढ़ाई कर दी । इस भयानक युद्ध में चिंण्डा भुंजिया मारा गया,इसके साथ धुरवा बिंद्रानवागढ़ का राजा बना जिसके मंत्री मोकला मांझी और सभा मंत्री नागेश थे।
इसी समय एक अजीब इत्तेफाक हुआ। इसे राजकुमारी कचना और राजा धुरवा को अमर बनाने वाला एक स्वप्न संयोग ही कहा जा सकता है। राजा धुरवा ने एक रात सपने में राजकुमारी कचना को देखा और उसे अपना मान लिया। ठीक ऐसा ही सपना राजकुमारी कचना को दिखा। राजकुमारी कचना धरमतराई के राजा धर्मपाल की पुत्री थी । सपने में कचना ने देखा और वह अपने सपने के राजकुमार से प्रेम करने लगी। वह राजकुमार और कोई नहीं धुरवा ही था। दोनों ने एक दूसरे को कभी देखा नहीं था लेकिन दोनों के प्रेम की परवान को चढना था। राजा धुरवा को राजकुमारी कचना से मिलना था,भाग्य का यह खेल निराला था।
कुछ समय बाद राजा धुरवा अपने राज्य का विस्तार करने सेना के साथ निकल पड़ा। अनेक क्षेत्रों में विजय का डंका बजाते हुए राजा धुरवा संयोगवश धरमतराई की ओर बढ़ा। धरम तराई के पास राजा धुरवा को अपने सपने की राजकुमारी कचना दिखी जो उसके सामने खड़ी थी। राजकुमारी कचना भी हतप्रभ हो देख रही थी कि सपने में वह जिस से राजकुमार से प्रेम करने लगी थी आज वह उसके सामने खड़ा था। आंखों ही आंखों में दोनों एक दूसरे के सामने मानो सब कुछ कह गए। दोनों का ऐसा आत्मिक मिलन हुआ कि उन्होंने जीवनसाथी बनने की कसमें खाई। शायद धुरवा का यही विजय अभियान था जिसमें उसने राजकुमारी कचना को जीत लिया था।
सच्चे प्रेमियों के बीच कई रोड़े आते हैं। धरमतराई के समीप इन दो प्रेमियों के बीच मारादेव दीवार बनकर खड़ा हो गया। मारादेव राजकुमारी कचना को अपनाना चाहता था लेकिन कचना के मन में धुरवा की छवि सपने में जो अंकित हुई वह अमिट बन गई थी। धुरवा को सामने पाकर तो कचना निहाल हो गई ,जैसे उसने सब कुछ पा लिया हो। मारादेव को धुरवा और राजकुमारी कचना के मिलन का समाचार पहुंच चुका था। जिस राजकुमारी को चाहता था जिससे उसने अभी तक अपने प्रेम का इजहार भी नहीं किया था उसे राजा धुरवा ने उसे अपना बना लिया। मारादेव राजा धुरवा के खिलाफ उठ खड़ा हुआ और दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ। युद्ध में मारादेव को मैदान छोड़कर भागना पड़ा।
कुछ समय बाद मारा देव फिर से अपनी शक्ति बटोर कर धुरवा के सामने युद्ध के लिए खड़ा हुआ। इस तरह मारादेव और धुरवा के बीच 46 बार युद्ध हुए। एक बार मारादेव ने धुरवा की गर्दन पर वार किया परंतु उसकी गर्दन फिर से जुड़ गई। धुरवा को माता जगदंबा का आशीर्वाद प्राप्त था और यह बात मारादेव नहीं जानता था। मारा देव ने राजा धुरवा की मृत्यु का रहस्य जानने के लिए एक कलारिन को लालच दिया। कलारिन शराब बेचती थी, धन के लोग में उसने मारादेव को साथ देने का वचन किया।
इधर धुरवा माता जगदंबा को दिए अपने वचनों को भुला बैठा था। एक दिन वह कलारिन के यहां बैठा शराब पी रहा था। राजा धुरवा नशे में चूर था तभी कलारिन ने बड़े स्नेह से पूछा,” महाराज मैंने सुना है आप का सिर कट कर फिर धड़ से जुड़ जाता है! क्या यह बात सही है?” शराब के नशे में राजा धुरवा ने कहा, “बिल्कुल ठीक सुना तूने! मेरा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता क्योंकि मैंने माता जगदंबा से आशीर्वाद प्राप्त किया है। मैं ना थल में मर सकता हूं ना ही जल में, मुझे कोई मारना चाहे तो मेरा सिर थल में हो और धड़ पानी में हो तभी मेरे सिर को काट कर थल में ही रखे धड़ पानी में डूबा रहे तभी मेरी मृत्यु हो सकती है।” मारादेव छिपकर राजा धुरवा और कलारिन की बात सुन रहा था उसने धुरवा की मौत का रहस्य जान लिया।
