विश्व में प्राचीन सभ्यताओं का उदय नदियों की घाटी पर हुआ है। आरंभ में आदिम मानव के लिए स्वयं को लंबे समय तक सुरक्षित रख पाना बेहद ही चुनौती पूर्ण था। आदिम मानव का निवास जंगलों में नदी-नालों, झरनों एवं झीलों के आस पास रहा करता था। उसके लिए जंगली जानवरों के हमले, कठिन जलवायु और मौसम की मार इत्यादि प्रमुख चुनौतियाँ थी। संगठित होकर इन चुनौतियों से लड़ते हुए आदिम मानवों को एक सामाजिक बल मिला, जो आदिम मानव के विकास के लिए वरदान सिद्ध हुआ। जैसे जैसे मानवों की आबादी बढ़ती गई, मानव कुटुंब अब नए जगहों की तलाश में दुनिया के कोने-कोने में जा बसा। पुरातात्विक प्रमाण बतलाते है कि आदिम मानवों की बसाहट नदियों की घाटी पर हुई, पानी और भोजन की सुलभता ने मानव जीवन को फलने फूलने का भरपूर अवसर दिया।
भारत की प्राचीन सभ्यता का अभ्युदय सिंधुऔर सरस्वती नदी की घाटियों के बीच हुआ। सप्त सैन्धव प्रदेश की उपजाऊ भूमि ने एक सुसंस्कृत सभ्यता को जन्म दिया। यही आगे चल कर विश्व की सबसे बड़ी भारतीय सभ्यता बनी। अपनी प्राचीन ज्ञान को लेकर आगे बढ़ते हुए आज भारतवर्ष एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की संस्कृति एवं परंपरा में नदियों का विशेष महत्व है। सभ्यताओं के आर्थिक और सांस्कृतिक विकास करने में नदियां का विशेष योगदान रहा हैं। भारत मेंनदियों को भगवान के रूप में पूजा जाता है, क्योंकि जनमानस इसे जीवन देने वाले भगवान के रूप में देखते हैं।
भारत का विश्व के अन्य देशों के साथ राजनीतिक एवं सांस्कृतिक संबंध रहा। वहीं पश्चिम विश्व के साथ या संबंध व्यापारी भी था। भारत के पश्चिमी देशों के साथ व्यापार की प्राचीनता प्रागैतिहासिक युग तक जाती है। ज्ञात हो कि सिंधु सभ्यता के निवासियों का मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता के निवासियों के साथ घनिष्ठ संबंध था। उर, किस, लगश, निमुर, तेल, अस्मर, गावरा आदि मेसोपोटामियन नगरों से लगभग एक दर्जनसैन्धव मुहरे प्राप्त हुई जो व्यापारिक प्रसंग में वहाँ पहुंच गई थी। मुहरों की अतिरिक्त सोने चांदी तांबे आभूषण, करकेत केमनके, मोती, हाथी दांत, कच्चे मिट्टी के विभिन्न प्रकार के बर्तन, लकड़ी की वस्तुएं आदि मेसोपोटामिया नगरों से मिली है। व्यापार परस्पर था इसलिए सफेद संगमरमर की मुहर, हथौड़े, भेड़ का खिलौना, मिट्टी की मुहर, आदि सामग्री सिंधु घाटी सभ्यता के विभिन्न स्थानों से समाप्त होती है। मोहनजोदड़ों से सुमेरियन मुहर प्राप्त होती है। सुमेरियन शासक सारगोन(2371-2316 ईसा पूर्व) के समय के लेखों से ज्ञात होता है कि उर तथा अज नगरों के व्यापारियों का संबंध मेलुहा के व्यापारियों से संबंध था। वे वहाँ से आबनूस तथा अथइमारती लकड़ियां, सोना, चांदी, तांबा, लाजावर्द, माणिक्य के मनके, हनथी दांत की बकी रंगीन कंघी, पशु पक्षी आभूषण, अंजन, मोती आदि वस्तुएं मँगवाते थे।
