Home / संस्कृति / लोक संस्कृति / जानिए लाल बंगला का रहस्य क्या है

जानिए लाल बंगला का रहस्य क्या है

छत्तीसगढ़ पर प्रकृति ने अपना अपार स्नेह लुटाया है। यहां के नदी, पहाड़, जीव-जंतु, सघन वन्यांचल, जनजातीय परंपराएं और लोक जीवन इस राज्य की सुषमा में चार चांद लगाते हैं। अपनी विशिष्ट जीवनशैली और परंपरा को सहेजने में जनजातीय समूह विशिष्टता है। इनके विशिष्ट रीति-रिवाज और परंपराएं देश और विदेश के लोगों के लिए कौतूहल का विषय बनती है।

दुनिया की रेलमपेल और बाहरी चमक दमक से दूर सुदूर वन प्रांतर मे अधिकांश जनजातियां निवास करती हैं। व्यर्थ के दिखावे और ढकोसलों से दूर प्रकृति के सामीप्य में अपने में मगन इनकी जीवन-शैली सचमुच अनूठी है। इनका रहन-सहन, रीति-रिवाज, मकान अपनी शैली लिए होते हैं, जिसमें एक जनजाति बंगला भी बनाती है।

बंगला! सही पढ़ा आपने। मैंने बंगला ही लिखा है। इस भागदौड़ की जिंदगी में जब बड़े बड़े पैसेवालों के पास भी बंगला नहीं हैं तो ऐसे में न्यूनतम जरूरत के साथ अपना गुजर-बसर करने वाले किसी जनजातीय समूह के पास आप बंगला की कल्पना असंभव प्रतीत होती है। लेकिन आप मानें या ना मानें प्रकृतिपुत्रों के पास भी होता है उनका बंगला, लाली बंगला।

बंगला शब्द सुनने से ही किसी विशाल भवन का बोध होता है। सामान्यतःकिसी विशाल भवन के लिए ही बंगला शब्द का प्रयोग किया जाता है और बंगला आमतौर पर आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्तियों के पास ही होता है। जैसे हमारे फिल्म स्टार और खिलाड़ियों के आलीशान बंगले। फिल्मी कलाकारों के बंगले यथा प्रतीक्षा, जलसा, मन्नत, आशीर्वाद, रामायण आदि बहुत प्रसिद्ध है।

धनकुबेरों के संदर्भ में बंगला की बात समझ आती है लेकिन आर्थिक रूप से विपन्न जनजातीय समूह के पास बंगला की बात थोड़ी अजीब लगती है। लेकिन है ये सोला आना सच!!हमारे छत्तीसगढ़ में रहनेवाली एक विशिष्ट जनजाति के पास बंगले की बात भी सच है।

बात छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में निवास करने वाली भुंजिया जनजाति के रसोईघर की है। भुंजिया जनजाति के लिए उनकी ये रसोई केवल खाना पकाने का स्थान नहीं होता बल्कि वहां उनके इष्ट देव भी विराजित होते हैं। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो उनके लिए ये रसोईघर मंदिर के समान होता है। गरियाबंद के छुरा और गरियाबंद विकासखंड में निवासरत ये विशिष्ट जनजाति अपने दृढ़ सामाजिक नियमों और रीति-रिवाजों के लिए जानी जाती है।

इस जनजाति को शासन ने विशेष पिछड़ी जनजाति का दर्जा दिया है और इनके विकास के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। ये जनजाति छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के छुरा, गरियाबंद व मैनपुर विकासखंड, धमतरी जिले के सिहावा नगरी क्षेत्र और महासमुंद के बागबाहरा विकासखंड में निवास करती है। पडोसी राज्य ओडिशा के कालाहांडी क्षेत्र में भी ये जनजाति निवास करती है।

