जो पत्थरों से जितना रहे दूर
उतने रहे असभ्य
उतने रहे क्रूर।
जो पत्थरों से करते रहे प्यार
चिनते रहे दीवार
बन बैठे सरदार।
फेंकते रहे पत्थर होते रहे दूर,
नियति ने सपने भी
किये चूर चूर।
पत्थरों को रगड़ पैदा की आग,
उन्ही की बुझी भूख,
उन्ही के जागे भाग।
जिन्होंने फेंक पत्थर
छीनना चाहा, हथियाना चाहा,
वे हीं लुटे।
पत्थरों को जोड़
दो पाटों को पाट, बनाए पुल
वे ही हुए पार।
जिन्होंने पत्थरों में
ढूंढा खोए हुए खुदा का अक्श
बन बैठे स्वामी, अपने ईश्वर के।
पत्थर फेंकने से खुद मरता है आदमी,
छेनियाँ पत्थरों को नहीं
आदमीयत को जिंदा करती है।
सप्ताह के कवि