आषाढ़ मास में माता पहुचनी के बाद श्रावण कृष्ण पक्ष अमावस्या को किसान अपना द्वितीय पर्व ‘हरियाली’ मनाता है।
किसान अपने खेती में इस प्रकार हल जोतता है मानों अपने कंधा रूपी हल से धरती माँ के केशों को सवांर रहा हो मांग निकालता है, जिसे किसानी भाषा में कुंड़ कहा जाता है। जिससे विविध भांति के अन्नों को बों, रोप कर मानों केशों को फूल गजरे से सवारते हुये धरती माता को दुल्हन के परिधान से सुसज्जित करता है। जब फसल कुछ बड़ी होकर ब्यासी के लायक हो जाती है तब किसान माता की बेणी रूपी मेड़ को खोपा की तरह बांध कर बियासी का कार्य सम्पन्न करता है।
इस समय प्रकृति अपने हरित परिधान से सृष्टि में उमंग उत्साह का संचार कर ऊर्जा से परिपूर्ण करती है। जब चारों ओर धरती हरी-भरी होकर लोगों के हृदय में समाती है। सूखी बैरान धरती में हरे पौधों का आना, ऐसा सुअवसर श्रावण अमावस्या को आता है। इस समय तक किसान रोपा ब्यासी का कार्य पूर्णतः निपटा लेता है। यदि इसके बाद कोई कार्य पिछड़ता है तो उसे पिछड़ती खेती कहते है जिसमें भरपूर फसल की आशाक्षीण हो जाती है। रोग आक्रमण का खतरा बढ़ जाता है हरियाली के पौराणिक, आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक महत्वों के बारे में समझना जरूरी है यह पर्व सजग स्वास्थ्य का संदेश देता है। 1- जन स्वास्थ्य, 2- पशु स्वास्थ्य, 3- फसल स्वास्थ्य। इन्हे समझने के लिए इसके विधि विधान को बारीकी से समझने की आवश्यकता है।
एक दिन पूर्व श्राद्ध अमावस्या श्रावण कृष्ण चतुर्थी को शुभ मुहर्त (एक जून) को एकांत स्थान पर उगे भेलवा अथवा नीम के पत्तों को तोड़ा जाता है। इस मास पक्ष तिथि व समय को पौधों के पत्तियों में अद्भुत ऊर्जा को भंडार होता है। समय में तोड़े गये पत्तो से हमें वातावरण को स्वास्थ्य बनाने को काम करते है। इस दिन पत्तों को तोड़ कर घर में रख देते है श्राद्ध आमवस्या को ही वैद्य एवं ग्वाले लोग जंगल से औषधियाँ कंद व जड़ जिसमें दशमूल जंगली प्याज (बन गोंदली) ला कर कालमयी रात्रि में हंडी (मृदा पात्र) में रखकर रात्रि भर पकाते समय छाया नही पड़ने देते अन्यथा दवा का असर कम हो जाता है या दवा दूष्प्रभावी हो जाती है।
दवा लाने से पकाने तक उपवास रहते है। तन-मन की शुद्धता से औषधि का निर्माण करते है। इस घोर रात्रि में गांव से बाहर विरान जगह माता देवाला पर ग्राम प्रमुख एवं बैगा लोग माता की पूजा अर्चना कर सुमिरन करते हैं कि “हे माता! जन धारणी गांव में सुख शांति, मंगलाचार हो, सब निरोगी रहें। अन्न धन का विपुल भंण्डार हो दैवीय प्रकोप, तंत्र मंत्र की बाधाओं से हमारे रक्षा करें। बाधाओं एवं दुष्ट आत्माओं के कटंतर के लिए कुकरी पोई (मुगी के चूजे) बलि देते है। ग्राम की देवी देवता भूत पिशाच का शांत करने का उपाय लोग अलग-अलग ढ़ंग से करते है जिसे ‘धुरपइयाँ’ कहते है।
