छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 75 कि मी, जिला मुख्यालय महासमुंद से 25 कि. मी. रायपुर-पदमपुर राष्ट्रीय राजमार्ग में अवस्थित खल्लारी मध्यकालीन ऐतिहासिक स्थल है। इस ऐतिहासिक स्थल के स्मरण में खल्लारी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र का गठन हुआ है जो बागबाहरा विकासखंड के अंतर्गत ग्राम पंचायत है।
इतिहासकार यहां के “प्राचीन नारायण मंदिर” में मिले शिलालेख के आधार पर “खलवाटिका” नामकरण करते हैं जो प्रथम दृष्टया अप्रासंगिक प्रतीत होता है क्योंकि इस नाम से “दुष्टों की बगिया” का बोध होता है। मेरे मतानुसार इस स्थान का वास्तविक नाम “खालवाटिका” होनी चाहिए जहां पशुओं की खाल से नाना प्रकार के परिधान बनाए जाते रहे होंगे।
इस स्थान में चैत्र पूर्णिमा के दिन मेला भरता है। प्रचलित जनश्रुतियों के अनुसार इस ग्राम के निकट की पहाड़ी में “खल्लारी माता” का निवास है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में खल्लारी माता अपनी बहन खोपड़ा माता के साथ महासमुंद नगर के निकट बेमचा ग्राम में निवास करती थी। वर्तमान में खोपड़ा माता का निवास खल्लारी के निकट खोपड़ा पहाड़ में है।
खल्लारी के नाम पर निकटवर्ती क्षेत्रों अन्य स्थानों उपस्थिति से लोक देवी होने का संकेत मिलता है। कुछ दशक पूर्व जिनके मनौती पूर्ण होते थे वे यहां पशु बलि देते थे लेकिन शासन द्वारा सार्वजनिक पशु बलि प्रथा निषेध किए जाने के कारण खुलेआम पशु वध नहीं होता है फिर भी लुकाछिपी में बलि प्रथा जारी है।
एक अन्य कहानी के अनुसार महाभारत के पांडव अपने वनवास काल में कुछ वर्ष यहां व्यतीत किए और भीम ने हिडिंबा नामक राक्षसी को वरण किया था। भीम इसी पहाड़ी से हिडिंबा को झूला झुलाता था तथा झूला का विस्तार एक छोर पर महानदी तथा दूसरे छोर पर जोंक नदी होता था।
भीम जिस चट्टान पर खड़ा होकर झूला झुलाता था वहां उसके पैर के दबाव में गहरा खोज (पदचिन्ह) बन गया और उसी खोज के नाम पर आश्रित ग्राम “भीमखोज” का नामकरण हो गया। वर्तमान में भीमखोज रायपुर-विशाखापत्तनम रेलवे लाइन का स्टेशन है।
एक अन्य कहानी के अनुसार सुअरमारगढ़ जमींदारी के जमींदार सनमान सिंह (सन 1759-1833) चैत्र पूर्णिमा के दिन खल्लारी माता के दर्शन के लिए अपने काफिले के साथ निकले। काफिला जब बागबाहरा के आगे “लोदन नाला” के पास पहुंचा तब एक वृद्धा मिली जो मार्ग के बीचों बीच चल रही थी।
जमींदार के सैनिकों ने वृद्धा को रास्ते से हटने कहा लेकिन वह नहीं मानी। अंततः जमींदार अपने हाथी से नीचे उतरकर वृद्धा को बताया कि वह खल्लारी माता के दर्शन के लिए जा रहा है इसलिए वह काफिला के लिए मार्ग दे दे। वृद्धा ने जमींदार से कहा कि वह जिसके दर्शन के लिए जा रहा है वह मैं ही हूं, लेकिन जमींदार उसकी बातों को अनसुनी कर काफिला को आगे बढ़ने का आदेश देता है।
कुछ दूरी की यात्रा करने उपरांत जमींदार अचानक बीमार हो जाता है और इसे अपशकुन मानकर यात्रा रोककर वापसी का निर्णय करता है। वापसी में जिस स्थान पर वृद्धा मिली थी वहां एक शिलाखंड मिलता है जिसे वह अपने साथ सुअरमार गढ़ ले आता है। रात्रि में उसे स्वप्न में खल्लारी माता का दर्शन होता है और माता उस शिलाखंड में अपना वास होना बताती है। जमींदार उस शिलाखंड को गढ़ के निकट तालाब में स्थापित कर देता है जहां अभी तक “जवारा उत्सव” का आयोजन होता है।
एक अन्य प्रचलित जनश्रुति के अनुसार बेमचा ग्राम में मोची जाति का एक भक्त था जो नित्य खल्लारी माता की उपासना करता था। एक बार कुछ लोग उसे पूजा करने से रोक दिए जिससे दुखी होकर उसने गांव त्याग दिया और पूर्व दिशा की ओर निकल पड़ा।
खल्लारी माता उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसकी पीठ थपथपाते हुए बोली कि बेटा! दुखी न हो तू जहां चाहेगा मैं वहीं रहूंगी। आज सूर्यास्त होने के पूर्व तक तू जितनी दूरी मुझे ले जा सकता है ले जा। भक्त सूर्यास्त तक “खालवाटिका की पहाड़ी” तक चल सका और शिखर पर पहुंच कर माता से वहीं विराजने का आग्रह किया। तब से माता उसी पहाड़ी में विराजी हुई है।