भुंजिया जनजाति अपने आपको मूलतः गुडाराज(सोनाबेडा क्षेत्र)के मूल निवासी मानती हैं। उनकी उत्पत्ति की कहानियां उसी क्षेत्र से जुड़ी है। भुंजिया जनजाति चिंडा, चोकटिया या चौखुटिया और खोल्हार जिहा उपजाति में विभक्त है। जिसमें मैनपुर क्षेत्र में चिंडा भुंजिया, गरियाबंद छुरा क्षेत्र में चोकटिया भुंजिया और महासमुंद के बागबाहरा विकासखंड अंतर्गत खल्लारी क्षेत्र में खोल्हारजिहा भुंजिया जनजाति निवासरत है।

यूं तो उपरोक्त सभी उपजाति में भुंजिया रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है लेकिन चोकटिया भुंजिया आज भी अपनी मूल संस्कृति के वाहक हैं। विशेष रूप से चोकटिया भुंजिया को अपने विशिष्ट सांस्कृतिक प्रतीक लाली बंगला के लिए जाना जाता है। हर परिवार में एक लाल बंगला होता है।

वैसे तो बनावट के आधार पर प्रकृति प्रदत्त सामग्री से ही इस बंगले का निर्माण किया जाता है लेकिन इस लाली बंगले के नियमों के कारण इसकी महत्ता और बढ़ जाती है। इस बंगले का निर्माण मिट्टी की भीतिया(दीवार), घास फूस की छत और फर्श मिट्टी से छबाई करके गोबर से लीपकर बनाया जाता है।

बताते हैं कि दीवारों को लाल रंग देने के लिए पहले लाल मुरूम को घोलकर लाली बंगला के दीवारों पर पोता जाता था। बाद में सहूलियत के लिए गेरू से पुताई की जाने लगी जो आज भी जारी है। इस रसोईघर के निर्माण के दौरान भोजन पकाने में सहायक सभी सामग्री और यंत्रों को रखने के लिए स्थान और भोजन करने के लिए पर्याप्त स्थान का भी ध्यान रखा जाता है।

जब हालर मिल (धान कूटने की मशीन) नहीं हुआ करती थी तब ढेंकी, मूसर और जांता भी लाली बंगला का अनिवार्य हिस्सा हुआ करते थे। अब समय के साथ ये विलुप्त होते जा रहे हैं। समय के प्रभाव से कोई भी अछूता नहीं रह सकता। वर्तमान समय में कोई भी जनजाति वर्ग अब आधुनिकता से बच नहीं सकता तो स्वाभाविक रूप से इस जनजाति के ऊपर भी प्रभाव पडा है।

चूल्हे में आग जलाने से पहले चूल्हे की गोबर से लिपाई की जाती है। उसके बाद खाना पकाया जाता है। खाना पकने के बाद थोड़ा-सा खाना और सब्ज़ी पत्ता में निकालकर चूल्हे में देवी-देवताओं के नाम से डाल दिया जाता है, उसके बाद ही घर का कोई भी सदस्य खाना खाता है। लाल बंगले से बाहर निकाले हुए खाने को वापस लाल बंगले में नहीं लिया जाता।

शासन के योजना के तहत अब गांव-गांव में पक्के मकानों का निर्माण किया जा रहा है। भुंजिया जनजाति आधुनिकता को धीरे-धीरे अपना रहा है लेकिन चोकटिया भुंजिया जनजाति द्वारा लाली बंगला को संरक्षित रखने का कार्य आज भी किया जा रहा है।

सन् 1924 में प्रकाशित रायपुर गजेटियर में भुंजिया जनजाति की विशेषता को उल्लेखित किया गया है। जिसमें बताया गया है कि रायपुर जिले में भुंजिया नामक एक ऐसी जनजाति पाई जाती है, जिसकी झोपड़ी को यदि ब्राम्हण भी छू दे तो वह अपवित्र हो जाती है और वो उसको जला डालते हैं। भोजन पकाने के मामले में तो ये कान्यकुब्ज के भी कान काटते हैं।