रात्रि तंत्र मंत्र की साधना करने वालों की परीक्षा की घड़ी होती है इस दिन अपने गुरू को गुरू दक्षिणा दी जाती है। जादू,टोना,तंत्र,मंत्र वास्तव से सुक्ष्म ऊर्जा के श्रोत है जिसमें अणु परमाणु, जीवाणु (बैक्टैरिया) विषाणु (वायरस) के माध्यम से प्राणियों को प्रभावित करते है जिसे समझना आज के वैज्ञानिक युग में भी संभव नही हो पाया है वर्तमान के कई स्त्री या पुरूषों के पास साधना के द्वारा तांत्रिक जादुई विद्या मौजूद है जिसका अन्वेषण होना चाहिए उनके विपुल अर्जित ऊर्जा का दोहन जग कल्याण में हो। हालंकि विदेशी वैज्ञानिको ने प्रयास किया है।
लोग अंधविश्वास का नाम देकर सच्चाई से दूर भागना चाहते है। मन से जब सब स्वीकार करते है तो बात जरूर दम की है। गांव में आज भी टांनही और सोधी की संख्या है किन्तु विलुप्तता के कगार में ऐसे लोग साधना और तप से दूर दृष्टि व दैवीय शक्ति (जैविक शक्ति) एवं सूर्योपासना से नजर में अदभूत शक्ति तथा मंत्र साधना से वायु शक्ति प्राप्त कर लेते है। जानकार इसे ढाई पद अक्षर की मंत्र शक्ति कहते है। उससे भी अधिक साढ़े तीन पद लेकर 27 पद मंत्रो के साधक होते है जिन्हे सोधी कहते है इस श्रेणी में तांत्रिक एवं बैगा आदि आते है।
वायु प्रस्फुटन एवं नजर के अद्भूत ऊर्जा प्रसारण से पाचन एवं तंत्रिका तंत्र विशेष रूप से प्रभावित होता है। शारीरिक एवं मानसिक एवं ग्रह प्रभावित लोग इसके शिकार होते है। मंत्र के प्रभाव से हड्डी एवं पूरा शरीर प्रभावित हो जाता। जिसका समाधान उन्ही पद्धति से होता है सिद्ध साधक स्व प्रकाश उत्सर्जित करने की क्षमता रखते है इससे संदभित तथ्यों को प्रमाणित करना संभव नही है किन्तु अटल सत्य है ओैर है तो एक दिन सिद्ध भी होगा।
पुराणों में कहा गया है कि श्रावण आमवस्या अर्थात् हरियाली को प्रातः काल किसी एकांत जलाशय में जाकर स्नान करने एवं ब्राम्हण भोजन व दान करने से पितृ प्रसन्न होते है।
इस दिन गांव में खेती किसानी का काम बंद रखा जाता है। महिलाएं स्वच्छ स्नान कर परंपरा अनुसार गुड़ का चिला, दोदरा व इच्छानुसार भोजन तैयार करती है तब किसान अपने औजार, हल, फावड़ा, कुदाल, कुदाली, कुम्हड़ी, बिन्धना, बसुला, हथौड़ी, आरी,असिया, पैसुल, छूरा, खुर्पी आदि को धोकर स्वच्छ मिट्टी (मुरमी) का आसन से सजाकर किसान-किसानिन पुजा सामग्री रखकर घोले हुऐ चांवल आटे से हाथा लगाकर चन्दन फुल धुप दीप व चीला रोटी से भोग लगा श्रीफल अर्पित करते है एवं भाव विभोर हो प्रार्थना करते है- ‘हे बलराम रूपी हल प्रचण्ड शक्ति के प्रतीक धारापति, आपने कंधा के रूप में माता को संवारा एवं सेवा करने में हमारी सहायता की कृषि कार्य बोनी ब्यासी रोपा के होते ही चहूओर हरियाली छाई इसके लिए कोटिशः धन्यवाद आपका कार्य सम्पन्न हुआ विश्राम करे। हमने आपको बड़ा कष्ट दिया, काम लिया हमें क्षमा करें। आपकी दया हम पर सदैव बनी रहे इसी प्रकार अन्य औजारों का कार्यानुसार निवेदन करते गेड़ी की पूजा कर शरीर के सामर्थ पैरो की रक्षा की कामना करते है।
इस पर्व में गेंड़ी का भी कम महत्व नही है बांस के मोटे डंडो एवं बांस के पहुये (पैरटिकाना) विशेष विधि से कस कर बांधा जाता है। गेड़ी एक साधारण मशीन है इसका उधारण हमें पुराणों में मिलता है। बलदाऊ कृष्ण अपने सखाओं के साथ गेड़ी चढ़ा करते थे कृष्ण लीला प्रसंग में इसका उदाहरण मिलता है तथा खेलो के आयोजन भी होते रहे जिसमें गेड़ी दौड़ पानी पिलाना एक पैर में खड़े होना, चिंगलई एक पैर में कूदना जलकी डुबऊला आदि अनेक खेल का आयोजन प्राचीन काल सेअब तक होते आ रहे हैं।
