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लोक मंगल का नृत्य करमा

लोकगीत और लोकनृत्यों में छत्तीसगढ़ का उल्लासित परिवेश साकार हो उठता है। जन्म से मृत्यु पर्यंत, पर्व और उत्सवों में, जीवन की विसंगतियों में होता आया लोक नृत्यों आज भी जीवंत है,समूचे जनजीवन में। ऐसा ही एक लोक नृत्य है करमा, जो विविध परिवेश में प्रचलित है। इसे छत्तीसगढ़ के लोक नृत्यों का राजा भी कहा गया है। आदिवासियों और गैर आदिवासियों का यह लोक मांगलिक नृत्य है।

करमा एक ऐसा गीत नृत्य है जिसमें जीवन के सभी मनोभाव मुखरित होते हैं। करमा में मस्ती है, जो हृदय के उल्लास को प्रकट करता है वहीं उसमें आराधना का संगीत है जो मन प्राण को एकाकार कर देता है। कर्मा एक जन उत्सव है,जो नृत्य में मुखरित होता है। ईश्वर के प्रति अपनी आत्मीयता को उजागर करते,नृत्य करते हुए रम जाते हैं। ठीक वैसा ही भाव जो कृष्ण के महारास में मिलता है, जिस रास में शामिल गोपिकाओ को स्वक्रिया में परक्रिया का एहसास होता है। मन की उस गहराई में जहां ‘मैं’ का अस्तित्व नहीं रहता, ठीक ऐसा ही है करमा नृत्य।

करमा नृत्य ना केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि मध्य प्रदेश के कई अंचलों में आदिवासियों द्वारा किया जाता है। डॉ. श्याम लाल परमार के अनुसार शहडोल, मंडला जिले के गोंड़ और बैगा जनजाति में करमा का विशेष स्थान है। सिवनी, बालाघाट जिले में कोरकू और परधान जातियां करमा नृत्य को कई रूपों में प्रदर्शित करती हैं। कुछ विद्वान इसे गोंड़ जाति का मुख्य नृत्य मानते हैं। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में करमा उरांव जनजाति द्वारा किया जाता है।

छत्तीसगढ़ में करमा त्योहार भी मनाया जाता है। बस्तर, धमतरी, दुर्ग, महासमुंद, बिलासपुर और सरगुजा के कुछ क्षेत्रों में ‘करमा त्योहार’ मनाने की परंपरा आज भी है। सरगुजा के सीतापुर, जशपुर और धर्मजयगढ़ के आदिवासी करमा नृत्य केवल चार दिन करते हैं। वर्षा काल को छोड़कर सब सभी ऋतुओं में करमा नृत्य किया जाता है।

भादों माह में नवाखाई पर्व में एकादशी करमा नृत्य, पुत्र प्राप्ति और उसकी मंगल कामना के लिए ‘उठाई करमा नृत्य’, क्वांर मास में भाई-बहन के प्रेम को प्रदर्शित करने वाला ‘दशर्ई करमा नृत्य’, कार्तिक माह में युवक-युवतियों के प्रेम से सराबोर कर देने वाला करमा नृत्य होता है। हर क्षेत्र में करमा नृत्य करने के अपने अपने तौर-तरीके बनाए गए हैं।

करमा नृत्य ना केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि मध्य प्रदेश के कई अंचलों में आदिवासियों द्वारा किया जाता है। डॉ. श्याम लाल परमार के अनुसार शहडोल, मंडला जिले के गोंड़ और बैगा जनजाति में करमा का विशेष स्थान है। सिवनी, बालाघाट जिले में कोरकू और परधान जातियां करमा नृत्य को कई रूपों में प्रदर्शित करती हैं। कुछ विद्वान इसे गोंड़ जाति का मुख्य नृत्य मानते हैं। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में करमा उरांव जनजाति द्वारा किया जाता है।

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भादों माह में नवाखाई पर्व में एकादशी करमा नृत्य, पुत्र प्राप्ति और उसकी मंगल कामना के लिए ‘उठाई करमा नृत्य’, क्वांर मास में भाई-बहन के प्रेम को प्रदर्शित करने वाला ‘दशर्ई करमा नृत्य’, कार्तिक माह में युवक-युवतियों के प्रेम से सराबोर कर देने वाला करमा नृत्य होता है। हर क्षेत्र में करमा नृत्य करने के अपने अपने तौर-तरीके बनाए गए हैं।

करम देव की पूजा के अवसर पर करमा नृत्य श्रृंगार, उत्साह, उल्लास से सराबोर होता है। करमा नृत्य के पहले ‘करम पेड़’ की एक डाल को लगाया जाता है। कदंब प्रजाति का यह पेड़ जो कंभारी से मिलता जुलता है, ऐसा डॉ. राजाराम त्रिपाठी बताते हैं। करम डाली के चारों ओर घेरा बनाकर करमा नृत्य करते हैं।

बस्तर में नृत्य के पहले बैचांदी कंद को प्रसाद के रूप में खाया जाता है, दर्शकों को भी यही प्रसाद दिया जाता है। बैचांदी कंद उत्तेजक और हल्का नशीला होता है। फिर होती है नृत्य की शुरुआत, जहां महिलाएं और पुरुषों का समूह गोल घेरे में सम्मुख खड़े हो जाते हैं। पुरुष एक दूसरे की कमर में हाथ डाले रहते हैं, ठीक ऐसी ही मुद्रा में महिलाओं की पंक्ति उनके सामने खड़ी हो जाती है। इनके बीच में दो-तीन वादक पुरुष मांदर, झांझ लिए होते हैं जो वादन के साथ गीत भी गाते हैं। करमा नृत्य का आरंभ देवी या देव आराधना से शुरू होता है।

ओ हा हुई ………………
पहली पंवार तोला गांयो
देवी शारदा पहली पंवार हुई रे।।
के खर गायो मैं तो,
के खर बजायो ओ हो हुई…..
खेरी के गायो मैं तो,
ठाकेर बजायो ओ हो हुई…..।

गीत की शुरुआत पुरुष टोली करती है और समूह का अगवा गीत की धुन बांधता हुआ गीत की पहली पंक्ति गाता है जिसे सभी नर्तक दोहराते हैं। इसी के साथ पुरुष लयात्मक रूप से तीन चार कदम आगे बढ़ते हैं और महिलाएं उनका अनुसरण करती हुई पीछे कदम रखती हैं। मांदर, झांझ वादक भी थिरक उठते हैं,जिसमें बांसुरी वादक भी शामिल होता है। गीत की एक पंक्ति एक दल गाता है तो तत्काल दूसरा दल उसे उठा लेता है। एक टोली नाचती है तो दूसरी अपनी जगह खड़े होकर शरीर को लहराती है। नृत्य निलंबित गति और लय से शुरू होकर गति पकड़ता है। भाव भरे मधुर गीतों के साथ करमा नृत्य अलसुबह तक चलता है।

करमा नृत्य कई शैली में होता है। छत्तीसगढ़ में करमा नृत्य की पांच शैली प्रचलित है, जिसमें झूमर, लंगड़ा, ठाड़ा, लहकी, और खेमका करमा है। नर्तक जब झूम झूम कर नाचते हैं, वह ‘झूमर नृत्य’ कहलाता है। एक पैर झुकाकर गीत गाए जाने वाला ‘लंगड़ा नृत्य’ होता है। खड़े होकर नृत्य करने वाले को ‘ठाड़ा नृत्य’ और शरीर को लोच देते हुए नृत्य को ‘लहकी नृत्य’ कहा जाता है। ‘खेमटा नृत्य’ में कमर लचका कर पैरों को आगे पीछे लयबद्ध किया जाता है। करमा नृत्य में एक साथ ही दूसरे को प्रेम संबोधन के साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करते हुए कहता है,

“चलो नाचे जाबो रे गोलेंदा जोड़ा
करमा तिहार आईस नाचे जाबो रे
पहिली मैं सुमिरौ मैं सरसती माई ला
पाछू गौरी गनेश रे,गोलेंदा जोड़ा।। …. ”

करमा नृत्य उत्सव उल्लास, प्रेम, श्रृंगार,आराधना के साथ कर्म को प्रदर्शित करता है। इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई इस बारे में अनेक किंवदंतियां हैं। छत्तीसगढ़ की एक लोक कथा करमा नृत्य की शुरूआत के बारे में है। प्यारेलाल गुप्त ने अपनी पुस्तक ‘प्राचीन छत्तीसगढ़’ में करमा नृत्य के बारे में एक किवदंती कही हैं।” 4 हजार वर्ष पहले जम्बूद्वीप ,रेवा खंड के अंतर्गत छत्तीसगढ़ में महानदी के किनारे पदमपुरी गांव में पदमसेन नाम का बंजारा रहता था, उसकी पत्नी पद्मिनी थी। कंजूस पदमसेन के सात पुत्र और एक पुत्री थी, सात भाइयों में सबसे छोटा सरमाहा। सरमाहा ने ईश्वर को याद कर खेतों की जुताई की और रात्रि में मांदर बजाते हुए अपनी भाभियों के साथ नृत्य किया। इससे देवता प्रसन्न हुए, वर्षा हुई और घर धन-धान्य से भरपूर हो गया।”

छोटा नागपुर के उरांव का करमा नृत्य ‘कटलोटा पर्व’ के साथ जुड़ा है। डॉक्टर शरद चंद्र राय बताते हैं कि उरांव गांव की शुद्धि और फसल की बढ़ोतरी के लिए करमा नृत्य करते हैं। वहीं कुछ करमा नृत्य को ‘करमसेनी देवी’ के साथ जोड़कर देखते हैं। वैसे करमा नृत्य छत्तीसगढ़ का ऐसा अनूठा गीत नृत्य है जिसमें यहां का समूचा जीवन साकार होता है। खेती किसानी करते कर्मवीर करमा नृत्य को आज भी संजोए हुए हैं।

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