दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) प्रांत प्राचीनकाल से दो बातों के लिए प्रसिद्ध है, पहला धान की खेती और दूसरा माता कौसल्या की जन्मभूमि याने भगवान राम की ननिहाल। यहाँ का कृषक धान एवं राम, दोनों से जुड़ा हुआ है। यहाँ धान की खेती प्रचूर मात्रा में होती है, इसके साथ ही यहाँ धान की 23 हजार से अधिक किस्में प्रचलित हैं। जहाँ धान हैं, वहां धान मापने के लिए माप पात्र भी होता है, यह माप पैली से प्रारंभ होता है। बस्तर, सरगुजा अंचल के हाट बाजारों में आज भी पैली, काठा का प्रयोग माप के लिए होता है।
पैली एक सेर की होती है, इससे बड़ा माप काठा होता है। छोटा काठा तीन पैली और बड़ा काठा चार पैली का माना जाता है। इस तरह पैली और काठा धान या धान्य मापने के पात्र है। जो अधिकतर नीम की लकड़ी के भीतरी भाग की खुदाई कर बनाया जाता था और इसका नामकरण भी लकड़ी (काष्ठ) का बना होने के कारण काठा पड़ा। काठा के बाहरी हिस्से में दोनों तरफ लोहे के छल्ले (चुल्ला) लगे होते हैं। जो काठा को धान नापते समय आसानी से दोनों हाथ के उंगलियों के बीच पकड़ने के लिए लगाए जाते थे, ताकि काठा हाथ से फिसले न।
काठा दो प्रकार का होता है। एक काठा सामान्य काठा होता है जिसमें लगभग सवा दो किलोग्राम या तीन पैली धान आता है। जिसका अधिकाधिक प्रयोग वस्तु एवं सेवाओं के आदान-प्रदान में किया जाता रहा है। छत्तीसगढ़ में नाई, धोबी, लोहार, चरवाहा, चमड़े के काम के लिए मेहर आदि से कृषि संबंधित कार्य करवाने को पौनी पसारी कहा जाता है। पूर्व में इनसे सम्पूर्ण गांव के कृषक एक ही दर पर एक वर्ष के लिए सेवा लेते थे तथा इनकी मजदूरी (मेहनताना) को जेवर कहा जाता था।
दूसरा काठा बड़ा होता है, जिसे लम्मर काठा कहा जाता था। इसमें इसका दोगुना धान या वस्तु आता था। इसका प्रयोग मात्र धान मिसाई के उपरांत कितना धान उत्पादन हुआ है, उसको मापने में किया जाता था। यह अतीत का हिस्सा बनकर रह गया है। अब इसका प्रयोग नहीं के बराबर हो गया है। यह काठा धान को मापने की इकाई है।
बीस काठा को एक खंडी या एक खांड़ी कहा जाता है और बीस खंडी का एक गाड़ा होता है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति में काठा का वस्तु एवं सेवाओ के आदान-प्रदान में योगदान रहता है।
छत्तीसगढ़ में नौकर और पौनी पसारी को भी सेवावों के बदले काठा के नाप से ही धान दिया जाता था। बहुत पहले सामान्य मजदूरी प्रति मजदूर प्रतिदिन एक काठा होता था। अभी से कुछ वर्ष पूर्व तीन काठा तक हुआ करता था। जब से नगद मजदूरी का प्रचलन हुआ, तब से लगभग वस्तु विनिमय समाप्त हो गया।
नौकरों को उनकी योग्यता के अनुसार जो खेती में काम के साथ हल, जूड़ा, बेलन आदि कृषि उपयोगी लकड़ी के सामान बनाना जानते थे और साथ-साथ कृषि कार्य में काफी मेहनती हो, उनको एक वर्ष के लिये लगभग दो से अढ़ाई गाड़ा में लगाया जाता था।