ढोंरढंगर चराने वाले और शिकार करने वालों द्वारा चले गए मार्ग राजमार्ग बने। यह क्रम अनेकोंयुगांतक चलता रहा, इस तरह पथ पद्धति का विकास हुआ। प्राचीन भारत में कुछ बड़े शहर अवश्य थे पर अधिकांश आबादी गांवों में निवास करती थी। उत्तर के महापथ से व्यापारी मध्य एशिया एवं श्याम देश तक पहुंचते थे। रोमन इतिहास के हखामनी पथ ज्ञात होता है कि इसकी प्रारम्भिक सदियों में इस रास्ते से चीन एवं पश्चिमी देशों में रेशम का व्यापार चलता था। पर्वतीय साहित्य में अजपथ का उल्लेख भी आता है।
उड़ीसा से हाथी दांत का व्यापार, दोसाराने (तोसलि) हाथी छत्तीसगढ़ में भी बहुतायत में पाए जाते है। ईसा की पहली शताब्दी में जहाजरानी की खूब उन्नति हुई, प्राचीन काल में भारतीय जहाजों का संबंध मलय, पूर्वी अफ्रीका और फारस की खाड़ी से था। सात पाल के मिस्री जहाज जिनका वजन दो से तीन सौ टन तक होता था। पॉन्डिचेरी की वीरपट्टनम की खुदाई से पता चला है कि वह रोमन व्यापारियों का बड़ा अड्डा था।
अडमस नदी की पहचान सुवर्ण रेखा अथवा ब्राह्मणी की संक शाखा से की जाती है। जहां मुगल काल में भी हीरे मिलते थे। जहां से तेजपात, नलद (जटामसी),मलमल रेशमी कपड़े और मोती बाहर मिलते थे। सबरीसम्बलपुर में हीरे मिलते थे। सार्थवाह पृ. 123
रोमनों का भारतीय वस्तुयों में बहुत प्रेम था यहाँ से पशु एवं पक्षी सरीसृप भी ले जाया करते थे। जिसमे सिंह, गैंडा, हाथी, सुग्गे, शिकारी कुत्ते, चीते, बंदर, इत्यादि। सार्थवाहपृ. 126 भारतीय हाथी दांत से खुदी हुई प्रतिमा पाम्पेई के उत्खनन से प्राप्त हुई है। साल का गोंद तलमि के समय महकोसल और उड़ीसा से हीरे रोम जाते थे।
समुद्री नक्शे अथवा लॉगबुक का पहला लेखन उल्लेख वृहद कथा श्लोक संग्रह में हुआ है। मनोहर के आपकी समुद्र यात्रा में शृंगवान पर्वत एवं श्री कुंज नगर की भौगोलिक स्थिति का पता लगाकर उसे एक नक्शे या बक्से पर लिख लिया।
नदियों पर नाव चलाने वाले मांझी, कैवर्त कहलाते थे। पतवार चलाने वाली कर्णधार कहलाते थे। जहाज को किनारे पर लाने वाले नाविक आहार कहलाते है।
पाँच प्रकार के सार्थवाह:
मंडी सार्थवाह = माल ढोने वाले
बहलियासार्थवाह= ऊंट, खच्चर, बैल आदि
भारवाह= स्वयं अपना माल ढोने वाले
औदारिका= जीविका हेतु एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने वाले मजदूर
कार्पटिकसार्थवाह= भिक्षु एवं साधुओं की यात्रादल
सार्थवाह द्वारा ले जाने वाले माल को विधान कहा जाता था।
गणिम= जिसे गिना जा सके। (हर्रा -बहरा आदि)
धरीम= तौला जा सके। (शक्कर आदि )
पेय= जिसे पाली या सेतिका से नापा जा सके। (चावल, घी, शहद आदि )
परिच्छेद = जिसे आँखों से जांचा जा सके। (कपड़े, जवाहरात, मोती आदि)
छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक जीवन नदियों के तटों पर पल्लवित हुआ है। यहाँ नदियों के तटों पर ऋषि-मुनियों की तपोभूमि भी रही है। प्राचीन साहित्यों से ज्ञात होता है, त्रेता युग में सिहावा पर्वत के पास महानदी के उद्गम पर पर शृंगी ऋषि का आश्रम था। इसी पर्वत से एक जलधारा के रूप में महानदी का उद्गम होता है। यह जल धारा जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाती है, विशाल रूप लेने लगती हैऔर छत्तीसगढ़ की जीवन रेखा ”महानदी” बन जाती है। प्राचीन साहित्यों में इसका नाम चित्रोत्पला,महानन्दा एवं नीलोत्पला बताया गया है। महाभारत के भीष्म पर्व के अनुसार;
उत्पलेशंसभासाद्यायीवच्चित्रामहेश्वरी।
चित्रोत्पलेतिकथितासर्वपापप्रणाशिनी॥
चित्रोत्पला नदी को पुण्यदायिनी और पाप विनाशिनीकहा गया है। इसे अत्यंत ही पवित्र और पूजनीय माना जाता है। महानदी नामकरण इसकी विशालता एवं इसके सांस्कृतिक-धार्मिक-आर्थिक महत्व को देखकर इसे महा-नदी की उपाधि समीचीन जान पड़ती है। त्रिवेणी संगम राजिम नगरी,शिवरीनारायण, चंद्रपुर का विशेष धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व है।कांकेर, धमतरी, गरियाबंद, रायपुर, बलौदाबाजार, महासमुंद, जांजगीर-चांपा व रायगढ़ जिले की लोकजीवन को पल्लवित करते हुए महानदीओडिसा राज्य में प्रवेश करती है। महानदी की सहायक नदीयोंमें शिवनाथ, हसदेव, मांड, केलो, ईब, पैरी नदी, जोंक नदी, दूध नदी, बोराई नदी है। शिवनाथ नदी जो राजनन्दगाँव की पान बरस की पहाड़ी से निकलती है। यह नदी छत्तीसगढ़ में बहने वाली सबसे बड़ी नदी है। शिवनाथनदी की घाटी में दुर्ग, नगपुरा, धमधा, तितुरघाट, सरदाजोंग, धोबनी, तरपोंगी, तरेंगा, मदकुद्वीप, ताला, डमरू, खरौद, शिवरीनारायण आदि प्राचीन नगर बसे हुए है।शिवनाथ सहायक नदियों में उत्तर से आमनेर, हाँफ, आगर, मनियारी, लीलागर, अरपा तथा दक्षिण से खरखरा, तंदुला, खारुन, जमुनिया नदी है। शिवनाथ नदी के तट पर बसा डमरू में पुरातत्व विभाग को खुदाई के दौरान सातवाहन काल के प्रमाण के अलावा कलचुरि शासन काल के अंश मिले है। इस खुदाई में पत्थर के कंधी, शील मोहर, मिट्टी की माला, स्नान कक्ष, तथा भूमिगत नाली के प्रमाण मिले थे साथ ही लोहे से बने कुछ हथियार के अलावा बुद्ध काल के नमूने के गोलाकार पत्थर से बने चक्र अभी भी देखा जा सकता है जो बौद्ध काल से प्रभावित था। शिवनाथके तट पर बसा-तितुरघाटसोनेसरार एक प्राचीन बंदरगाह है। छत्तीसगढ़ में छोटे नाव के रुकने वाले स्थानों को सरार कहते है।
उत्तर की ओर से आकार महानदी में मिलने वाली नदियों में एक नाम हसदेव नदी का भी है। कोरिया जिले के सोनहट तहसील में देवगढ़ की पहाड़ी से यह नदी निकलती है तथा ग्राम केरा जिला जांजगीर चांपा में महानदी से मिल जाती है। इसकी कुल लंबाई 176 किमी है। इसका प्राचीन नाम हस्तुसोमा है। यह महानदी की दूसरी सबसे बड़ी सहायक नदी है। इसकी सहायक नदियों में गज, अहीरन, जटाशंकर, चोरनाई एवं तान नदी है। इसके तट पर केरा, चांपा, कनकी, कोरबा,मनेन्द्रगढ़ आदि नगर बसे हुए है।
लीलागर नदी जिसका प्राचीन नाम नीलोत्पला है। इसका उद्गम कोरबा जिले से है। इसकी कुल लंबाई 135 किमी है। इस नदी के समीप प्राचीन मल्हार नगर बसा हुआ है। 1167 ईस्वी के कलचुरी शिलालेख से इसका नाम मल्लापट्टन प्रदर्शित करता हैं। मल्लालपत्तन तीन नदियों से घिरा हुआ है। पश्चिम में अरपा, पूर्व में लीलागरएव दक्षिण में शिवनाथ।यहाँ से रोमनमाक्यूरयस,आन्टोनीनस का (27BC-180 AD)कुषाणविमकैडफाइसिस का सिक्का भी प्राप्त हुआ है। मल्हार से प्राप्त यूनानी प्रभावयुक्त विष्णु प्रतिमा भी प्राप्त हुई है। जिससे ज्ञात होता है, कि इस क्षेत्र में विदेशियों का आवागमन था।
दक्षिण दिशा की ओर से महानदी में मिलने वाली पैरी एक प्रमुख नदी है। यह भातृगढ़ की पहाड़ी से निकलती है। राजिम के पास महानदीसे मिलती है। सोंढुर इसकी सहायक नदी है। पैरी नदी के तट पर कुटेना में स्थित यह बंदरगाह (गोदी) पाण्डुका ग्राम से 3 किलोमीटर दूर स्थित है। अवलोकन करने प्रतीत होता है कि इस बंदरगाह/ गोदी का निर्माण कुशल शिल्पियों ने किया है। इसकी संरचना में 90 अंश के कई कोण बने हैं। कठोर लेट्राईट को काटकर बनाई गयी गोदियाँ तीन भागों में निर्मित हैं, जो 5 मीटर से 6.60 मीटर चौड़ी तथा 5-6 मीटर गहरी हैं। साथ ही इन्हें समतल बनाया गया, जिससे नाव द्वारा लाया गया सामान रखा जा सके। वर्तमान में ये गोदियाँ नदी की रेत में पट चुकी हैं। रेत हटाने परगोदियाँ दिखाई देने लगी। प्रख्यात इतिहासकार एवं पुरात्वविद डॉ विष्णु सिंह ठाकुर ने इसे चौथी शताब्दी ईसा पूर्व माना। इस नदी से “कोसला वज्र” (हीरा) प्राप्त होता था तथा जल परिवहन द्वारा आयात-निर्यात होता था।
गरियाबंद 15 किलोमीटर पर पैरी नदी के तट पर स्थित एक ग्राम का नाम मालगाँव है। यहाँ नावों द्वारा लाया गया सामान (माल) रखा जाता था। इसलिए इस गांव का नाम मालगाँव पड़ा। मालगाँव में पैरी नदी के तट पर आज से लगभग 10-15 वर्ष पूर्व तक एक रपटा (छोटा पुल) था जो नदी में पानी आने के कारण वर्षाकाल में बंद हो जाता था। जिससे गरियाबंद से लेकर देवभोग एवं उड़ीसा तक जाने वाले यात्री प्रभावित होते थे। नाव द्वारा नदी पार कराई जाती थी और वर्षाकाल में रायपुर से देवभोग जाने वाले यात्री मालगाँव से भली भांति परिचित होते थे, क्योंकि यहीं से पैरी नदी को नाव द्वारा पार करना पड़ता था। यहाँ से महानदी के जल-मार्ग के माध्यम द्वारा कलकत्ता तथा अन्य स्थानों से वस्तुओं का आयात-निर्यात हुआ करता था। पू्र्वी समुद्र तट पर ‘कोसल बंदरगाह’ नामक एक विख्यात बन्दरगाह भी था। जहाँ से जल परिवहन के माध्यम से व्यापार होता था। इससे ज्ञात होता है कि वन एवं खनिज संपदा से भरपूर छत्तीसगढ प्राचीन काल से ही समृद्ध रहा है। नदियाँ इसे धन धान्य से समृद्ध करते रही हैं।