एक दिन राजा धुरवा और राजकुमारी कचना धरमतराई के जंगल में थे। धुरवा राजकुमारी को बिंद्रानवागढ़ ले चलने की बात कर रहा था। इसी समय मारादेव ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। फिर क्या था भयंकर युद्ध छिड़ गया दोनों ओर के कई सैनिक मारे गए। मारादेव और धुरवा के बीच घनघोर युद्ध होने लगा। दोनों लड़ते लड़ते सिंहलद्वीप तक पहुंच गए। मारादेव धुरवा को महानदी की ओर ले गया ।धुरवा महानदी पार कर रहा था तभी उसके घोड़े का पैर रेत में फंस गया। मारादेव अवसर की तलाश में था धुरवा जैसे ही पानी में उतरा वह गिर पड़ा, राजा धुरवा का धड़ पानी में था और सिर थल में था उसी समय मारादेव ने धुरवा की गर्दन पर भरपूर वार किया और उसका सिर्फ काटकर फेंक दिया।
राजकुमारी कचना पीछे-पीछे आ रही थी उसने राजा धुरवा का सिर पड़ा हुआ देखा तो वह पछाड़ खाकर गिर पड़ी इतने में मारादेव वहां आ गया उसने कचना को अपने साथ ले जाना चाहा परंतु वह टस से मस नहीं हुई और अंत में हार कर मारादेव वहां से चल दिया।
राजकुमारी कचना का रोते-रोते बुरा हाल था धुरवा के कटे सिर को उसने अपने गोद में रख लिया तभी धुरवा के कटे सिर ने राजकुमारी घर वापस जाने के लिए कहा लेकिन कचना नहीं मानी। रोते बिलखते हुए कचना ने वहीं अपने वही प्राण त्याग दिए। धुरवा का सिर निष्प्राण कचनार की गोद में था। धुरवा बोला ,”कचना आज हमारा प्रेम अमर हो गया। प्रेम के लिए तुम्हारे प्यार ने मुझे भी पीछे छोड़ दिया। आज से मेरे नाम के आगे तुम्हारा नाम जुड़ेगा। तुम्हें देव तुल्य पूजा जाएगा।”
धुरवा का सिर खून से लथपथ पड़ा था उसी समय एक महिला गोबर बिनते आई, तभी धुर्वा के कटे सिर ने पुकार लगाई, “हे माता! मुझे मेरे घर बिन्द्रानवागढ़ ले चलो।” कटे हुए सिर से आती आवाज को सुनकर गोबरहिन अचंभित रह गई। फिर उसने साहस बटोर कर कहा, ” मैं वृद्ध हूं, तुम्हें कैसे ले जा सकूंगी।” धुरवा बोला, ” मेरे सिर को तुम अपनी टोकरी में रखो तो मैं फूल जैसा हल्का हो जाऊंगा और तुम मुझे आसानी से मुझे ले चलोगी।”
गोबरहिन ने धुरवा का सिर टोकरी में रखा और वह चल पड़ी। गोबरहिन नदी पार कर रही थी उसी समय टोकरी से खून रिसने लगा उसने टोकरी उतार कर पानी से सिर को धोया। इस घटना की याद में यह स्थान आज मुड़धुनी नाला के नाम से जाना जाता है। गोबरहिन धुरवा का सिर्फ टोकरी में लिए आगे बढ़ती चली गई। राह में धुरवा ने उसे अपनी पूरी कहानी सुनाई। धुरवा के कहे अनुसार गोबरहिन साल, खम्हार, छुरा, रक्सी, कोदोपाली, सोनोड़ा, बेड़ा, घुरवापारा, घुरवागुड़ी, मैनपुर होते हुए बिंद्रानवागढ़ जा पहुंची।
कचना धुरवा की प्रेम गाथा को कहता बिंन्द्रानवागढ़ में एक स्मारक है जिसमें वीर धुरवा का सिर और गोबरहिन की प्रस्तर-प्रतिमा स्थापित है। धुरवा का सिर जिन जिन गांव से गोबरहिन लेकर आई वहां आस्था और विश्वास के साथ अमर प्रेमी कचना धुरवा का मंदिर स्थापित है। देवीय संयोग ने इन्हें इतिहास में अमर कर दिया। कचना धुरवा का आज कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। गोंड़ समाज के इष्टदेव के रूप में इनकी पूजा होती है, लोगों में यह विश्वास है कि इन अमर प्रेमियों को देवतुल्य पूजते हुए चाहे गये मनोरथ पूर्ण होते हैं।
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