पहले अधिकांश भू-भाग घोर जंगल से ढ़का था जिससे वर्षाकाल का जल अधिक दिनों तक रूकता, प्रभाव से श्रावण में भारी बारीश से धरती कीचड़ युक्त हो दलदल का रूप धारण कर लेती है। चलना दुष्कर होता है। अंगुलियों के पैरो में केंदवा खाने से बड़ा कष्ट होता दलदल पार करने एवं नदी पार करने के लिए गेड़ी जैसे मशीन का अविष्कार किया गया। अपनी सुविधा एवं सामर्थ के अनुसार गेड़ी का निर्माण करते। इस साधन का उपयोग ऋतु अनुसार ठीक एक माह तक भाद्रपद अमावस्या को पूजा पाठ कर सहायता के लिए धन्यवाद देते हुये जलाशय में विसर्जित कर दिया जाता है।
प्रातः काल किसान अपने खेत-खलिहान में भेलवा अथवा नीम की डाली खेत के बीच में गाड़ता है जिसे ‘डारा खोचाई कहते है’’ इसके पीछे वैज्ञानिक तर्क है। भेलवा पेड़ की छाया बहुत तेज होती है (छांव भी तेज होती है) इसकी छाया से सामान्य मनुष्य भी प्रभावित होता है। शरीर उदल (घाव) जाता है जो बड़ा कष्ट कारी होता है। भेलवा के प्रभाव से बैक्टेरिया एवं वायरस नष्ट हो जाते है। खेतो में डालने से हानिकारक जीवाणु से फसल को क्षति पहुचाते है। वे नष्ट हो जाते है जिससे फसल सुरक्षित हो जाती है। भेलवा पत्ते को गृह के प्रवेश द्वार में रखा जाता है जिससे सुक्ष्म जीवी (भूत,प्रेत की परक्षयी) जीवाणु विषाणु प्रवेश करते ही नष्ट हो जाते है इसके सुखे हुये पत्ते से फुक-झाड़ भी किया जाता है।
इसी प्रकार नीम व अन्य पत्तों का उपयोग सर्व विदित है। मौसम परिवर्तन से अनेक रोगों का जन्म होता है। पशु धन की सुरक्षा के लिए ग्वाला रात्रि में औषिधि का निर्माण करता है जिसके बारे में बताया गया है। जड़ी बुटियों से तैयार सर्वोंषधि को गौठान में ले जाकर अन्डी एवं खम्हार के पत्तों में नमक चावल या गेहूँ के गोला के साथ दवा डाल कर पशुओं को खिलाया जाता है। एरण्ड, खम्हार का पत्ता औषधि है वायुजनित रोगों को दूर करता है। नमक उत्प्रेक्षण का कार्य करता है, चावल या गेहूँ के कारण दवा अधिक असरकारक बन जाती है। इससे पशु धन निरोग हो जाता है यह एक प्रकार टीकाकरण ही है। बचे हुए औषधि को ग्रामवासी भी खाते है बदले में ग्वालों को पसारी देते है दवा के सेवन से रोगों का नाश होता है। पर्वों में अनेक टोटके भी किये जाते है जो रोगों के समझ से बाहर है किन्तु रहस्य थोडे ही कम हो जाते है। हमारी मशीनी स्वास्थ्य के लिए कितने सजग थे के साथ उपायों का प्रचार प्रसार करते थे यह पर्व तो अनेक वैज्ञानिक मान्यताओं से भरा है जो नियोजित व्यवस्था का सूचक है। शासन द्वारा अनेक कार्यक्रम चलाये जाते है। ऐसे पर्वो को जोड़कर कार्यक्रम तय करने चाहिए।
अधिकांश लोग इस पर्व में मांस मंदिरा का भक्षण कर कृषि काल में हास हुये ऊर्जा एवं थकान मिटाते हैं और नये उत्साह के साथ कृषि कार्य से जुड़ जाते हैं। हरियाली हमें तीक्ष्ण ज्ञान को समझने एवं सदैव सतर्क रहने का संदेश देता है, कर्तब्यों के निर्वाह से हरियाली से हरियाली प्राप्त होता है।