पौनी पसारी को कुछ गांव में अभी भी लगाया जाता है। उनका जेवर वर्तमान में नाई को प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष दस से बारह काठा, चरवाहे को प्रति मवेशी दस से बारह काठा, लोहार को प्रति हल दस से बारह काठा, धोबी को प्रति मृतक कर्म या जन्म कर्म के अनुसार, मेहर को प्रति हल और बैलगाड़ी के अनुसार, काठा के नाप से ही धान आदि जेवर दिया जाता था।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति में काठा का पूज्यनीय स्थान रहा है। प्रायः काठा का उपयोग करने के वाले व्यक्ति को स्नान करने के पश्चात उपयोग करना होता था। काठा के उपयोग के प्रारंभ एवं अंत में नमन वंदन किया जाता था। काठा के उपयोग में गणना की भी अपनी विशेषता होती थी। पहली गिनती को एक न कहकर राम कहा जाता था और गिनती राम, दो, तीन, चार क्रमशः अठारह तक और जब तक एक नाप पूर्ण न हो, नापने वाला उस संख्या को दो से तीन बार स्पष्ट स्वरों में दोहराते रहता था।
दोहराव से सभी लोग स्पष्ट सुन लेते और कोई भ्रम की स्थिति न रहे। उन्नीस को उनसही या उनसहित अर्थात सम्पूर्ण में एक कम और बीस को खंडी, खांड़ी या सरा कहा जाता था। जैसे कई खंडी धान नापना है, तो एक खंडी नापने के बाद याददाश्त के लिये एक मुट्ठी धान को बगल जमीन में रखकर और पुनः राम से प्रारंभ किया जाता था। काठा के उपयोग के बाद काठा में एक मुट्ठी धान रखने की परंपरा रही है काठा को बिल्कुल खाली नहीं रखा जाता था।
जब भी कोई नौकर या पौनी मालिक के घर से धान ले जाते थे और उनका हिसाब किताब यदि शेष रहता था तो उनका मालिक कापी किताब में लिखा पढ़ी नहीं करता था बल्कि नौकर या पौनी से मालिक के घर के जहां धान नापा जाता था उसके ऊपर दीवार पर सुरक्षित जगह पर जहां पर कम से कम एक वर्ष तक उल्लेखित रहे, गोबर का टीका लगवाया जाता था। जिसे टिक्की लगाना कहा जाता था।
जिसमें एक खंडी के लिये लगभग तीन इंच ऊपर से नीचे लकीर लगाया जाता था। इस प्रकार के लोग एक समय में कम से कम पाँच काठा धान ले जाते थे। पाँच काठा के लिये एक छोटी टिक्की लगाते थे। पंद्रह काठा तक तीन टिक्की और जब बीस काठा होने पर एक खंडी की लकीर खींच देते थे। इस प्रकार से मजदूरी का भुगतान होता था।
किसी को दान करने पर भी सवा काठा से कम का दान भी नहीं दिया जाता था। उससे अधिक जितना भी हो सभी में सवा करके ही दान चढ़ोत्तरी की जाती थी। यही हमारी संस्कृति की पहचान है।
तो यह थी काठा और काठा से जुड़ी तमाम बातें। लोक का हर एक व्यक्ति लोक की परम्परागत संस्कृति की कितनी सारी जानकारी को अपने भीतर संजोये रहता है, जीता है। ऐसी कई परंपरा और संस्कृति की धनी है हमारी छत्तीसगढ़ी संस्कृति, जहाँ किसान फ़सल बोते समय बीज की पहली मुट्ठी राम का उच्चारण करके खेत में छिड़कता है।
फ़सल आने के बाद जब उसे मापता है तो राम नाम का उच्चारण करके मापना आरंभ करते हुए फ़सल को राम को समर्पित करता है। इसके पीछे तेरा तुझको अर्पण का वीतरागी भाव है। यह छत्तीसगढ़ की धरती के किसान की कर्तव्यपरायणता एवं साधुभाव है जो चिरई चुरगुन से लेकर मानव तक का पेट अपनी मेहनत और श्रम से भरता है।