इतिहासकारों के अनुसार 14 वीं सदी में रतनपुर के कलचुरी राजवंश का दो शाखाओं में विभाजन हो गया था और दूसरी शाखा का मुख्यालय रायपुर बनता है। रायपुर शाखा के राजा रामचंद्र या रामदेव होता है। इसके पुत्र ब्रह्मदेव जिसे “राय हरिब्रह्म देव” भी कहा जाता है। राजा हरिब्रह्म देव अपनी राजधानी कुछ वर्षों के लिए खल्लारी स्थानांतरित कर देता है।
इसी राजा राय हरिब्रह्म देव के राजत्वकाल का शिलालेख खल्लारी के प्राचीन नारायण मंदिर में मिला है जिसे अब जगन्नाथ मंदिर कहा जाता है। अंग्रेज पुरातत्ववेत्ता डॉ जे डी बेगलर खल्लारी की यात्रा कर “जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, रिपोर्ट ऑफ ए टूर इन बुंदेलखंड एंड मालवा, 1871-72 एंड इन द सेंट्रल प्रोविंसेज 1873-74 वॉल्यूम VII” में रिपोर्ट प्रकाशित कर शिलालेख की प्रथम सूचना दिया था।
पश्चात डा किल्होर्न ने एपीग्राफिया इंडिका और महामहोपाध्याय वी वी मिराशी ने कॉर्पस इनक्रिप्शन इंडिकम में शिलालेख का संपादन किया है। वर्तमान में यह शिलालेख रायपुर के महंत घासीदास संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। इस शिलालेख की लंबाई 61 सेंटीमीटर और ऊंचाई 30 सेंटीमीटर है।
इसमें पद्य में 12 श्लोक हैं; जिसे नागरी लिपि संस्कृत भाषा में लिखा गया है। इस शिलालेख में लेखन की तिथि विक्रम संवत 1470 शक संवत 1334 माघ सुदि 9, शनिवार रोहिणी नक्षत्र अंकित है लेकिन गणना करने पर विक्रम संवत 1471 तदनुसार 19 जनवरी 1415 ईसवीं सही ठहरता है। शिलालेख के 6 वें श्लोक में राजा हरिब्रह्म देव के व्यक्तित्व का गुणगान किया गया है। 7 वें श्लोक में खालवाटिका के सुंदरता की तुलना हिमालय से की गई है।
9 वें श्लोक में लिखा है कि वहां देवपाल मोची है; वह गुणों के सागर शिवदास का बेटा और जसों का नाती है, चंद्रमा के समान कांतिवाला है, उसका यश अत्यंत रुचिर है, वह अपने काम में दक्ष है, अपने सौजन्य से ब्राह्मणों के अनुचर जैसा है, विभिन्न धर्म कार्यों का अभिलाषी है, उसकी बुद्धि भगवान नारायण का स्मरण करते रहने से विमल हो गई है।
10 वें श्लोक में लिखा है कि उसने अपनी शक्ति और महान भक्ति से नारायण का मंडप युक्त मंदिर बनवाया है। हरि उसे इस लोक और परलोक में इच्छित वस्तु दे। 11 वें श्लोक में विष्णु के चरण कमलों के ध्यान रूपी अमृत सागर में उठने वाली बड़ी-बड़ी लहरों के खेल में आनंद लेने वाले दामोदर मिश्र ने यह प्रशस्ति रची, जो सरस कवि लोगों के मन में रस का निर्माण करने वाली है।
स्थानीय जानकारों का मानना है कि इस मंदिर के लोकार्पण के अवसर पर राजा राय हरिब्रह्म देव उपस्थित थे और दामोदर मिश्र उनके राजपुरोहित थे। इतिहासकारों के अनुसार राजा हरि ब्रह्मदेव ने सीमांत ओडिशा (पूर्व के महासमुंद तहसील) के पाईकमाल ने निकट गंधमादन पर्वत में और डूमर बहाल में नरसिंह नाथ का मंदिर बनवाया था। राजा हरिब्रह्म देव शिव उपासक थे और उदार शासक थे।
खल्लारी के जागरूक नागरिकों द्वारा वर्ष 2014-15, 15-16 और 16-17 में सामाजिक समरसता गोष्ठी / सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें खरियार जमींदारी के पूर्व शासक के वंशज पुरातत्ववेत्ता, लेखक जीतामित्र प्रसाद सिंहदेव, इतिहासकार प्रो लक्ष्मी शंकर निगम, प्रो रमेंद्रनाथ मिश्र, प्रो मुकुंद हंबर्दे, समाजसेवी कौसेलेंद्र प्रताप सिंह, डा जे आर सोनी, साहित्यकार गिरीश पंकज, आशीष सिंह ठाकुर, स्थानीय तत्कालीन विधायक एवं वर्तमान सांसद चुन्नी लाल साहू तथा स्थानीय विभिन्न सामाजिक घटकों के प्रमुख शामिल होते रहे है। इन पंक्तियों के लेखक तीनों कार्यक्रमों में उपस्थित रहे हैं।
वर्तमान में नारायण मंदिर के प्राचीन मूल मूर्ति या विग्रह यहां स्थापित नहीं है और उसके स्थान पर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्ति स्थापित है। मूल विग्रह को बदले जाने की जानकारी स्थानीय नागरिकों को तथा इतिहासकारों को भी नहीं है। इसी तरह इस स्थान का नाम परिवर्तन खालवाटिका से खल्लारी होने के काल की भी जानकारी नहीं है।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह स्थल सामाजिक समरसता का बेजोड़ उदाहरण है क्योंकि मध्यकाल में किसी कथित मोची जाति के व्यक्ति द्वारा राजाश्रय में मंदिर निर्माण का अन्य उदाहरण नहीं मिला है तथा जिसके तीन पीढ़ियों की प्रशंसा किसी राजपुरोहित द्वारा की गई हो।
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