पोला
भाद्रपद आमवस्या को पोला मनया जाता है इसे पोला पाटन, कुशोत्पाटिनी तथा 36 गढ़ी में पोरा जांता के नाम से जाना जाता है। यह पर्व कृषि प्रधान देश के किसानों की सजगता के लिए महत्वपूर्ण संदेश है। हरियाली पर्व में स्वस्थ्य कामना के साथ पूजा कर कृषक अपने खेतों कि निंदाई-कुड़ाई में लग जाते है ठीक एक माह तक कार्य पूर्व करने के बाद जब निदाई-कोड़ाई सम्पन्न हो जाता है। खेत की फसल लहलहाने लगती है। और गर्म धारण करती है। घास की अन्तिम निंदाई को समापन पर्व के रूप में कुशोत्पाटिनी मनाया जाता है ओैर तृण राजकोष को उखाड़ा जाता है। खलिहान से घास बाहरी आदि की लुवाई की जाती है।
पोला से ही हँसिया चलाने की अनुमति मिलती है फसल के गर्म धारण पर अमावस्या की घोर रात्रि में माता-गुड़ी बैगाओं एंव ग्राम प्रमुखो के द्वारा माता की पूजा की जाती है। जिस प्रकार अपनी पुत्री के गर्भवती होने पर विशेष व्यंजन से सधौरी खिलाने की परंम्परा है उसी प्रकार रात्रि में विभिन्न पाक व्यंजन से नैवेद्य अर्पित कर प्रार्थना करते है – हे माता फसल गर्भ से परिपूर्ण अन्न ऊर्जावान गुण कारी पुष्ट एवं स्वादिष्ट हो। अन्न का विपुल उत्पादन हो। इस घोर रात्रि में तंत्र मंत्र विद्या सिखने वालो की पूरक परीक्षा होती है, जो साधक हरियाली आमवस्या में असफल होते है उन्हे एक मौका मिलता है। इसलिए इस रात्रि में ग्रामवासी घर से बाहर नही निकलते।
प्रातःकाल किसान खेत में घास नही है कि प्रमाणिकता बतौर नेग से दूबी उखाड़ता है जब खेत तृण रहित हो तभी विपुल भण्डार की आशा की जा सकती है। पूर्व समय में अनुशासित खेती होती थी किसान तभी हो सकता था जब तक निंदा रहित खलिहान होने का प्रमाण न दे। जो आज के दिन संकल्प रूप से दूबी उखाड़ कर इस बात की पुष्टि करते है। वर्तमान में अब किसान नाम मात्र रह गये है शेष आश्रित किसान ही तो है जो कई समस्याओं से घिर कर अपना कार्य समय में सम्पादित करने में असमर्थ है।
कहावत है ‘खेती अपन सेती’ (सेती- अपने खातिर स्वयं के लिए या सेवा करना) आखिर खेती अपनी ही सेवा के लिए तो की जाती है। कामगार इस दिन बाहरी झाड़ो आदि काट कर से उत्तम यंत्र का निर्माण करते है जिससे हमारा घर व आस-पास साफ सुथरा रहता है। व्यापारी अपने तराजु के पासन को ठीक करता है। क्षत्रिय अपनी ढाल सुधारता है ब्राम्हणो के लिए दिन अति महत्वपूर्ण है ब्राम्हण तृणों के राजा कुश को जड़ सहित अखाड़ता है धर्म में कुशा को सोने से तुलना की गई है। कुश जड़ व पत्ते से देव और पितृ प्रसन्न होते है। कुशा का फूल भगवान शिव एवं सूर्य में अर्पित होते है एक कुश का पुष्प हजारों स्वर्ण दान के बराबर है।इसलिए इस पर्व को कुशा ग्रहणी, कुशोत्पाटीनी कहते है। इसके संबंध में ’’मंदन रत्न’’ ग्रन्थ में दस प्रकार का कुश बताया गया है।
कुशा:काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।
गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।।
कुशा उखाड़ने का समय पुर्वान्ह में मानी जाती है जिस कुशा का भुल सुतीक्षण हो उसमें सात पत्ती हो अग्रभाग कटा न हो और हरा हो वह देव और पितृ दोनो कार्या में योग्य होती है। उसके लिए अमावस्या को दर्म स्थल में जाकर पूर्व या उत्तर मुख बैठे और –
‘‘विरज्चिना सहोत्पन्न परमेष्ठिन्नि सर्गज।
सर्वाणि पावानि दर्म स्वस्ति करो भवा।। हूँ फट।’’
इस मंत्र को उच्चारण करके कुशा को दाहिने हाथ से उखाड़े ऐसे शास्त्रों में कहा गया हैं। कुशा से देवो एवं पितृ को तर्पण किया जाता है। ब्राम्हण द्वारा तृण राज को अंतिम निंदाई के रूप में मानते है।
हरियाली में विधि अनुसार कृषि औजारों की पुजा की जाती है उसी प्रकार इस पर्व में नन्दी (बैलों) पुजा का विशेष महत्व है। हरेली के बाद से बैलों के द्वारा कृषि कार्य सम्पन्न होने से एक माह आराम एवं हरा चारा मिलने से वृषभ हिष्ट-पुष्ट हो जाने पर पोला पर्व में बैलों का विशेष रूप से शृंगार किया जाता है जिसे नांदिया बैला कहते है इस दिन नांदिया बैला दौड़ प्रतियोगिता जगह-जगह आयोजित किये जाते है कुछ विशेष वर्ग के लोग नांदिया बैला ‘बुगबुगी’’ बाजा को साथ करतब दिखा मनोरंजन करते है। नंदी भगवान शिव के वाहन है नंदी के बिना शिव जी अधूरे है शिव के कोप से नंदी ही बचा सकते है, उसमें उनके क्रोधाग्नि सहने की क्षमता जो है। इसलिए शिवलिंग के सामने हमेशा नंदी की स्थापना की जाती है।
यह पर्व बच्चों के संस्कार दिवस के रूप में मनाया जाता है। कुम्हार द्वारा विविध प्रकार को नांदिया बैला चक्का एवं पोरा जांता व मिट्टी के खिलौने बनाये जाते है किसान अपने देव गृह में चौकपुर पीढ़े पर सफेद वस्त्र बिछा कर काली मिट्टी से नंदी कोटना और कुम्हार निर्मित वस्तुओं को लगातार स्नान चंदन, धूप दीप व नैवदैय अर्पित करते है इस रोज सोहारी का विशेष महत्व है तथा यथा शक्ति विशेष पकवान भी तैयार किये जाते है जिसे चुकिया द्वारा भोग के रूप में की जाती है। कच्ची मिट्टी से बने नंदी की पूजा तीजा तक की जाती है तीज उपासनी इनकी पुजा व विसर्जन कर बासी फरहार करती है। हरेली में निर्मित गेंड़ी को एक माह उपयोग करने के बाद चीला रोटी के साथ नदी तालाब में विसर्जित की जाती है। इसके बाद बच्चों के खेलने के लिए चक्का वला नांदीया वा जाता पोला आता है जिसे लड़के गली-गल घुमाते है घर-घर गोंदली का खेल करते है उसके माध्यम से बच्चों मे बचपने से गृह संचालन की क्षमता विकासित होती है। वस्तु कला का निर्माण पाक शिक्षा, कुआं निर्माण पानी निकालने व उपयोग करने की शिक्षा, न्याय व ग्राम व्यवस्था संचालन खेल-खेल के माध्यम से इस गुण का विकास होता है। जिसे बच्चे जुच्छा-मुच्छा का खुल कहते है इससे बच्चों में नैतिक शिक्षा घृह संचालन सहिष्णुता भाई चारे के गुण विकासित होते है हमारे मनिषियों इस प्रकार की व्यवस्था कि की बच्चे बचपने में ही संस्कारवान हो एक अच्छ नागरिक बने बालिका एक कुशल गृहणी बन लक्ष्मी के रूप में पूजे जाये। सामाज में संस्कार के व्यापक प्रसार के लिए इस प्रकार के पर्वो को परंम्परा के रूप में मनाते आ रहे है। जिससे हमारा समाज द्रुतगति से आगे बड़ कार्य कुशलता अर्जित कर सके। अनेक प्रांतों में इनकी पूजा अपने-अपने ढ़ंग से करते है।
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