जोंक नदी महासमुंद जिले पिथौरा के पासमारागुड़ा से निकलती है। इसका प्राचीन नाम पालाशिनी है। अपने उद्गम से 90 किमीबाद यह शिवरीनरायण में महानदी से मिल जाती है। अंग्रेज अधिकारी मिस्टर चिसम ने भी जोंक नदी के तट पर चारों दिशाओं में जाने वाले मार्गों को उचित ठहराया है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में परकोम स्थित निषधदहरा के पास नवकापट्टनम काफी स्पष्ट देखने को मिलता हैं। जैसे-जैसे जोंक नदी आगे बढ़ती है, नर्रा (छत्तीसगढ़) और कुररूमुड़ा उड़ीसा ओर दोनों ही पार में नवकापट्टनम को स्थानीय प्रचलित भाषा में इसे डोंगिया कहते हैं।ब्रिटिश काल तक बाजार के बारे में भी यहां जानकारी मिलती है। एक बड़ा बाजार यहां 3 दिनों तक लगता था इसके आगे बढ़े तो रेलवे पुल के पास टेमरी में नौकापत्तनम मिलता है जो अब खेतों में तब्दील हो चुका है।जोक नदी जैसे जैसे आगे बढ़ती है साल्हेभाटाक्षेत्र से प्राप्त पूरातात्विक अवशेष मूर्तियां, टेराकोटा के अवशेष इस बात को प्रमाणित करते है कि यह एक समृद्ध नगर व व्यापारिक केंद्र रहा होगा।व्यापार के सभी साधनों में उपयोग में आने वाले मृदा निर्मित मापन पात्र और औषधि निर्माण में प्रयोग की जाने वाले पात्र सेनभाठा से प्राप्त हुए है। “खुड़मुड़ी और आगे उदरलामी, परसवानी, संकरा, सपोस, रायपुर जिले में छतवननागेड़ी, राजा देवरी, सोनाखान, हसुआ, कटगी में सरार है। जिसे स्थानीय भाषा मेडोंगियाकहते हैं तथा नवकापट्टनम भी कह सकते हैं।इन स्थानों पर रखे पत्थर एवम घाट यदा-कदा दिखाई देते हैं। जोक नदी के तट पर बड़े पैमाने पर व्यापार में वनोंपज एवं यहां खाद्यान्न की आपूर्ति होती रही होगी।
राजिम छत्तीसगढ़ के प्राचीन शहरों में से एक है। इसे छत्तीसगढ़ का प्रयाग भी कहा जाता है। यहाँ प्रसिद्ध राजीव लोचन जी का मंदिर है। यह महानदी नदी के पूर्वी तट पर स्थित है। यह त्रिवेणी संगम है, यहां तीन नदियों का मिलन होता है – महानदी, पैरी और सोंढुर, जिन्हे त्रिवेणी संगम के नाम से जाना जाता है।राजिममन्दिर के स्तम्भों पर उत्कीर्ण यात्री लेखपवित्र एवं महत्वपूर्ण तीर्थस्थल होने के कारण भारत के विभिन्न भागों से समय-समय पर यात्री राजिम आते रहे हैं । इनमें से कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने यहाँ के मन्दिरों के स्तम्भों पर अपना नाम उत्कीर्ण करा दिया है । इस प्रकार का एक यात्री ‘श्रीलोकबल’ था जिसका नाम रामचन्द्रमन्दिर के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है । इस नाम लेख की लिपि प्रारम्भिक नागरी होने से इसे दसवीं शती का माना जा सकता है। राजीवलोचन मन्दिर के महामण्डप से स्तम्भों पर तथा प्राकार में प्रवेश के लिए बनाये गये प्रवेशद्वार के अन्तःप्रकोष्ठ के स्तम्भ पर कनिंघम ने दस व्यक्तियों का नाम उत्कीर्ण होना बताया है। वे नाम हैं— श्री विदेशादित्य, श्री पूर्णादित्य, सलोढ़ तुंग एवं भाण देवी,पूर्णादित्य, सलोणतुंग, श्री मालादेवी, वण्डाश्वधण्डा, श्री वकराधवलं, श्री भगप्ति एवं श्री रत्नपुरुषोत्तम ।
प्राचीन बंदरगाह: अरौद में महापाषाण काल का श्मशान घाट और महानदी के किनारे चट्टाननुमा बंदरगाह मिलने के बाद भी इस क्षेत्र की व्यापक खुदाई नहीं की गई। इसलिए जमींदोज हो चुकी प्राचीन सभ्यता के रहस्य से पर्दा नहीं उठ पा रहा है।
सिरपुरयहाँ उत्खनन से प्राप्त विशाल आधुनिक बाजार, मुद्रा व्यापार हेतु अनुमति पत्र में लगने वाले सील मुद्रा, औषधालय खाद्यान्न तैयार करने वाले उपस्कर प्राप्त हुए हैं, प्राप्त सिक्के एवममनके अरब एवं पर्सिया से होने वाले व्यापार व व्यापारियों की पुष्टि करते हैं।
भू-आवेष्टित छत्तीसगढ़ प्रदेश के मध्य में बहने वाली जीवनदायिनीमहानदी के तट पर कई प्राचीन नगर बसे हुए है।नगर वाणिज्य एवं व्यापार के केंद्र होते थे। व्यापार और वाणिज्य यहाँ की नदी घाटी संस्कृतिका प्रमुख अंग रही है। प्राचीन काल में थल मार्ग के साथ साथ जल मार्ग से भी व्यापार हुआ करता था। व्यापारी व्यापार करने हेतु अपनी वस्तुओं को नाव के माध्यम से एक स्थान से दूसरी स्थान पर ले जाया करते थे।महानदी एवं इसकी सहायक नदियों के किनारे कई प्राचीन शहर बसे हुए है। इनमेंराजिम, सिरपुर, शिवरीनारायण,दुर्ग, रायपुर, मल्हार, बिलासपुर आदि का नाम प्रमुख है, ये प्राचीन काल में व्यापारिक केंद्र हुआ करते थे।
छत्तीसगढ़ के व्यापारिक मार्ग: 1. पटलीपुत्र मगध मार्ग 2. उत्कल कलिंग मार्ग 3. कौशांबी काशी पथ 4.आंध्र जानेवाला पथ 5. त्रिपुरी पथ 6. विदर्भ एवं अवन्तिका पथ
छत्तीसगढ़ से निर्यात होने वाले प्रमुख वस्तुएं:
छत्तीसगढ़ की महानदी घाटी वन संपदा, खनिज, रत्न भंडार और उपजाऊ भूमि से लिए प्रसिद्ध है। महानदी के तटों में बने कई पुराने बंदरगाह भी प्राप्त हुए है। जो प्राचीन समय में जल मार्ग से व्यापार की ओर संकेत करती है। यहाँ प्राचीन समय में मुख्य रूप से रूप से सोना, हीरा, आइवरी (हाथी दांत) से बने आभूषण, कपड़े, साल वृक्ष का गोंद, सुगंधित वनस्पति, वनों से प्राप्त महत्वपूर्ण औषधियाँ आदि निर्यात होती थी।
प्राचीन समय में छत्तीसगढ़ में आसानी से प्राप्त हो जाने वाली परंतु बहुमूल्य वस्तुओं का निर्यात होता था। प्रमुख रूप से सोना, हीरा, आइवरी (हाथी दांत) से बने आभूषण, कपड़े, साल वृक्ष का गोंद, सुगंधित वनस्पति, वनों से प्राप्त महत्वपूर्ण औषधियाँ आदि।सार्थवाह व्यापार करते थे और इस मार्ग से सूरत के बंदरगाह तक का प्रमाण लोक में मिलता है, बैलगाड़ी में नमक और सुरती (तंबाखू) लेकर आते थे। पिथौरा के निकट नायक बंजारा की 8,10 गांवों में बसे हुए है। प्राचीन काल में ये जाति परिवहन एवं व्यापार का कार्य करती थी। प्राचीन प्रमुख मार्गों में कुछ गांवों के अंतराल पर नायक तालाब मिलते है। व्यापार जल तथा थल दोनों मार्गों से होता था।
छत्तीसगढ़ से निर्यात होने वाला स्वर्ण धातु : फतेफूलचूर, कोटरी संगम घाट, खंडी, सोनाखान, रेंहटीखोल, लिमऊगुंडा महासमुंद, घामरे नदी, ईब नदी, जोंक नदी, महानदी घाटी इत्यादि जगहों से सोनझरिया लोग सोना निकालने का काम करते थे।
छत्तीसगढ़ से निर्यात होने वाले हीरे:छत्तीसगढ़ में देवभोग क्षेत्र से बहुमूल्य रत्न प्राप्त होते है। आस पास के ग्रामीण इलाकों के लोग प्राचीन काल से हीरे ढूँढने का कार्य करते आ रहे है।प्राचीन काल से बहुमूल्य हीरे जवाहरात विदेश भेजे जाते थे। इन्हे प्राचीन काल में कोसला वज्र कहा जाता था।
छत्तीसगढ़ से निर्यात होने वाला आइवरी (हाथी दांत) से बने आभूषण:प्राचीन समय से ही वन आच्छादित प्रदेश होने के कारण इस क्षेत्र में हाथी पाए जाते है। हाथियों का संकेन्द्रणसरगुजा, बिलासपुर, रायपुर वन क्षेत्र में रहा है।
छत्तीसगढ़ से निर्यात होने वाले लोहे का सामान –
छत्तीसगढ़ में लोहा गलाने का कार्य प्राचीन समय से ही चला आ रहा है। इसमें अगरिया जनजाति समूह अग्रणी भूमिका में है, जो पारंपरिक रूप से यह कार्य करते है।छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में लोहे के उपस्कर बनाने हेतु लोहार जाति की बसाहट अद्यतन है।
प्राचीन काल से ही छत्तीसगढ़ में व्यापार के प्रमाण मिलते है। यहाँ से निर्यात होने वाली विभिन्न वस्तुओं के संग्रहण, निर्माण एवं परिवहन में समाज के विभिन्न वर्गों की सहभागिता होती थी। समाज के सभी वर्गों के योगदान से व्यापार सम्पन्न होता था। समाज के सभी वर्ग अर्थतंत्र के अंग थे। इससे सभी को आर्थिक लाभ होता था तथा बाहरी दुनिया से संपर्क बना रहता था।
“महानदीअपवाह तंत्र की व्यापारिक पथ प्रणाली” विषय पर शोध और अध्ययन द्वारा छत्तीसगढ़ की आर्थिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के विविध पक्षों को सामने लाने में सार्थक साबित होगी।
संदर्भ ग्रंथ सूची:
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वेबसाइट:
दक्षिण कोसलटुडे : दक्षिण कोसल की जोंक नदी घाटी सभ्यता एवं जलमार्गी व्यापार: विजय कुमार शर्मा (शोधार्थी) कलिंगा विश्वविद्यालय कोटनी, रायपुर (छ ग)
http://lalitdotcom.blogspot.com : प्राचीन बंदरगाह :ललित शर्मा
श्री वेद प्रकाश सिंह ठाकुर
(संयुक्त शोध पत्र)