लाली बंगला की बहुत सी विशिष्टताएं है। जैसे कि चोकटिया भुंजिया जनजाति के अलावा कोई अन्य जाति वर्ग का व्यक्ति उसे छू भी नहीं सकता। यहां तक कि उनकी उपजाति में आनेवाली चिंडा और खोल्हारजिया भुंजिया भी उनके लाली बंगला को स्पर्श नहीं कर सकते। जब स्पर्श मात्र प्रतिबंधित है तो वहां प्रवेश का प्रश्न ही नहीं उठता।

अन्य जाति वर्ग का लाली बंगला में प्रवेश पूर्णतः निषेध रहता है। भूलवश भी अगर कोई अन्य जातिवर्ग का व्यक्ति लाली बंगला को हाथ लगा दे तो उसको तत्काल आग लगा दी जाती है और नये लाली बंगला का निर्माण किया जाता है। मासिक धर्म के दौरान रजस्वला स्त्रियां भी इस बंगले में प्रवेश नहीं कर सकती।

इस जनजाति में कांड(तीर) विवाह का नियम होता है। कांड विवाह के पश्चात बालिका लाली बंगला में ही भोजन ग्रहण करती है। लेकिन जब लड़की की शादी हो जाती है और वह ससुराल चली जाती है तब वह अपने मायके के लाली बंगला में प्रवेश नहीं कर सकती। शादी के समय बेटी को मायके के लाली बंगले से अंतिम विदाई दी जाती है, जहां वह फिर जीवन पर्यन्त प्रवेश नहीं कर सकती। जूता-चप्पल पहनकर भी इस बंगला में प्रवेश नहीं कर सकते।

अगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो जिस शुद्धता और पवित्रता का ध्यान रसोईघर में इस जनजाति के द्वारा रखा जाता है। वैसे तो बड़े से बड़े तथाकथित उच्च वर्गों में देखने को नहीं मिलता। जिस प्रकार बंगला बेशकीमती होता है उसी प्रकार भुंजिया जनजाति के लिए उनका रसोईघर अनमोल होता है।

शायद इसीलिए उन्होंने इसका नामकरण बंगला किया होगा और लाल रंग से पुते होने के कारण लाली बंगला। इस लेख को लिखने के दौरान मुझे लोकरंग अर्जुंदा का एक प्रसिद्ध गीत याद आ रहा है-लाली बंगला में गा, मोर जोड़ीदार करले करार लाली बंगला में…..

इस गीत को सुनकर लगता है कि दो प्रेमी अपना प्रेम संबंध मजबूत करने के लिए लाली बंगला में संकल्पित हो रहे हैं मगर भुंजिया जनजाति समूह के इस लाली बंगला में देवता निवास करते हैं…प्रेम की खिचड़ी नहीं पका करती।

आलेख

रीझे यादव
टेंगनाबासा(छुरा)
जिला, गरियाबंद

About noadmin

Check Also

“सनातन में नागों की उपासना का वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और जनजातीय वृतांत”

शुक्ल पक्ष, पंचमी विक्रम संवत् 2081 तद्नुसार 9 अगस्त 2024 को नागपंचमी पर सादर समर्पित …

One comment

  1. अद्भुत जानकारी ।रसोई का महत्व हर वर्ग हर समाज में सदा से रहा है और रसोई में ही हर कुटुंब के ईष्ट देव का निवास होता है जहाँ परिवार के सदस्यों के सिवाय अन्य कोई प्रवेश नहीं कर सकता। आधुनिकता और आरामतलबी ने रसोई कुक के हवाले कर दी और देवता घर के किसी कोने में या बाहर कर दिये गये। आज भी गाँव में रसोई को घर की स्त्रियों के अलावा अन्य कोई नहीं छूता। यह अलगाव छुआछूत नहीं बल्कि स्वच्छता और स्व को बनाए रखने के संस्कार हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *